कालिदास के काव्य में प्रकृति चित्रण

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कालिदास के काव्य में प्रकृति चित्रण
पूरा नाम महाकवि कालिदास
जन्म 150 वर्ष ईसा पूर्व से 450 ईसवी के मध्य
जन्म भूमि उत्तर प्रदेश
पति/पत्नी विद्योत्तमा
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र संस्कृत कवि
मुख्य रचनाएँ नाटक- अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्; महाकाव्य- रघुवंशम् और कुमारसंभवम्, खण्डकाव्य- मेघदूतम् और ऋतुसंहार
भाषा संस्कृत
पुरस्कार-उपाधि महाकवि
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अन्य जानकारी कालिदास शक्लो-सूरत से सुंदर थे और विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में एक थे। लेकिन कहा जाता है कि प्रारंभिक जीवन में कालिदास अनपढ़ और मूर्ख थे।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

महाकवि कालिदास प्रकृति के उपासक हैं। वे प्रकृति के अन्नय प्रेमी हैं, उन्होंने अंत: प्रकृति एवं बाह्य प्रकृति दोनों का चित्रण किया है। उनका यह चित्रण आत्मानुभूति एवं सूक्ष्म निरीक्षण पर आधारित है। यद्यपि महाकवि ने कहीं-कहीं प्रकृति का भयावह रूप भी चित्रित किया, किंतु प्रकृति का सुकुमार रूप उन्हें अधिक प्रिय है।

प्रकृति का चित्रण

कालिदास ने अपने समस्त काव्यों एवं नाटकों में प्रकृति का निरूपण तो किया ही है, किंतु स्वतंत्र रूप से प्रकृति के चित्रण के लिए ऋतुसंहार की रचना की। ऋतुसंहार में कवि ने बाह्य प्राकृतिक सौन्दर्य के निरूपण की अपेक्षा मानव-मन पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन अधिक किया है, फिर भी ऋतुओं का स्वतंत्र चित्रण उनके प्रकृति-प्रेम का द्योतक है। ऋतुसंहार के प्रथम पद्य में ग्रीष्म ऋतु का बड़ा ही सजीव चित्रण है-

प्रचण्डसूर्य: स्पृहणीयचन्द्रमा: सदावगाहक्षतवारिसञ्चय:।
दिनांतरम्योस्भ्युपशांतमन्मथों निदाद्यकालोस्यमुपागत: प्रिये॥[1]

  • प्रिये! ग्रीष्म ऋतु आ गयी है। सूर्य की किरणें प्रचण्ड हो गयी हैं। चन्द्रमा सुहावना लगने लगा है। निरंतर स्नान के कारण कुँओं-तालाबों का जल प्राय: समाप्त हो चला है। सायंकाल मनोरम लगने लगा है तथा काम का वेग स्वयं शांत हो गया है। इसी प्रकार कवि का वर्षा तथा अन्य ऋतुओं का वर्णन भी सजीवता एवं कमनीयता से परिपूर्ण है। मेघदूत में तो कवि ने प्रकृति एवं मानव में तादात्म्य स्थापित कर दिया है। पूर्वमेघ में प्रधानतया प्रकृति के बाह्य रूप का चित्रण है, किंतु उसमें मानवीय भावनाओं का संस्पर्श है, मेघदूत तो वर्षा ऋतु की ही उपज है। वहाँ वर्षा से प्रभावित होने वाले समस्त जड़-चेतन पदार्थों का निरूपण है। मेघ जिस-जिस मार्ग से होकर आगे निकल जाता है उस-उस मार्ग में अपनी छाप छोड़ जाता है-

नीपं दृष्ट्वा हरितकपिशं केसरैरर्द्धरूढै-
राविर्भूतप्रथममुकुला: कन्दलीश्चानकच्छम्।
जग्ध्वारण्येष्वधिकसुरभिं गन्धमाध्राय चोर्व्या:।

सारङ्गास्ते जललवमुच: सूचयिष्यंति मार्गम्॥[2]

  • जल बरसने के कारण पुष्पित कदम्ब को भ्रमर मस्त होकर देख रहे होंगे, प्रथम जल पाकर मुकुलित कन्दली को हरिण खा रहे होंगे और गज प्रथम वर्षाजल के कारण पृथिवी से निकलने वाली गन्ध सूँघ रहे होंगे-इस प्रकार भिन्न-भिन्न क्रियाओं को देखकर मेघ के गमन मार्ग का स्वत: अनुमान हो जाता है। प्रकृति से मनुष्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। यही कारण है कि वह मनुष्य के अंत:करण को प्रभावित करती है। मेघदूत में कवि ने इसी तथ्य को उजागर किया-

