गृहपति

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गृहपति पाणिनिकालीन भारतवर्ष में विवाह करके गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होने वाले व्यक्ति के लिये प्रयोग की जाने वाली प्राचीन संज्ञा थी।

  • विवाह के समय प्रज्ज्वलित हुई अग्नि 'गार्हपत्य' कहलाती थी, क्योंकि गृहपति उससे संयुक्त रहता था।[1] अग्नि साक्षिक विवाह से आरम्भ होने वाले गृहस्थ जीवन में गृहपति लोग जिस अग्नि को गृहयज्ञों के द्वारा निरंतर प्रज्वलित रखते थे, उस अग्नि के लिये ही 'गृहपतिना संयुक्त:' यह विशेषण चरितार्थ होता है।
  • विवाह के समय का अग्निहोम एक यज्ञ था। उस यज्ञ में पति के साथ विधिपूर्वक संयुक्त होने के कारण विवाहिता स्त्री की संज्ञा 'पत्नी' होती थी।[2] पति-पत्नि दोनों मिलकर वैवाहिक अग्नि की परिचर्या करते थे।[3] गृह्म अग्नि में आहुत होने वाले अनेक स्थालीपाक उस समय किये जाते थे।
  • पाणिनि ने वास्तोष्पति के अतिरिक्त 'गृहमेध' देवता का भी उल्लेख किया है।[4] पुत्र-पौत्रों से सुखी सम्पन्न पति-पत्नी सुप्रज[5] और पुत्रपौत्रीण[6] कहलाते थे।[7]
  • समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई गृह थी। गृह का स्वामी गृहपति उस गृह की अपेक्षा से सर्वाधिकार संपन्न माना जाता था। सामान्यतः गृहपति का स्थान पिता का था। उसके बाद उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र गृहपति की पदवी धारण करता था। प्रत्येक जनपद में फैले हुए कुल के इस ताने-बाने को ‘गार्हपत संस्था’ कहते थे। पाणिनि ने कुरु जनपद के गृहपतियों की संस्था को ‘कुरु गार्हपत’ कहा है।( 6/2 /42)। कात्यायन ने वृज्जि जनपद अर्थात उत्तरी बिहार के कुलों के लिए ‘वृजि गार्हपत’ शब्द का प्रयोग किया है।[8]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गृहपतिना संयुक्ते त्र्य:, 4।4।90
  2. पत्युर्नो यज्ञसंयोगे, 4।1।33
  3. मनु 3।67
  4. 4।2।32
  5. 5।4।123
  6. पुत्र पौत्र मनुभवति, 5।2।10
  7. पाणिनीकालीन भारत |लेखक: वासुदेवशरण अग्रवाल |प्रकाशक: चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1 |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 96-97 |
  8. पाणिनीकालीन भारत |लेखक: वासुदेवशरण अग्रवाल |प्रकाशक: चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1 |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 111 |

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