नल दमयन्ती
नल दमयन्ती कथा
निषध के राजा वीरसेन के पुत्र का नाम नल था। उन्हीं दिनों विदर्भ देश पर भीम नामक राजा राज्य करता थां उनके प्रयत्नों के उपरांत दमन नामक ब्रह्मर्षि को प्रसन्न कर उसे तीन पुत्र (दम, दान्त तथा दमन) और एक कन्या (दमयंती) की प्राप्ति हुई। दमयंती तथा नल अतीव सुंदर थे। एक-दूसरे की प्रशंसा सुनकर बिना देखे ही वे परस्पर प्रेम करने लगे। नल ने एक हंस से अपना प्रेम-संदेश दमयंती तक पहुंचाया, प्रत्युत्तर में दमयंती ने भी नल के प्रति वैसे ही उद्गार भिजवाए। कालांतर में दमयंती के स्वयंवर का आयोजन हुआ। इन्द्र, वरुण, अग्नि तथा यम, ये चारों भी उसे प्राप्त करने के लिए इच्छुक थे। इन्होंने भूलोक में नल को अपना दूत बनाया। नल के यह बताने पर भी कि वह दमयंती से प्रेम करता है, उन्होंने उसे दूत बनने के लिए बाध्य कर दिया। दमयंती ने जब नल का परिचय प्राप्त किया तो स्पष्ट कहा-'आप उन चारों देवताओं को मेरा प्रणाम कहिएगा, किंतु स्वयंवर में वरण तो मैं आपका ही करूंगी।' स्वयंवर के समय उन चारों लोकपालों ने नल का ही रूप धारण कर लिया। दमयंती विचित्र परिस्थिति में फंस गयी। उसके लिए नल को पहचानना असंभव हो गया। देवताओं को मन-ही-मन प्रणाम कर उसने नल को पहचानने की शक्ति मांगी। दमयंती ने देखा कि एक ही रूप के पांच युवकों में से चार को पसीना नहीं आ रहा, उनकी पुष्प मालाएं एक दम खिली हुई दिखलायी पड़ रही हैं, वे धूल-कणों से रहित हैं तथा उनके पांव पृथ्वी का स्पर्श नहीं कर रहे। दमयंती ने पांचवें व्यक्ति को राजा नल पहचान कर उसका वरण कर लिया।
लोकपालों द्वारा दिए वरदान
लोकपालों ने प्रसन्न होकर नल को आठ वरदान दिये-
- इन्द्र ने वर दिया कि नल को यज्ञ में प्रत्यक्ष दर्शन देंगे, तथा
- सर्वोत्तम गति प्रदान करेंगे। अग्नि ने वर दिये कि
- वे नल को अपने समान तेजस्वी लोक प्रदान करेंगे तथा
- नल जहां चाहे, वे प्रकट हो जायेंगे। यमराज ने
- पाकशास्त्र में निपुणता तथा
- धर्म में निष्ठा के वर दिये। वरुण ने
- नल की इच्छानुसार जल के प्रकट होने तथा
- उसकी मालाओं में उत्तम गंध-संपन्नता के वर दिये।
देवतागण जब देवलोक की ओर जा रहे थे तब मार्ग में उन्हें कलि और द्वापर साथ-साथ जाते हुए मिले। वे लोग भी दमयंती के स्वयंवर में सम्मिलित होना चाहते थे। इन्द्र से स्वयंवर में नल के वरण की बात सुनकर कलि युग क्रुद्ध हो उठा, उसने नल को दंड देने के विचार से उसमें प्रवेश करने का निश्चय किया। उसने द्वापर युग से कहा कि वह जुए के पासे में निवास करके उसकी सहायता करे।
नल की जुए में हार
कालांतर में नल दमयंती की दो संतानें हुईं। पुत्र का नाम इन्द्रसेन था तथा पुत्री का इन्द्रसेनीं। कलि ने सुअवसर देखकर नल के शरीर में प्रवेश किया तथा दूसरा रूप धारण करके वह पुष्कर के पास गया। पुष्कर नल का भाई लगता थां उसे कलि ने उकसाया कि वह जुए में नल को हराकर समस्त राज्य प्राप्त कर ले। पुष्कर नल के महल में उससे जुआ खेलने लगा। नल ने अपना समस्त वैभव, राज्य इत्यादि जुए पर लगाकर हार दिया। दमयंती ने अपने सारथी को बुलाकर दोनों बच्चों को अपने भाई-बंधुओं के पास कुण्डिनपुर (विदर्भ देश में) भेज दिया। नल और दमयंती एक-एक वस्त्र में राज्य की सीमा से बाहर चले गये। वे एक जंगल में पहुंचे। वहां बहुत-सी सुंदर चिड़ियां बैठी थीं, जिनकी