तानसेन समारोह

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तानसेन समारोह (अंग्रेज़ी: Tansen Samaroh) हर साल दिसंबर के महीने में मध्य प्रदेश के ग्वालियर के बेहत गांव में मनाया जाता है। यह एक चार दिन का संगीतमय कल्पात्मक नाटक है। दुनिया भर से कलाकार और संगीत प्रेमी यहाँ महान भारतीय संगीत उस्ताद तानसेन को श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा होते हैं। यह समारोह मध्य प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा तानसेन के मक़बरे के पास आयोजित किया जाता है। इस समारोह में पूरे भारत से कलाकारों को गायन एवं वाद्य प्रस्तुति देने के लिए आमंत्रित किया जाता है।

समारोह का प्रारंभ

भारतीय संस्कृति में रची-बसी गंगा-जमुनी तहजीब के सजीव दर्शन तानसेन समारोह में होते हैं। मुस्लिम समुदाय से बावस्ता देश के ख्यातिनाम संगीत साधक जब इस समारोह में भगवान कृष्ण, राम तथा नृत्य के देवता भगवान शिव की वंदना राग-रागनियों में सजाकर प्रस्तुत करते हैं, तो साम्प्रदायिक सदभाव की सरिता बह उठती है।[1]

तानसेन समारोह का प्रारंभ शहनाई वादन से होता है। इसके बाद ढ़ोली बुआ महाराज की हरिकथा और फिर मीलाद शरीफ का गायन। सुर सम्राट तानसेन और प्रसिद्ध सूफी संत मोहम्मद गौस की मजार पर चादर पोशी भी होती है। ढ़ोली बुआ महाराज अपनी संगीतमयी हरिकथा के माध्यम से कहते हैं कि- धर्म का मार्ग कोई भी हो, सभी ईश्वर तक ही पहुँचते हैं। उपनिषद का भी मंत्र है- 'एकं सद् विप्र: बहुधा वदन्ति'।

इतिहास एवं पृष्ठभूमि

रियासत काल में फरवरी 1924में ग्वालियर में उर्स तानसेन के रूप में शुरू हुए इस समारोह का आगाज हरिकथा व मौलूद (मीलाद शरीफ) के साथ ही हुआ था। तब से अब तक उसी परंपरा के साथ तानसेन समारोह का आगाज होता आया है। इतनी सुदीर्घ परंपरा के उदाहरण बिरले ही हैं। समारोह में नए आयाम तो जुड़े पर पुरानी परंपराएँ अक्षुण्ण रही हैं। अब यह समारोह 'विश्व संगीत समागम' का रूप ले चुका है। समारोह की पूर्व संध्या पर उप शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम 'गमक' का आयोजन भी होता है। साल 2021 में भी 96 साल से चली आ रही परंपराओं का निर्वहन करते हुए 97वें तानसेन समारोह का आयोजन 25 दिसम्बर से 30 दिसम्बर, 2021 तक हुआ।

ग्वालियर की सांगीतिक विरासत

  • भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में ग्वालियर की सांगीतिक विरासत सदियों पुरानी हैं। कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर के शासनकाल या संभवत: उससे पहले ही आरंभ हुए ग्वालियर घराने ने देश को ब्र्ह्मनाद के एक से एक बड़े साधक दिए हैं।
  • संगीत मनीषी बैजू बावरा, कर्ण और महमूद जैसे ग्वालियर के महान संगीताचार्यों से राजा मानसिंह की राजसभा सुशोभित रहती थी।
  • मुग़ल बादशाह अकबर के दरबार में भी राजा मानसिंह की संगीत टकसाल से निकले संगीत शिरोमणि तानसेन सहित अन्य मूर्धन्य गान मनीषियों के संगीत का जादू छाया रहता था।
  • आइना-ए-अकबरी में अबुल फ़ज़ल ने लिखा है कि- "मुग़ल बादशाह अकबर की छत्तीसी में जो 36 महान संगीतकार शामिल थे, उनमें तानसेन सहित 16 संगीतकार ग्वालियर के थे।
  • अकबर की छत्तीसी में तानसेन के अलावा ग्वालियर के जो संगीतकार सुशोभित थे, उनमें बाबा रामदास, सुभान खाँ, मियाँ चाँद (तानसेन का शिष्य), विचित्र खाँ, वीर मण्डल खाँ, शिहाब खाँ, सरोद खाँ, मियाँ लाल, तानतरंग (तानसेन का पुत्र), नायब चर्चू, प्रवीण खाँ, सूरदास, चाँद खाँ एवं रंग सेन शामिल हैं।
  • ग्वालियर के सांगीतिक वैभव के बारे में तमाम इतिहासकारों ने शिद्दत के साथ लिखा है। उर्दू इतिहासकार फ़रिश्ता ने ग्रंथ 'तारीख़-ए-फ़रिस्ता' में लिखा है कि 'ग्वालियर में संगीत का प्रादुर्भाव मालचंद द्वारा भी किया गया'।[1]

