भवानीविलास
भवानीविलास रीति काल के ख्याति प्राप्त कवि देव की सुप्रसिद्ध रचना है। 'भावविलास' और 'अष्टयाम' के पश्चात् यह कवि देव की तीसरी रचना मानी जाती है, जिसको उन्होंने अपने आश्रयदाता भवानीदत्त को अर्पित किया था।
रचना काल
अन्तर्बाह्य किसी भी प्रकार के साक्ष्य से 'भवानीविलास' का रचना काल ज्ञात नहीं होता। अनुमानत: इसका निर्माण 1693-97 ई. (संवत 1750-55) के लगभग हुआ होगा। नगेन्द्र का यही अनुमान है।[1] ग्रंथ की सम्पूर्ण छन्द संख्या 384 है।
प्रकाशन
इसका प्रकाशन 'भारत जीवन प्रेम', बनारस से सन 1893 ई. में हुआ था तथा हस्तलिखित प्रतियाँ गन्धौली, सूर्यपुरा, टीकमगढ़ और लखनऊ में उपलब्ध हैं।
रस ग्रंथ
'भवानीविलास' में 'भावविलास' के अनेक छन्द उद्धृत मिलते हैं। अत: इसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है। यह रस ग्रंथ है, जिसमें प्राय: आद्योपांत श्रृंगार रस की प्रधानता है। प्रथम सात विलासों में श्रृंगार रस तथा उसके अंगोपांगों का विस्तार है। आठवें विलास में शेष आठों रस भेद-प्रभेद के साथ वर्णित हुए हैं। श्रृंगार का रस-राजत्व पूर्णतया प्रतिष्ठित किया गया है-
"भूलि कहत नवरस सुकवि सकल मूल सिंगार। तेहि उछाह निर्वेद ले वीर सांत संचार।। 10 ।।"
"भाव सहित सिंगार में नवरस झलक अजत्न। ज्यों कंकन मनि कनक को ताही में नवरत्न।। 12।।"
देव ने श्रृंगार रस को आकाश की तरह अंतहीन बताया है, जिसमें अन्य रस पक्षी की तरह उड़ते-फिरते हैं। उसमें आयु, वंश, अनुराग की अवस्था तथा सत्त्व आदि अनेक आधार लेकर नायिका भेद का वर्णन किया गया है। अंतिम विलास में किये गये रस-भेद उल्लेखनीय हैं। वीर रस के प्रसिद्ध चार भेदों में धर्मवीर को न मानकर केवल तीन ही भेद किये गये हैं। शांत रस के शरण्य और शुद्ध नाम से पहले दो भेद किये गये हैं, फिर शरण्य के 'प्रेम-भक्ति', 'शुद्ध-भक्ति' और 'शुद्ध-प्रेम' ये तीन प्रभेद बताये गये हैं। हास्य के उत्तम, मध्यम, अधर तथा करुण के अति, महा, लद्यु और सुख को मिलाकर पाँच भेद किये गये हैं। इसमें लक्षण दोहे में और उदाहरण कवित्त-सवैयों में मिलते हैं, जैसा रीति काल में प्रचलित था। [2]
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