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लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में ।  
 
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स्वर्ग, नर्क  निर्माण, स्वयं कर लेता घर में ।   
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स्वर्ग,नरक निर्माण, स्वयं कर लेता घर में ।   
 
'ठकुरेला' कविराय, न सब कुछ यूँ ही होता ।
 
'ठकुरेला' कविराय, न सब कुछ यूँ ही होता ।
 
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता ।।  
 
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता ।।  

10:51, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

कुछ कुण्डलियाँ -त्रिलोक सिंह ठकुरेला
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
कवि त्रिलोक सिंह ठकुरेला
जन्म 1 अक्टूबर, 1966
जन्म स्थान नगला मिश्रिया, हाथरस, (उत्तर प्रदेश)
मुख्य रचनाएँ प्रकाशित- नया सवेरा (बाल साहित्य), काव्यगंधा (कुण्डलिया संग्रह)

सम्पादन- आधुनिक हिंदी लघुकथाएँ, कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर, कुण्डलिया कानन

इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

बोता खुद ही आदमी, सुख या दु:ख के बीज ।
मान और अपमान का, लटकाता ताबीज ।।
लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में ।
स्वर्ग,नरक निर्माण, स्वयं कर लेता घर में ।
'ठकुरेला' कविराय, न सब कुछ यूँ ही होता ।
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता ।।

          तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़ ।
          अगर मिले नेतृत्व तो, ताक़त बनती भीड़ ।।
          ताक़त बनती भीड़, नए इतिहास रचाती ।
          जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक, बाती ।
          'ठकुरेला' कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका ।
          रचते नया विधान, मिले सोना या तिनका ।।

जीवन के भवितव्य को, कौन सका है टाल ।
किन्तु प्रबुद्धों ने सदा, कुछ हल लिये निकाल ।।
कुछ हल लिये निकाल, असर कुछ कम हो जाता ।
नहीं सताती धूप, शीश पर हो जब छाता ।
'ठकुरेला' कविराय, ताप कम होते मन के ।
खुल जाते हैं द्वार, जगत् में नव जीवन के ।।

          ताक़त ही सब कुछ नहीं, समय समय की बात ।
          हाथी को मिलती रही, चींटी से भी मात ।।
          चींटी से भी मात, धुरंधर धूल चाटते ।
          कभी कभी कुछ तुच्छ, बड़ों के कान काटते।
          'ठकुरेला' कविराय, हुआ इतना ही अवगत ।
          समय बड़ा बलवान, नहीं धन, पद या ताक़त ।।

जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान ।
विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान ।।
लगती है आसान, नहीं दु:ख से घबराता ।
ढूँढे मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता ।
'ठकुरेला' कविराय, नहीं होता विचलित मन।
सुख-दुख, छाया-धूप, सहज बन जाता जीवन ।।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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