ग्वालियर में संगीत का प्रादुर्भाव

मालचंद

मालचंद के बारे में किवदन्तियाँ प्रचलित हैं कि वह दक्षिण भारत के शास्त्रीय संगीत को ग्वालियर लाया। मालचंद ने लंबे समय तक ग्वालियर में साधना की। उसके साथ ग्वालियर आए तलिंगी संगीतकारों के वंशज पूरे उत्तर भारत में फैल गए। राजा मानसिंह तोमर के राज्यकाल में ग्वालियर का सांगीतिक वैभव अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया।

तोमर राजवंश का योगदान

तोमर राजवंश द्वारा संगीत की विकास यात्रा में दिए गए योगदान के ऐतिहासिक प्रमाण ख्वाजा नजीमुद्दीन अहमद द्वारा लिखित 'तबाकात-ए-अकबरी' में भी मिलते हैं। इस किताब में उल्लेख है कि तोमर वंशी राजा डूंगर सिंह और कश्मीर के शासक जैन-उल-आबेदीन के बीच संगीत संबंधी ग्रंथों का आदान-प्रदान हुआ था।

राजा मानसिंह का योगदान

पन्द्रहवीं शताब्दी में राजा मानसिंह के प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र बना। राजा मानसिंह स्वयं भी संगीत के महान पारखी थे। उन्हें संगीत साधना में अपनी प्रेयसी रानी मृगनयनी से भी बहुत सहायता मिलती थी। मृगनयनी की यादगार के रूप में चार रागों का सृजन भी हुआ। इन रागों को मृगनयनी के नाम के आधार पर 'गूजरी', 'बहुल गूजरी', 'माल गूजरी' और 'मंगल गूजरी' कहा गया। राजा मानसिंह ने 'मानकुतूहल' नामक एक संगीत ग्रंथ की रचना भी की। इस ग्रंथ में राजा मानसिंह द्वारा एक विशाल संगीत सम्मेलन कराए जाने का उल्लेख भी मिलता है।

अबुल फ़ज़ल द्वारा लिखी गई प्रसिद्ध पुस्तक 'आइना-ए-अकबरी' में जिक्र है कि राजा मानसिंह द्वारा आयोजित सम्मेलन में राजदरबार के कलाकारों अर्थात नायक, बख्शू, मच्चू और भानु ने ऐसे गीतों का संकलन किया जो भारतीय संस्कृति की गंगा-जमुनी तहजीब के परिचायक थे। राजा मानसिंह तोमर ने अपने राजदरबार के महान संगीताचार्यों बैजू बावरा, कर्ण और महमूद आदि के सहयोग से संगीत की ध्रुपद गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था। राजदरबार में बख्शु, घोन्डी और चरजू के नामों का भी उल्लेख मिलता है। एम. सी. गांगुली द्वारा रचित 'रागज एण्ड रागनीज' पुस्तक में उल्लेख है कि इन्हीं तीनों कलाकारों द्वारा रागों के भण्डार में एक नए प्रकार के मल्हार का प्रणयन किया, जो 'बख्शु की मल्हार', 'धोन्डिया की मल्हार' और 'चाजू की मल्हार' के नाम से मशहूर हुई।[1]

