वर्ष

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संवत्सर की उत्पत्ति वर्ष गणना के लिये ही होती है। ऋतु, मास, तिथि आदि सब वर्ष के ही अंग हैं। ब्राह्म, पित्र्य, दैव, प्राजापत्य, गौरव, सौर, सावन, चन्द्र और नक्षत्र- इन भेदों से नौ प्रकार की वर्ष-गणना होती है। इनमें ब्राह्म, दैव, पित्र्य और प्राजापत्य- ये चार वर्ष कल्प तथा युग-सम्बन्धी लंबी गणना के काम में प्रयुक्त होते हैं। शेष गौरव (बार्हस्पत्य), सौर, सावन, चन्द्र और नक्षत्र वर्ष साधारण व्यवहार के लिये हैं। भारत को छोड़कर अन्य देशों में से प्राय: मुस्लिम देशों में चन्द्र वर्ष तथा दूसरों में सौर और सावन वर्षों से काल-गणना की जाती है। भारत में पाँचों प्रकार की लौकिक वर्ष गणना का सामंजस्य सौर वर्ष में क्षय-वृद्धि करके बनाये रखते हैं। इस प्रकार लौकिक वर्ष-गणना सौर वर्ष से होती है। इस सौर वर्ष के दो भेद हैं-

  1. सायन और
  2. निरयण।

इनमें निरयण वर्ष-गणना केवल भारत में प्रचलित है। सभी देशों में सायन मान एक-सा माना जाता है; क्योंकि सायन मान दृश्य गणित पर निर्भर है। निरयण गणना केवल यन्त्रों के द्वारा ही सम्भव है; अत: निरयण वर्ष के मान में मतभेद है। विभिन्न ज्योतिषाचार्यों के मतानुसार विभिन्न वर्षों के काल मान की नीचे एक तालिका दी जा रही है। इससे वर्षों का अन्तर समझ में आ सकेगा।

सिद्धान्त

कालमान

क्र0 सं0

नाम

वर्ष

दिन

घटी

पल

विपल

प्रतिविपल

1

सूर्य सिद्धान्त

1

365

15

31

31

24

2

वेदांग ज्यौतिष

1

366

0

0

0

0

3

आर्यभट

1

365

15

31

15

0

4

ब्रह्मस्फुट-सिद्धान्त

1

365

15

30

22

30

5

पितामह सिद्धान्त

1

365

21

15

0

0

6

ग्रहलाघव

1

365

15

31

30

0

7

ज्योतिर्गणित (केतकर)

1

365

15

22

57

0

8

लाकियर (नाक्षत्र)

1

365

15

22

52

30

9

लाकियर (मन्द्रकेन्द्र)

1

365

15

34

34

0

10

लाकियर (सायन)

1

365

14

31

56

0

11

टालमी (सायन)

1

365

14

37

0

0

12

कोपरनिकस (सायन)

1

365

14

39

55

0

13

मेटन (नाक्षत्र)

1

365

15

47

2

10

14

बेबोलियन (नाक्षत्र)

1

365

15

33

7

40

15

शियोनिद

1

365

14

33

32

45

16

थेषित

1

365

15

22

57

30

17

आचार्य आप्टे (उज्जैन)

1

365

15

22

58

0

18

विष्णुगोपाल नवाथे

1

365

14

31

53

25

19

आधुनिक यूरोपियन

1

365

15

22

56

52

20

चन्द्र

1

354

22

1

23

0

21

सावन

1

360

0

0

0

0

22

बार्हस्पत्य

1

361

1

36

11

0

23

नक्षत्र

1

371

3

52

30

0

24

सौर (जो प्रचलित है)

1

365

15

31

30

0


ऊपर के वर्षों का यदि कल्पों तक की गणना में उपयोग किया जाय तो उनमें से सूर्य सिद्धान्त का मान ही भ्रमहीन एवं सर्वश्रेष्ठ प्रमाणित होता है। सृष्टि संवत के प्रारम्भ से यदि आज तक का गणित किया जाय तो सूर्य सिद्धान्त के अनुसार एक दिन का भी अन्तर नहीं पड़ता। सूर्य सिद्धान्त से प्रतिवर्ष गणना में साढ़े आठ पल से भी अधिक का अन्तर है। सूर्य सिद्धान्त के प्राचीन मान से आधुनिक मान का अन्तर 8 पल 34 विपल का होता है। प्राचीन अयन गति 60 पल और आधुनिक अयन गति 50 पल, 26 विपल होने से गति का अन्तर 9 पल 34 विपल होता है। इस प्रकार 9 पल 34 विपल तथा 8 पल, 34 विपल में केवल एक पल का अन्तर होता है। इस प्रकार सूर्य सिद्धान्त के मान में एक पल कम करके गणित करने से 5000 वर्ष तक के दिनादि सब ठीक मिलते हैं।

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