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[[नंददास]] के समसामयिक कवि [[नरोत्तमदास]] (सम्वत 1602) कृत 'सुदामाचरित' इस परम्परा की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना है। यह एक संक्षिप्त [[खण्ड काव्य]] है, जो [[दोहा]], [[कवित्त]] और [[सवैया]] छन्दों में रचा गया है। कथासंगठन, नाटकीय विधान, भाव, [[भाषा]], [[छन्द]] आदि सभी दृष्टियों से नरोत्तमदास कृत 'सुदामा चरित' एक श्रेष्ठ रचना है तथा परवर्ती सुदामा चरित सम्बंधी रचनाओ को इससे प्रचुर प्रेरणा मिली।  
 
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13:10, 19 दिसम्बर 2013 के समय का अवतरण

सुदामाचरित
'सुदामाचरित' का आवरण पृष्ठ
कवि नरोत्तमदास
मूल शीर्षक 'सुदामाचरित'
कथानक सुदामा
देश भारत
भाषा ब्रजभाषा
प्रकार खण्ड काव्य
विशेष यह एक संक्षिप्त खण्ड काव्य है, जो दोहा, कवित्त और सवैया छन्दों में रचा गया है।

नंददास के समसामयिक कवि नरोत्तमदास (सम्वत 1602) कृत 'सुदामाचरित' इस परम्परा की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना है। यह एक संक्षिप्त खण्ड काव्य है, जो दोहा, कवित्त और सवैया छन्दों में रचा गया है। कथासंगठन, नाटकीय विधान, भाव, भाषा, छन्द आदि सभी दृष्टियों से नरोत्तमदास कृत 'सुदामा चरित' एक श्रेष्ठ रचना है तथा परवर्ती सुदामा चरित सम्बंधी रचनाओ को इससे प्रचुर प्रेरणा मिली।

कथानक

सुदामा दारिद्रय भंजन की कथा साम्प्रदायिक कृष्ण साहित्य में समादृत ना हो सकी। सूरदास और नंददास कृत 'सुदामा चरित' अवश्य इसके अपवाद हैं। वस्तुत: वल्लभ, निम्बार्क, चैतन्य, राधावल्लभ और हरिदासी सम्प्रदायों की उपासना पद्धति मं उत्तरोत्तर ब्रज लीलाओं और माधुर्य भाव की अभिवृद्धि के कारण द्वारिकावासी कृष्ण की ऐश्वर्यपूर्ण लीलाएँ साम्प्रदायिक साहित्य में स्वीकृत ना हो सकीं तथा लोक में सम्प्रदाय मुक्त कवियों द्वारा ही अधिक प्रचारित हुईं। सुदामाचरितों में विषयवस्तु के केवल दो प्रयोजन दृष्टिगत होते हैं। प्रथम तो सुदामा के दारिद्रय के अतिरेक का निरूपण तथा दूसरे कृष्ण की मैत्री का आदर्शीकरण। मूलत: भक्तिप्रसूत होते हुए भी रीति युग के राजकीय एश्वर्य एवं लोक के दारिद्रय युगपत अभिव्यक्ति कदाचित इस प्रसंग के द्वारा सबसे अधिक मात्रा में सम्भव थी। इसलिए उस युग में सुदामाचरितों की रचना को प्रेरणा मिली।

भाषा

सुदामाचरितों की भाषा प्राय: ब्रजभाषा ही रही, परंतु कवि गोपाल और आलम ने अपनी रचनाओं में खड़ी बोली से प्रचुर मात्रा में प्रभावित हैं। सुदामा चरितों के अंतर्गत दोहा, कवित्त और सवैया, अरिल्ल आदि छंदों का प्रयोग हुआ है। पदशैली में इस प्रसंग की उद्‌भावना का श्रेय केवल सूरदास को ही प्राप्त है।


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • सहायक ग्रंथ- हिंदी साहित्य, भाग -2,
  • नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्टें 1905 12-14, 25-30, 32-34, 38-40,29-30;
  • बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्‌ की खोज रिपोर्ट; इतिहास एवं अन्य संदर्भ ग्रंथ।

धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 636-365।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख