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बाजीराव प्रथम मराठा राज्य का दूसरा पेशवा (1720-40 ई0), जिसकी नियुक्ति उसके पिता बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी के रूप में राजा साहू ने की थी। साहू ने राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया था और मराठा राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था। वह महान राजनयक और योग्य सेनापति था। उसने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है और उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर हिन्दू-पद-पादशाही स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर भारत भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई0 में मालवा पर आक्रमण किया और 1724 ई0 में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से गुजरात जीत लिया।

युद्ध

मराठा सरदारों का एक वर्ग उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की इस नीति का विरोधी था, जिसका नेतृत्व सेनापति व्यंम्बक राव दाभाड़े कर रहा था। बाजीराव ने घबोई के युद्ध में दाभाड़े को पराजित कर उसका वध कर दिया। 1731 में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा साहू का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था। इस परिस्थिति में बाजीराव प्रथम ने पेशवा पद को पैतृक उत्तराधिकारियों के रूप में अपने परिवार के लिए सुरक्षित कर दिया और उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की अपनी योजनाओं को फिर से आगे बढ़ाया। उसने आमेर के राजपूत राजा और बुन्देलों से गठबन्धन कर लिया। 1737 में उसकी विजयी सेनाएँ दिल्ली के पास पहुँच गईं। मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह (1719-48 ई0) ने घबरा कर हैदराबाद के निज़ाम को बुलाया जिसने मराठों से की गई 1731 ई0 वाली सन्धि का उल्लघंन कर बाजीराव प्रथम का बढ़ाव रोकने के लिए अपनी सेना उत्तर भारत में भेज दी। पेशवा ने निज़ाम की सेना को भोपाल के निकट युद्ध में पराजित कर दिया और उसे फिर सन्धि करने को मजबूर किया, जिसके द्वारा मराठों को केवल मालवा का क्षेत्र ही नहीं, वरन् नर्मदा और चम्बल के बीच का क्षेत्र भी मिल गया। इस सन्धि की पुष्टि मुग़ल बादशाह ने की और हिन्दुस्तान के बड़े हिस्से पर मराठों का आधिपत्य हो गया।

मराठा मण्डल की स्थापना

1739 में बाजीराव प्रथम ने पुर्तग़ालियों से साष्टी और बसई का इलाक़ा छीन लिया। लेकिन बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ रहा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया। इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें ग्वालियर के शिन्दे, बड़ौंदा के गायकवाड़, इन्दौर के होल्कर और नागपुर के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया। लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। लेकिन 1840 ई0 में उसकी 42 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गयी, जिससे हिन्दू-पद-पादशाही की स्थापना के लक्ष्य को गहरी क्षति पहुँची।


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