कालिदास का सौन्दर्य और प्रेम

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कालिदास का सौन्दर्य और प्रेम
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पूरा नाम महाकवि कालिदास
जन्म 150 वर्ष ईसा पूर्व से 450 ईसवी के मध्य
जन्म भूमि उत्तर प्रदेश
पति/पत्नी विद्योत्तमा
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र संस्कृत कवि
मुख्य रचनाएँ नाटक- अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्; महाकाव्य- रघुवंशम् और कुमारसंभवम्, खण्डकाव्य- मेघदूतम् और ऋतुसंहार
भाषा संस्कृत
पुरस्कार-उपाधि महाकवि
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अन्य जानकारी कालिदास शक्लो-सूरत से सुंदर थे और विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में एक थे। लेकिन कहा जाता है कि प्रारंभिक जीवन में कालिदास अनपढ़ और मूर्ख थे।
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कालिदास का सौन्दर्य-चित्रण अभीष्ट होता है। प्रकृति-सौन्दर्य एवं मानवीय सौन्दर्य का वर्णन काव्य का अभिन्न अंग है। महाकवि कालिदास सौन्दर्य के उपासक हैं। कालिदास नैसर्गिक सौन्दर्य के प्रेमी हैं। कृत्रिम और दिखावटी श्रृंगार उन्हें नहीं रुचता। वे प्रकृति के द्वारा दिये गये सहज उपादानों से अपनी परिकल्पना की नायिकाओं में अनिन्द्य सौंदर्य का आविष्कार करते हैं। कुमारसम्भव में पार्वती ने वसंत के फूलों से अपने आप को अलंकृत किया है। उसके अशोक ने पद्मराग मणि को धता बता दी है, कर्णिकार ने स्वर्ण की द्युति को खींच लिया है तथा सिंधुवार के पुष्प ही मुक्तामाला बन गये हैं- अशोकनिर्भर्त्सितपद्मरागमाकृष्टहेमद्युतिकर्णिकारम्। मुक्ताकलापीकृतसिन्दुवारं वसंतपुष्पाभरणं वहंती॥[1]

  • मेघदूत में अलका नगरी में मणि-माणिक्य, सोने-चांदी और धन-समृद्धि की कोई कमी नहीं। फिर भी वहाँ की सुन्दरियाँ फूलों से ही अपना अंग-प्रत्यंग सजाती हैं। हाथ में लीलाकमल, केश में बालकुन्द का अनुवेघ, तो कपोलों पर लोघ्र के पराग से शुभ्र वर्ण का आधान, जूड़े में नये कुरवक के पुष्प, कानों में सुन्दर शिरीष और सीमंत[2] में कदम्ब - इस तरह सारे देह में फूल सज उठते हैं-

हस्ते लीलाकमलके बालकुन्दानुविद्धं
नीता लोघ्रप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्री:।
चूडापाशे नवकुरवकं चारु कर्णे शिरीषं
सीमंते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम्॥[3]

  • वस्तुत: कवि ने अपने सौन्दर्यबोध के द्वारा मनुष्य को प्रकृति के निकट आने तथा सहज जीवन अपनाने का संदेश दिया है। इस सौन्दर्य की सर्वोच्च प्रतिमूर्ति तो स्वयं शिव ही हैं, जहाँ शिव हैं, वहीं सौन्दर्य है। यदि शिव हैं तो संसार की सारी वीभत्सता भी अलौकिक रम्यता में परिणित हो जाती है। विवाह के समय शिव के श्रृंगार का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं-

स एव वेष: परिणेतुरिष्टं भावांतर तस्य विभो: प्रपेदे।
बभूव भस्मैव सिताङ्गराग: कपालमेवामलशेखरश्री:।
उपांतभागेषु च रोचनाङ्को गजजिनस्यैव दुकूलभाव:।।
शङ्खांतरद्योतिविलोचनं यदंतर्निविष्टामलपिङ्गतारम्।
सान्निध्यपक्षे हरितालमय्यास्तदेव जातं तिलकक्रियाया:॥
यथाप्रदेश भुजगेश्वराणां करिष्यतामाभरणांतरत्वम्।
शरीरमात्रं विकृतिं प्रपेदे तथैव तस्थु: फणिरत्नशोभा:॥[4]
[5]