मेघालोके भवति सुखिनोस्प्पन्यथावृत्ति चेत:।
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे॥[3]

  • मेघ को देख लेने पर तो सुखी अर्थात् संयोगी जनों का चित्त कुछ का कुछ हो जाता है फिर वियोगी लोगों का क्या कहना। कालिदास ने प्रकृति को मनुष्य के सुख-दु:ख में सहभागिनी निरूपति किया है। विरही राम को लताएँ अपने पत्ते झुका-झुका कर सीता के अपहरण का मार्ग बताती हैं, मृगियाँ दर्भाकुर चरना छोड़कर बड़ी-बड़ी आँखें दक्षिण दिशा की ओर लगाये टुकुर-टुकुर ताकती रह जाती हैं।[4]
प्रकृति चेतन एवं भावनायुक्त
  • कालिदास प्रकृति को चेतन एवं भावनायुक्त पाते हैं। पशु-पक्षी आदि तो चेतनवत व्यवहार करते ही है, सम्पूर्ण चराचर प्रकृति भी मानव की भाँति व्यवहार करती दिखायी देती हैं। महाकवि ने मेघ को दूत बनाकर धूम, अग्नि, जल, पवन के सम्मिश्रण रूप जड़ पदार्थ को मानव बना दिया है। वे प्रकृति में न केवल मानव की बाह्या आकृति का आरोप करते हैं अपितु उसमें सुख:दु:खादि भावों की भी सम्भावना करते हैं। वे प्रकृति को प्राय: प्रेमी अथवा प्रेमिका के रूप में देखते हैं। मेघदूत में उज्जयिनी की ओर जाते हुए मेघ को मार्ग में पड़ने वाली निर्विन्ध्या नदी विभिन्न हाव-भाव से आकृष्ट करेगी-

वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणि काञ्चीगुणाया:
संसर्पंत्या: स्खलितसुभगं दर्शितावर्तनाभे:।
निर्विन्ध्याया:पथि भव रसाभ्यंतर: संनिपत्य
स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु॥[5]

  • हे मेघ! तरंगों के हलचल के कारण शब्दायमान पक्षियों की पंक्ति रूपी करधनी को धारण करने वाली, स्खलित प्रवाह के कारण सुन्दरतापूर्वक बहने वाली अर्थात् मस्त होकर चलने वाली और भँवर रूप नाभि को दिखाने वाली निर्विन्ध्या नदी रूपी नायिका से मिलकर तुम रस अवश्य प्राप्त करना, क्योंकि कामिनियों का हाव-भाव प्रदर्शन ही रतिप्रार्थना वचन होता है।
  • महाकवि कालिदास ने प्रकृति के श्रेष्ठ तत्त्वों को ग्रहण कर उनकी अप्रस्तुत रूप में योजना की है। वे पात्रों को उपस्थित करने के लिए प्रकृति के सुन्दर तत्त्वों से सादृश्य स्थापित करते हैं। रघुवंश में राजा रघु के मुख-सौन्दर्य के वर्णन के लिए वे प्रकृति के सुन्दरतम एवं प्रसिद्ध उपमान चन्द्र का आश्रय लेते हैं।

प्रसादसुमुखे तस्मिंश्चन्द्रे च विशदप्रभे। तदा चक्षुष्मतां प्रीतिरासीत्समरसा द्वयो:॥[6]

  • शरद ऋतु में रघु के खिले हुए मुख और उज्ज्वल चन्द्रमा को देखकर दर्शकों को एक-सा आनन्द मिलता था। कवियों ने नारी के शरीर की तुलना प्राय: लता से की है, किंतु कुमारसम्भव में कालिदास पार्वती को चलती-फिरती एवं फूलों से लदी लता के रूप में देखते हैं-

आवर्जिता किञ्चिदिव स्तनाभ्यां वासो वसाना तरुणार्करागम्।
पर्याप्तपुष्पस्तबकावनम्रा सञ्चारिणी पल्लविनी लतेव॥[7]

प्रकृति का उपदेशिका रूप

महाकवि कालिदास प्रकृति को उपदेशिका रूप में भी पाते हैं। वे प्रकृति से प्राप्त होने वाले सत्य का स्थान-स्थान पर उल्लेख करते हैं जो मानव जीवन का मार्ग-निर्देश करती है एवं आदर्श उपस्थापित करती है। मेघ बिना कुछ कहे चातकों को वर्षा जल प्रदान कर उनका उपकार करता है-

नि:शब्दोस्पि प्रदिशसि जलं याचितश्चातकेभ्य:।
प्रत्युक्त हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव॥[8]