आँखेंं सोने की थीं। नल ने अपना वस्त्र उतारकर उन चिड़ियों पर डाल दिया ताकि उन्हें पकड़कर उदराग्नि को तृप्त कर सके और उनकी आंखों के स्वर्ण से धनराशि का संचय करे, किंतु चिड़िया उस धोती को ले उड़ीं तथा यह भी कहती गयीं कि वे जुए के पासे थे जिन्होंने चिड़ियों का रूप धारण कर रखा था तथा वे धोती लेने की इच्छा से ही वहां पहुंची थीं। नग्न नल अत्यंत व्याकुल हो उठा। बहुत थक जाने के कारण जब दमयंती को नींद आ गयी तब नल ने उसकी साड़ी का आधा भाग काटकर धारण कर लिया और उसे जंगल में छोड़कर चला गया।
जंगल में अकेली दमयंती
भटकती हुई दमयंती को एक अजगर ने पकड़ लिया। उसका विलाप सुनकर किसी व्याध ने अजगर से तो उसकी प्राणरक्षा कर दी किंतु कामुकता से उसकी ओर बढ़ा। दमयंती ने देवताओं का स्मरण कर कहा, कि यदि वह पतिव्रता है तो उसकी सुरक्षा हो जाय। वह व्याध तत्काल भस्म होकर निष्प्राण हो गया। थोड़ी दूर चलने पर दमयंती को एक आश्रम दिखलायी पड़ा। दमयंती ने वहां के तपस्वियों से अपनी दु:खगाथा कह सुनायी और उनसे पूछा कि उन्होंने नल को कहीं देखा तो नहीं है। वे तपस्वी ज्ञानवृद्ध थे। उन्होंने उसके भावी सुनहरे भविष्य के विषय में बताते हुए कहा कि नल अवश्य ही अपना राज्य फिर से प्राप्त कर लेगा और दमयंती भी उससे शीघ्र ही मिल जायेगी। भविष्यवाणी के उपरांत दमयंती देखती ही रह गयी कि वह आश्रम, तपस्वी, नदी, पेड़, सभी अंतर्धान हो गये। तदनंतर उसे शुचि नामक व्यापारी के नेतृत्व में जाती हुई एक व्यापार मंडली मिली। वे लोग चेदिराज सुबाहु के जनपद की ओर जा रहे थे। कृपाकांक्षिणी दमयंती को भी वे लोग अपने साथ ले चले। मार्ग में जंगली हाथियों ने उन पर आक्रमण कर दिया। धन, वैभव, जन आदि सभी प्रकार का नाश हुआ। कई लोगों का मत था कि दमयंती नारी के रूप में कोई मायावी राक्षसी अथवा यक्षिणी रही होगी, उसी की माया से यह सब हुआ। उनके मन्तव्य को जानकर दमयंती का दु:ख द्विगुणित हो गया। सुबाहु की राजधानी में भी लोगों ने उसे अन्मत्त समझा क्योंकि वह कितने ही दिनों से बिखरे बाल, धूल से मंडित तन तथा आधी साड़ी में लिपटी देह लिए धूम रही थीं अपने पति की खोज में उसकी दयनीय स्थिति जानकर राजमाता ने उसे आश्रय दिया। दमयंती ने राजमाता से कहा कि वह उनके आश्रय में किन्हीं शर्तों पर रह सकेगी: वह जूठन नहीं खायेंगी, किसी के पैर नहीं धोयेगी, ब्राह्मण से इतर पुरुषों से बात नहीं करेगी, कोई उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करे तो वह दंडनीय होगा। दमयंती ने अपना तथा नल का नामोल्लेख नहीं किया। वहां की राजकुमारी सुनंदा की सखी के रूप में वह वहां रहने लगी। दमयंती के माता-पिता तथा बंधु-बांधव उसे तथा नल को ढूंढ़ निकालने के लिए आतुर थे। उन्होंने अनेक ब्राह्मणों को यह कार्य सौंपा हुआ था। दमयंती के भाई के मित्र सुदैव नामक ब्राह्मण ने उसे खोज निकाला। सुदैव ने उसके पिता आदि के विषय में बताकर राजमाता उसकी मौसी थी किंतु वे परस्पर पहचान नहीं पायी थीं। दमयंती मौसी की आज्ञा लेकर विदर्भ निवासी बंधु-बांधवों, माता-पिता तथा अपने बच्चों के पास चली गयी। उसके पिता नल की खोज के लिए आकुल हो उठे।
जंगल में नल
दमयंती को छोड़कर जाते हुए नल ने दावालन में घिरे हुए किसी प्राणी का आर्तनाद सुना वह निर्भीकतापूर्वक अग्नि में घुस गया। अग्नि के मध्य कर्कोटक नामक नाग बैठा था, जिसे नारद ने तब तक जड़वत निश्चेष्ट पड़े रहने का शाप दिया था जब तक राजा नल उसका उद्धार न करे। नाग ने एक अंगूठे के बराबर रूप धारण कर लिया और अग्नि से बाहर निकालने का अनुरोध किया। नल ने उसकी रक्षा की, तदुपरांत कर्कोटक ने नल को डंस लिया, जिससे उसका रंग काला पड़ गया। उसने राजा को बताया कि उसके शरीर में कलि निवास कर रहा है, उसके दु:ख का अंत कर्कोटक के विष से ही संभव है। दु:ख के दिनों में श्यामवर्ण प्राप्त राजा को लोग पहचान नहीं पायेंगे। अत: उसने आदेश दिया कि नल बाहुक नाम धर कर इक्ष्वाकुकुल के ऋतुपर्ण नामक अयोध्या के राजा के पास जाये। राजा को अश्वविद्या का रहस्य सिखाकर उससे द्यूतक्रीड़ा का रहस्य सीख ले। राजा नल को सर्प ने यह वर दिया कि उसे कोई भी दाढ़ी वाला जंतु तथा वेदवेत्ताओं का शाप त्रस्त नहीं कर पायेगा। सर्प ने उसे दो दिव्य वस्त्र भी दिये जिन्हें ओढ़कर वह पूर्व रूप धारण कर सकता था। तदनंतर कर्कोंटक अंतर्धान हो गया। नल ऋतुपर्ण के यहाँ गया तथा उसने राजा से निवेदन किया कि उसका नाम बाहुक है और वह पाकशास्त्र, अश्वविद्या तथा विभिन्न शिल्पों का ज्ञाता हे। राजा ने उसे अश्वाध्यक्ष के पद पर नियुक्त कर लिया।
नल की खोज
विदर्भराज का पर्णाद नामक ब्राह्मण नल को खोजता हुआ अयोध्या में पहुंचा। विदर्भ देश में लौटकर उसने बताया कि वाहुक नामक सारथी का क्रियाकलाप संदेहास्पद है। वह नल से बहुत मिलता है। दमयंती ने पिता से गोपन रखते हुए माँ की अनुमति से सुदेव नामक ब्राह्मण के द्वारा ऋतुपर्ण को कहलाया कि अगले दिन दमयंती का दूसरा स्वयंवर है। अत: वह पहुंचे। ऋतुपर्ण ने बाहुक से सलाह करके विदर्भ देश के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में राजा ने बाहुक से कहा कि अमुक पेड़ पर अमुक संख्यक फल हैं। बाहुक वचन की शुद्धता जानने के लिए पेड़ के पास रूक गया तथा उसके समस्त फल गिनकर उसने देखा कि वस्तुत: उतने ही फल हैं। राजा ने बताया कि वह गणित और द्यूत-विद्या के रहस्य को जानता है। ऋतुपर्ण ने बाहुक को द्यूत विद्या सिखा दी तथा उसके बदले में अश्व-विद्या उसी के पास धरोहर रूप में रहने दी। बाहुक के द्यूत विद्या सीखते ही उसके शरीर से कलि युग निकलकर बहेड़े के पेड़ में छिप गया, फिर क्षमा मांगता हुआ अपने घर चला गया। विदर्भ देश में स्वयंवर के कोई चिह्न नहीं थे। ऋतुपर्ण तो विश्राम करने चला गया किंतु दमयंती ने केशिनी के माध्यम से बाहुक की परीक्षा ली। वह स्वेच्छा से जल तथा अग्नि को प्रकट कर सकता था। उसके चलाये रथ की गति वैसी ही थी जैसे राजा नल की हुआ करती थी। बाहुक अपने बच्चों से मिलकर ख़ूब रोया भी था। दमयंती को रूप के अतिरिक्त किसी भी वस्तु में बाहुक तथा नल में विषमता नहीं दीख पड़ रही थी। उसने गुरुजनों की आज्ञा लेकर उसे अपने कक्ष में बुलाया। नल को भली भांति पहचानकर दमयंती ने उसे बताया कि नल को ढूंढ़ने के लिए ही दूसरे स्वयंवर की चर्चा की गयी थी। ऋतुपर्ण को अश्व-विद्या देकर नल ने पुष्कर से पुन: जुआ खेला। उसने दमयंती तथा धन की बाज़ी लगा दीं पुष्कर संपूर्ण धन धान्य और राज्य हारकर अपने नगर चला गया। नल ने पुन: अपना राज्य प्राप्त किया। [1]
इन्हें भी देखें: नल एवं दमयन्ती
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