ग्वालियर घराने की विशेषताएँ

  • ध्रुपद, धमार, ख्याल, टप्पा, ठुमरी, दादरा, लेदा, गजल, तराना, त्रिपट और चतुरंग आदि संगीत शैलियाँ ग्वालियर घराने की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
  • राजा मानसिंह द्वारा पोषित संगीत घराने की विशेषता यह थी कि उसने उत्तर भारत के लोकप्रिय लोक संगीत को अंगीकार किया और उसे उच्च कोटि के वैविध्यपूर्ण संगीत के रूप में सजाया।
  • इससे लोक रागों, शास्त्रीय रागों और संगीत की पारंपरिक विविधता को एक नई और ओजस्वी अभिव्यक्ति मिली।
  • इस घराने ने संगीत की ध्रुपद नामक एक नई शैली की आधारशिला रखी, जो तानसेन का जादू भरा स्पर्श पाकर लोकप्रियता के उच्च शिखर तक पहुँची।
  • संगीत सम्राट तानसेन ने जहाँ 'मियाँ की तोड़ी' जैसे राग का आविष्कार किया, वहीं पुराने रागों में परिवर्तन कर कई नई-नई सुमधुर रागनियों को जन्म दिया।
  • तानसेन द्वारा रचे हुए 'संगीत सार' और 'राग माला' ग्रंथ भी उनके संगीत सिद्धांत विषयक ज्ञान के परिचायक हैं।

सिंधिया शासकों के समय ग्वालियर में संगीत

सिंधिया शासकों के समय भी ग्वालियर में संगीत कला खूब फली-फूली। उनके आश्रय में ख्याल शैली के प्रथम शास्त्रीय घराने का भी जन्म हुआ। ग्वालियर शैली जिसे 'लश्करी गायकी' के नाम से भी जाना जाता है। इसकी स्थापना का श्रेय हद्दू खाँ, हस्सू खाँ और नत्थू खाँ को जाता है। इन्हीं तीनों भाइयों को द्रुत गति वाली ख्याल गायकी की शैली के आविष्कार का श्रेय है। ग्वालियर शैली में कलावंत और कब्बाली का मिश्रण देखने को मिलता है। हद्दू खाँ और हस्सू खाँ के वंशजों और शिष्यों में रहमत खाँ और हुसैन खाँ ने भी संगीत के क्षेत्र में काफी ख्याति प्राप्त की।

संगीत परंपरा की इसी कडी में शंकर पंडित जी ने आधुनिक काल में लोकप्रियता का परचम लहराया। उनके सुपुत्र कृष्णराव पंडित भी उच्च कोटि के संगीत कलाकार थे। इसी कड़ी में पं. लक्ष्मण कृष्णराव पण्डित ने ग्वालियर घराने की परंपरा को आगे बढ़ाया। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सरोद वादक अमजद अली खाँ साहब एवं अन्य युवा संगीत कलाकार ग्वालियर के संगीत का परचम दुनियाभर में लहरा रहे हैं।

शिरकत करने वाले कलाकार

  • शास्त्रीय गायक असगरी बेगम, पं. भीमसेन जोशी व डागर बंधुओं से लेकर मशहूर शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ, सरोद वादक अमजद अली खाँ, संतूर वादक पं. शिवकुमार शर्मा, मोहनवीणा वादक पं. विश्वमोहन भट्ट जैसे मूर्धन्य संगीत कलाकार इस समारोह में गान महर्षि तानसेन को स्वरांजलि देने आ चुके हैं।
  • वर्ष 1989 में तानसेन समारोह में शिरकत करने आये भारत रत्न पंडित रविशंकर ने कहा था- "यहाँ एक जादू सा होता है, जिसमें प्रस्तुति देते समय एक सुखद रोमांच की अनुभूति होती है"।

समारोह की विशेषता

राष्ट्रीय तानसेन समारोह की यह भी खूबी रही है कि पहले राज्याश्रय एवं स्वाधीनता के बाद लोकतांत्रिक सरकार के प्रश्रय में आयोजित होने के बावजूद इस समारोह में सियासत के रंग कभी दिखाई नहीं दिये। यह समारोह तो सदैव भारतीय संगीत के विविध रंगों का साक्ष्य बना है। आधुनिक युग में शैक्षिक परिदृश्य से जहाँ गुरु-शिष्य परंपरा लगभग ओझल हो गई है परन्तु भारतीय लोकाचार में समाहित इस महान परंपरा को संगीत कला के क्षेत्र में आज भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। तानसेन समारोह में भी भारत की इस विशिष्ट परंपरा के सजीव दर्शन होते हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 तानसेन समारोह का इतिहास एवं पृष्ठभूमि (हिंदी) mpgkpdf.com। अभिगमन तिथि: 24 सितंबर, 2021।

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