  • पपीहे के जल माँगने पर मेघ बिना उत्तर दिये उन्हें सीधे जल दे देता है। सज्जनों का यह स्वभाव होता है कि जब उनसे कुछ माँगा जाय तो वे मुँह से कुछ कहे बिना, काम पूरा करके ही उत्तर दे देते हैं।
  • रघुवंश में कालिदास को जल के स्वभाव से शिक्षा मिलती है। जल तो प्रकृत्या शीतल है, उष्ण वस्तु के सम्पर्क से भले ही कुछ क्षण के लिए जल में उष्णता उत्पन्न हो जाए। इसी प्रकार महात्मा भी प्रकृति से क्षमाशील होते हैं, अपराध करने पर वे कुछ क्षण के लिए ही उद्विग्न होते हैं-

स चानुनीत: प्रणतेन पश्चान्मया महर्षिर्मुदतामगच्छत्।
उष्णत्वमग्न्यातपसम्प्रयोगाच्छैत्यं हि यत् सा प्रकृतिर्जलस्य॥[9]

प्रकृति के सहज सौन्दर्य, मानवीय राग, कोमल भावनाओं तथा कल्पना के नवनवोन्मेष का जो रूप कुमारसम्भव के अष्टम सर्ग में मिलता है, वह भारतीय साहित्य का शिखर कहा जा सकता है। कवि ने सन्ध्या और रात्रि का वर्णन हिमालय के पावन प्रदेश में शिख के गरिमामय वचनों के द्वारा पार्वती को सम्बोधित करते हुए कराया है, और प्रसंग, पात्र, देशकाल के अनुरूप प्रकृति का इतना उदात्त और कमनीय वर्णन विश्व साहित्य में दुर्लभ कहा जा सकता है। पश्चिम में डूबते सूर्य की रश्मियां सरोवर के जल में लम्बी-लम्बी होकर प्रतिबिम्बित हो रही है, तो लगता है कि अपनी सुदीर्घ परछाइयों के द्वारा विवस्वान भगवान ने जल में सोने के सेतुबन्ध रच डाले हो।[10]

  • वृक्ष के शिखर पर बैठा मयूर ढलते सूर्य के घटते चले जाते सोने के जैसे गौरमण्डलयुक्त आतप को बैठा पी रहा है।[11]
  • पूर्व में अंधेरा बढ़ रहा है, आकाश के सरोवर से सूर्य ने जैसे आतपरूपी जल को सोख लिया, तो इस सरोवर के एक कोने में जैसे कीचड़ ऊपर आ गया हो।[12]
  • सूर्य के किरणों का जाल समेट लिया है, तो हिमालय के निर्झरो पर अंकित इन्द्रधनुष धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं।[13]

कमल का कोश बन्द हो रहा है, पर भीतर प्रवेश करते भ्रमर को स्थान देने के लिए कमल जैसे मुंदते-मुंदते ठहर गया है।[14]

  • अस्त होते सूर्य की किरणें बादलों पर पड़ रही हैं, उनकी नोंकें रक्त, पीत और कपिश हो गयी हैं, जैसे सन्ध्या ने पार्वती को दिखाने के लिये तूलिका उठा कर उन पर रंग-बिरंगी छवियाँ उकेर दी हों।[15]

अस्त होते सूर्य ने अपना आतप सिंहों के केसर और वृक्षों के किसलयों को जैसे बाँट दिया है।[16]

  • सूर्यास्त होने पर तमालपंक्ति सन्ध्यारूपी नदी का तट बन जाती है और धातुओं का रस उसका जलप्रवाह[17] ऊपर, नीचे,आगे, पीछे जहाँ देखो अंधेरा ही आँखों में भरता है, तिमिर के उल्ब में लिपटा संसार जैसे गर्भस्थ हो गया हो।[18]
  • कालिदास की कल्पना खेतों और खलिहानों में रमती है, प्रकृति के सहज सौन्दर्य का मानव-सौन्दर्य से और कृत्रिम साज-सज्जा से उत्कृष्ट पाती है। कुमारसम्भव में चन्द्रमा की किरणों के लिये जौ के ताजा अंकुर का उपमान देकर उन्होंने मानों स्वर्ग को धरती से मिला दिया है-

शक्यमोषधिपतेर्नवोदया: कर्णपूरचनाकृते तव।
अप्रगल्भयवसूचिकोमलाश्छेत्तुमग्रनखसम्पुटै: करा॥[19]

  • कहीं पर शिव को वृक्षों की टहनियों से बिछल (फिसल) कर छ्न-छन कर धरती पर गिरती चाँदनी के थक्के वृक्षों से टपक पड़े फूलों से लगते हैं, जिन्हें उठा-उठा कर पार्वती के केशों में सजाने का उनका मन होने लगता है-

