रश्मिरथी द्वितीय सर्ग

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रश्मिरथी द्वितीय सर्ग
'रश्मिरथी' रचना का आवरण पृष्ठ
कवि रामधारी सिंह दिनकर
मूल शीर्षक रश्मिरथी
मुख्य पात्र कर्ण
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
ISBN 81-85341-03-6
देश भारत
भाषा हिंदी
विधा कविता
प्रकार महाकाव्य
भाग द्वितीय सर्ग
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द
विशेष 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है।
रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ
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रश्मिरथी जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर के सबसे लोकप्रिय महाकाव्य कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। द्वितीय सर्ग की कथा इस प्रकार है -

द्वितीय सर्ग

  • रंग-ढ़ंग से कर्ण को  यह ज्ञात हो चुका था कि द्रोणाचार्य निश्छ्ल होकर उसे धनुर्विद्या नहीं सिखाएँगे। इसलिए शस्त्रास्त्र सीखने को वह उस समय के महा-प्रतापी वीर परशुराम जी की सेवा में पहुँचा। परशुराम संसार से अलग होकर उन दिनों महेंद्रगिरि पर रहते थे।

अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,
एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।
चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,
लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।[1]

  • उनका प्रण था कि 'ब्राह्मणेतर जाति के युवकों को शस्त्रास्त्र की शिक्षा नहीं दूँगा।' किंतु, जब उन्होंने कर्ण का तेजोद्दीप्त शरीर और उसके कवच-कुण्डल देखे, तब उन्हें स्वंय भासित हुआ कि यह ब्राह्मण का बेटा होगा। कर्ण ने गुरु की इस भ्रांति का खण्डन नहीं किया। वह माँ के  पेट ही से सुवर्ण के कवच और कुण्डल पहने जनमा था।

मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,
शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।
यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,
भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का। [2]

हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,
सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।
पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,
पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।[3]

  • शस्त्रास्त्र की शिक्षा तो परशुराम जी ने उसे खूब दी, लेकिन एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने भण्डाफोड़ कर दिया। बात यह हुई कि एक दिन परशुरान कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सोये हुए थे; इतने में एक कीड़ा उड़ता हुआ आया और कर्ण  की जंघा के नीचे घुसकर घाव करने लगा।

परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में,
फिर सहसा क्रोधाग्नि भयानक भभक उठी उनके तन में।
दाँत पीस, आँखें तरेरकर बोले- 'कौन छली है तू?
ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू?[4]

  • कर्ण  इस भाव से निश्चल बैठा रहा कि हिलने डुलने से गुरु की नींद उचट जाएगी। किंतु, कीड़े ने उसकी जाँघ में  ऐसा गहरा घाव कर दिया कि उससे लहू बह चला। पीठ में  गर्म लहू का स्पर्श पाते ही परशुराम जाग पड़े और सारी स्थिति समझते ही विस्मित हो रहे। उन्हें लगा, इतना धैर्य ब्राह्मण में कहाँ से आ सकता है? अवश्य ही,  कर्ण क्षत्रिय अथवा किसी अन्य जाति  का युवक है। कर्ण  सत्य को और छिपा नहीं सका तथा उसने गुरु के समक्ष सारी बातें स्वीकार  कर लीं। -

'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?
कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?
धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?
जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?[5]

  • इस पर भी परशुराम शांत नहीं हुए और उन्होंने यह शाप दे डाला कि ब्रह्मास्त्र चलाने की जो शिक्षा मैंने दी है, उसे तू अंतकाल में भूल जाएगा - 

'मान लिया था पुत्र, इसी से, प्राण-दान तो देता हूँ,
पर, अपनी विद्या का अन्तिम चरम तेज हर लेता हूँ।
सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा,
है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।[6]

कर्ण-चरित

कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं,जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है। रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-

 मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।[7][8]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'दिनकर', रामधारी सिंह “द्वितीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 15।
  2. 'दिनकर', रामधारी सिंह “द्वितीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 16।
  3. 'दिनकर', रामधारी सिंह “द्वितीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 16।
  4. 'दिनकर', रामधारी सिंह “द्वितीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 21।
  5. 'दिनकर', रामधारी सिंह “द्वितीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 20।
  6. 'दिनकर', रामधारी सिंह “द्वितीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 24।
  7. 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 57।
  8. रश्मिरथी (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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