  • कुमारसम्भव में कवि पार्वती की मुस्कुराहट का वर्णन करता हुआ कहता है कि यदि लाल कोपल पर कोई उज्ज्वल फूल रखा जाय अथवा स्वच्छ मूंगे के बीच में मोती जड़ा जाय तभी ये पुष्प एवं मोती पार्वती की मुस्कुराहट की समानता कर सकते हैं-

पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यात् मुक्ताफलं वा स्फुटविद्रुमस्थम्।
ततोस्नुकुर्याद् विशदस्य तस्यास्ताम्रौष्ठपर्यस्तरुच: स्मितस्य॥[6]

  • कालिदास के सभी पात्र सौन्दर्य से युक्त हैं। पुरुष पात्रों में पुरुषोचित सौन्दर्य है तो स्त्री पात्रों में स्त्रियोचित सौन्दर्य। यहाँ तक कि उन्होंने पशु-पक्षियों के सौन्दर्य का भी विरूपण किया। उनकी दृष्टि में सौन्दर्य की सार्थकता तब है जब वह प्रिय को आकृष्ट करने और उसे जीतने में समर्थ हो। पार्वती जब अपने रूप-सौन्दर्य से महादेव को जीतने में असमर्थ हो जाती हैं और कामदेव को महादेव को क्रोधाग्नि में जलते हुए देखती हैं तो उनका सौन्दर्य-गर्व चूर हो जाता है और वे अपने रूप की निन्दा करने लगती हैं-

निनिन्द रूपं हृदयेन पार्वती प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता॥[7]

  • कालिदास की मान्यता है कि प्रेम विरह में बढ़ता है। मेघदूत में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि प्रेम वियोग में भोग के अभाव के कारण संचित रस वाला होकर बढ़ता ही है, न कम होता है और न ही नष्ट होता है-

स्नेहानाहु: किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगा-
दिष्टे वस्तुन्युपचितरसा: प्रेमराशीभवंति॥[8]

  • वस्तुत: प्रेम, वियोग में और अधिक तीव्र हो जाता है। प्रेमियों की परीक्षा वियोग में होती है। संयोगावस्था में भोग के कारण प्रेम भले ही शिथिल हो जाए, वियोग में प्रेम तपस्या का रूप धारण कर लेता है। यही कारण है कि वियोग के पश्चात् संयोग होने पर यह द्विगुणित आनन्दप्रद होता है। कालिदास के सभी पात्र वियोगावस्था के जीवन को तप त्याग, सदाचार, संयम और सामाजिक मर्यादा में बँध कर व्यतीत करते हैं।
  • कालिदास के काव्यों में ऋतुसंहार को छोड़कर सर्वत्र प्रेम का उदात्त रूप चित्रित है। ऋतुसंहार में केवल रूप सौन्दर्य का निरूपण है। मेघदूत, कुमारसम्भव एवं रघुवंश में कवि ने प्रेम के आध्यात्मिक रूप का चित्रण किया है। आध्यात्मिक प्रेम ही स्थायी होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुमारसम्भव, 3।53
  2. मांग
  3. मेघदूत, उत्तरमेघ - 2
  4. कुमारसम्भव, 7।31-34
  5. शिव का वेष वही रहा, पर उनकी विभुता से वह अन्य भाव को प्राप्त हो गया। उनके देह पर लिपटी चिताभस्म ही अंगराग हो गयी, कपाल ही शेखर बन गया, गजाजिन दुकूल और तृतीय नेत्र ही तिलक बन गया। शरीर पर लिपटे सर्पों का विनिवेश ही बदलना था कि वे आभूषण की भांति सज गये।
  6. कुमारसम्भव, 1.44
  7. कुमारसम्भव, 5.1
  8. मेघदूत, 2.52

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