शक्यमङ्गुलिभिरुत्थितैरध: शाखिना पतितपुष्पपेशलै:।
पत्रजर्जरशशिप्रभालवैरेभिरुत्कचयितुं तवालकान्॥[20]

  • प्रकृति में मानवीय राग, करुणा और हृदय की कोमलता के दर्शन कालिदास अपनी विश्वदृष्टि के द्वारा ही कर सके हैं। अंधेरा रात्रि रमणी का जुड़ा है, जिसे चन्द्रमा अपने करों से बिखेर देता है, और फिर उस रमणी के सरोज लोचन वाले मुख को उठा कर वह चूम लेता है-

अङ्गुलीभिरिव केशसञ्चयं सन्निगृह्य तिमिरं मरीचिभि:।
कुडमलीकृतसरोजलोचन चुम्बतीव रजनीमुखं शशी॥[21]

  • उत्प्रेक्षा और स्वभावोक्ति उत्कृष्ट संसृष्टि कवि ने इस प्रकार के प्रकृति-चित्रणों में की है। उक्त पद्य में 'कुडमलीकृतसरोजलोचनं' कामिनी का लज्जा से नेत्र मूंदने का चित्र होने से वल्लभदेव के अनुसार स्वभावोक्ति है, जबकि 'चुम्बतीव' में समासोक्ति तथा उत्प्रेक्षा दोनों अलंकार आ गये हैं।
  • महाकवि कालिदास ने यद्यपि प्राय: प्रकृति के कोमल रूप का चित्रण किया है, किंतु कुमारसम्भव के वर्षा चित्रण में भयावहता दर्शनीय है-

घोरान्धकारनिकरप्रतिमो युगांत-
कालानलप्रबलधूमनिभो नभोसन्ते।
गर्जारवैर्विघटयन्नवनीधराणां
शृङ्गाणि मेघनिवहो घनमुज्जगाम॥[22]

  • कार्तिकेय के वारुणास्त्र चलाते ही भयंकर अंधेरा करती हुई प्रलय की आग से उठे हुए धुँए के समान ऐसी काली-काली घटायें आकाश में छा गयीं जिनके गर्जन से पहाड़ की चोटियों तक दरारें पड़ गयीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.1 ऋतुसंहार
  2. 1,22, मेघदूत
  3. 1.3, मेघदूत
  4. रघुवंश महाकाव्य 13।24, 25
  5. 1.29, मेघदूत
  6. 4.18 रघुवंश
  7. 3.54 कुमारसम्भव
  8. 2.57
  9. 5.54 रघुवंश
  10. पश्य पश्चिमदिगंतलम्बिना निर्मित मितकथे विवस्वता।
    दीर्घया प्रतिमया सरोम्भयां तापनीयमिव सेतुबन्धनम्॥ कुमारसम्भव 8।34
  11. एष वृक्षशिखरे कृतास्पदो जातरूपरसगौरमण्डलम्।
    हीयमानमहरत्ययातपं पीवरोरु पिबतीव बर्हिण:॥ कुमारसम्भव, 8।36
  12. पूर्वभागतिमिरप्रवृत्तिभिर्व्यक्तपङ्कमिव जातमेकत:।
    खं हृतातपजलं विवस्वता भाति किञ्चिदिव शेषवत्सर:॥कुमारसम्भव - 8।37
  13. शीकरव्यतिकरं मरीचिभिर्दूरयत्यवनते विवस्वति।
    इन्द्रचापरिवेषशून्यतां निर्झरास्तव पितुर्व्रजंत्यमी॥कुमारसम्भव -8।31
  14. शीकरव्यतिकरं मरीचिभिर्दूरयत्यवनते विवस्वति।
    इन्द्रचापरिवेषशून्यतां निर्झरास्तव पितुर्व्रजंत्यमी॥कुमारसम्भव -8।39
  15. शीकरव्यतिकरं मरीचिभिर्दूरयत्यवनते विवस्वति।
    इन्द्रचापरिवेषशून्यतां निर्झरास्तव पितुर्व्रजंत्यमी॥कुमारसम्भव -8।45
  16. शीकरव्यतिकरं मरीचिभिर्दूरयत्यवनते विवस्वति।
    इन्द्रचापरिवेषशून्यतां निर्झरास्तव पितुर्व्रजंत्यमी॥-8।46
  17. कुमारसम्भव 8।53
  18. कुमारसम्भव8।54
  19. -8.62,कुमारसम्भव
  20. -8।72 कुमारसम्भव
  21. -8.63, कुमारसम्भव
  22. 17.41, कुमारसम्भव

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