गार्हपत संस्था
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गार्हपत संस्था पाणिनिकालीन भारतवर्ष में किसी कुल के सदस्यों के प्रत्येक जनपद में फैले हुए ताने-बाने को कहा जाता था।[1]
- पाणिनिकालीन समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई गृह थी। गृह का स्वामी गृहपति उस गृह की अपेक्षा से सर्वाधिकार संपन्न माना जाता था।
- सामान्यतः गृहपति का स्थान पिता का था। उसके बाद उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र गृहपति की पदवी धारण करता था।
- प्रत्येक जनपद में फैले हुए कुल के इस ताने-बाने को ‘गार्हपत संस्था’ कहते थे।
- पाणिनि ने कुरु जनपद के गृहपतियों की संस्था को ‘कुरुगार्हपत’ कहा है।[2]
- कात्यायन ने वृज्जि जनपद अर्थात उत्तरी बिहार के कुलों के लिए ‘वृजि गार्हपत’ शब्द का प्रयोग किया है।
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