सोलह सिंगी धार -कुलदीप शर्मा

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सोलह सिंगी धार -कुलदीप शर्मा
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कवि कुलदीप शर्मा
जन्म स्थान (उना, हिमाचल प्रदेश)
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कुलदीप शर्मा की रचनाएँ
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आज बरसों बाद देखा तुम्हें
तो नज़र आई तुम्हारे चेहरे पर
चिन्ता की इतनी गहरी लकीरें
कि माँ याद आई बहुत
आज बरसों बाद
सुनाई दी तुम्हारी कराह
पहली बार
दिखी तुम
माँ सी असहाय किन्तु संघर्षरत

जाने कब रूठ कर चले गए
तुम्हारे देवता
कब सूख गया तुम्हारे होंठों पर
बहते झरने सा राग
कब उतर आया
तुम्हारी आंखों में इतना पानी
कब टूट पड़ा
तुम्हारी खुशियों की फसलों पर
दु:खों का टिड्डीदल

मैंने सुना था तुम्हें गाते माँ के संग
तीज-त्यौहारो ब्याह-शादियों पर
गूगा की बाट गाते समय
साथ साथ गूँजने लगता था
तुम्हारे भीतर का अनहद नाद
तुम्हारी चोटियों से
फूट पड़ती थी अनायास
कोई पहाड़ी झंझोटी
जाहिर है कि तब
इतनी बेचैन नहीं थी तुम

सदियों तक बर्दाश्त किये तुमने
मौसमों और राजा कुटलैहड़िया के आखेट
अपनी सर्पीली पगडंडियों से
पहुंचाती रही तुम
अपने बेटों को
सकुशल घर
कहीं कोई भटकन नहीं
तुम्हारे रास्तों में
जिन्द्गी भर

तुमने अभी भी
उठा रखा है
अपने हाथों में
फूल की तरह मेरा गाँव
अभी भी तुम्हारे जिस्म पर
महका हुआ है
कचनार का पेड़
आस्सर की घाटी से
अभी भी गुमदा भेड़ों को
पुकारती हुई
सांय सांय करती गुज़रती है हवा
थांई के टिल्ले में
बूढ़े बरगद के पेड़ की
टहनियों पर
कितनी ही देर ठहरा रहता है चांद
तुम्हारे जिस्म में टूटे काँटों को
निकालते-निकालते
सुनाता रहता है
अनगिनत प्रेम कहानियां


तुम्हें देखते ही लगता है
यहीं से गोल होनी
शुरू हुई होगी पृथ्वी
आखिर यहीं गिर गिर कर
गोल होता है आदमी़
 

एक ही नाम के अनेक लोग

एक ही नाम के इतने लोग
एक ही जैसी शक्ल के
एक ही तरह का व्यवहार करते हुए
और प्रतिकूलताओं में निरंतर
एक सी प्रंतिक्रिया करते
अलग अलग जगह ठहरे हुए

जूता गांठता रूल्दू
कूड़ा ढोता चरणू
लकड़ी पाटता होपू
मवेशी चराता कालू
ढाबे मे बर्तन मांजता मुंडु
यहां तक कि बड़े दप्तर में
साहब के आगे पीछे रोसनू

इन सब का एक ही नाम था
एक ही जैसी शक्ल थी
सिर झुकाकर काम करने की
आदत भी एक जैसी थी
हालांकि पूछता कोई नहीं
पर उनका हाल
उनका दु:ख एक जैसा था

ये सब और इनके अनेक साथी
नहीं पाते हैं कहीं भी आसानी से प्रवेश
मन्दिर मे
या शोभा यात्र में
जगराते में भी रहते हैं
सबसे पिछली पांत में
जूतों की रखवाली में लगा दिये जाते हैं
सेवा के नाम पर
   
ये एक ही नाम
एक ही शक्ल के लोग
एकाएक घुस आए हैं मेरी कविता में
और ख़ाली स्थान देख
ठस्के से अग्रिम पांत में बैठ गए हैं
अब कौन रहेगा निशाने पर
कविता या ये सब?


शहर की सीमा पर किसान
शहर की सीमा पर
खेत को तख्ती की तरह टिकाकर
बैठा है किसान
खेत पर लिख कर फसल
डसने रख दी है
एक इबारत आसमान पर
जिसे पढ़ने के लिए
और ऊँची हो रही हैं इमारतें

शहर के बढ़ते आ रहे
विकराल पंजों के विरोध में
सारे प्रलोभनों और दबावों के सामने
वह हर बार प्रस्तुत कर देता है
खेत में लहलहाती फसल
किसान का यही उत्तर है उन सबको
जो मौसमों और फै्रक्टरियों की भाषा में
खेत के लिए
नई योजनाएं गढ़ने में मुब्तिला हैं

                        
वे सब जो शहरी विकास प्राधिकरण से
लौटे हैं
ऊँचे तेवरों और प्रश्नवाचक मुद्राओं के साथ
डन सबको किसान दिखा रहा है
एक उगता हुआ बिरवा
जिसे अभी अभी उसने
निराई करके मुक्त किया है
खरपतवार के मकडज़ाल से

वह उन्हें संकेत से दिखा रहा है
गोबर से लीपा गया गया अपना घर
जिनके ज़हन में आकार ले रही हैं
अटृलिकाओं की आगामी पीढ़ियां

शहर की सीमा पर किसान
नहीं है शहर के विरोध में
वह तो बस खड़ा है
दुर्दम प्रतिबद्घता के साथ
अपने खेत और फसलों के पक्ष में

कितने ही घाघ बिल्डर
कितने ही प्रापर्टी डीलर
नज़र लगा चुके हैं खेत को
उनकी नज़र तो
खेत से पार उस गंदे नाले तक भी है
और उससे भी पार
जहां पालतू पशु
और ग़रीब बच्चे खेलते हैं साथ साथ

शहर की सीमा पर किसान
गंदम की पकती बालियों की
तीखी नोक पर
प्यार से फिरा रहा है हाथ
याद कर रहा है
उन किसानों को
जिन्हें लील गया शहर
वह शहर को भी देखता है प्यार से
पर योद्धा की तरह लड़ता है
खेत के पक्ष में।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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