धामी सम्प्रदाय
धामी सम्प्रदाय जिसे संत प्राणनाथ द्वारा संस्थापित किया गया था, यह 'महाराजपंथ', 'मेराजपंथ', 'खिजडा', 'चकला', 'धाम' एवं 'धामी' नामों से प्रख्यात है। इन नामों में 'महाराज' शब्द सम्प्रदाय के प्रवर्तक के लिए श्रद्धा और आदर का द्योतक है। 'मेराज' महाराज का अपभ्रंश रूप है अथवा मेराज अरबी के मीराज, सजीव स्वर्गयात्रा का बोधक हो सकता है। 'खिजडा' नाम एक वृक्ष विशेष के आधार पर दिया गया, जो देववन्द की नौतमपुरी वाली समाधि के निकट विद्यमान है। उस वृक्ष को गुजराती भाषा में खिजडा कहा जाता है। 'चकला' नाम देववन्द के पुत्र बिहारीदास ने दिया था। बिहारीदास ने यह पंथ 1655 ई. में चलाया, जो धामी से किसी प्रकार भिन्न न था। 'धाम' शब्द ब्रह्म का पर्याय है, जो सर्वोच्च आध्यात्मिक दशा या विशुद्ध प्रेम का केन्द्र और धाम है। धाम शब्द ब्रह्म के अलौकिक प्रदेश का बोधक है।
प्रेमानुभूति की प्रधानता
धामी सम्प्रदाय में प्रेमानुभूति तत्त्व की प्रधानता है। इसी कारण किसी अन्य पंथ, सम्प्रदाय या धर्म से इसके भेदभाव अथवा पृथकता का कोई प्रश्न नहीं है। सभी ब्रह्म के प्रेमी हैं। प्रेम प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा का मूल तत्त्व है। इसीलिए हिन्दू, ईसाई, यहूदी तथा इस्लाम धर्म इसी प्रेम के सूत्र में बँधे हैं और इसी एक रस प्रेम में भींगने के अनंतर समस्त संसार आत्मीय प्रतीत होने लगता है। प्राणनाथ ने अपने समय तक प्रचलित सभी धर्मों का अध्ययन किया और महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन करके उनकी मौलिक एकता पर विचार किया। इस अध्ययन और मनन के फलस्वरूप प्राणनाथ ने धामी सम्प्रदाय को स्थापित किया।
धामी सम्प्रदाय वर्तमान थियासोफिकल या अहमदीय सम्प्रदायों की भाँति सब धर्मों की विशेषताओं को लेकर गढ़ा हुआ एक नया सम्प्रदाय है। इस दृष्टि से धामी सम्प्रदाय कबीरपंथ, दादूपंथ, नानकपंथ आदि से सर्वथा भिन्न और पृथक् है। इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक तथा अनुयायी दूसरे के साहित्य और साधनात्मक प्रक्रियाओं के प्रति उदार दृष्टिकोण रखते हैं।
मूल विचारधारा
प्राणनाथ के मत में प्रेम को बड़ा महत्त्व दिया गया है। ब्रह्म की मूल शक्ति ही प्रेमस्वरूपिणी है। प्रेम की शक्ति पाकर जीव ब्रह्माकार बन जाता है। सत्संग अध्यात्मिक अभ्युत्थान के लिए परमावश्यक है, यही धामी सम्प्रदाय की मूल विचारधारा है। इसके "सवदातीथ साख्यात", अर्थात् प्रेम साक्षात् और स्वानुभूति के अंतर्गत रहने पर भी शब्दातीत और अनिर्वचनीय है। ब्रह्मसृष्टि और जगत् एवं ब्रह्म, दोनों ही अलौकिक आनंदस्वरूप हैं। शुद्ध प्रेम वास्तविक पुरुषार्थ की सच्ची अवस्था है। सृष्टि ब्रह्म के नाम से मुखरित हो उठती है।
प्राणनाथ के ग्रंथ
संत प्राणनाथ एक अच्छे कवि थे। उनके द्वारा रचित कुछ ग्रंथों के नाम निम्नलिखित हैं-
क्रम संख्या | ग्रंथ | क्रम संख्या | ग्रंथ | क्रम संख्या | ग्रंथ |
---|---|---|---|---|---|
1. | राम ग्रंथ | 2. | षड्ऋतु | 3. | खुलासा |
4. | कीरतन | 5. | कलस | 6. | सम्बन्ध |
7. | प्रकाश ग्रंथ | 8. | खेलवात | 9. | प्रकरण इलाही दुलहन |
10. | सागर सिंगार | 11. | कयामतनामा | 12. | सिन्धी भाषा |
13. | मारफत सागर | 14. | बड़े सिगार | 15. | राजविनोद |
16, | प्रकटबानी | 17. | ब्रह्मबाणी | 18. | बीस गिरोहों का बाव |
19. | बीस गिरोहों की हकीकत | 20. | कीर्त्तन | 21. | प्रेमपहेली |
22. | तारतम्य | 23. | राजविनोद | 24. | विराट चरितामृत |
25. | पदावली | 26. | कलजमे शरीफ़ | 27. | - |
उपरोक्त ग्रंथों से सबसे अच्छा और महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है- 'कलजमे शरीफ़'। 'कयामतनामा' की भाषा फ़ारसी शब्दों से दबी हुई है। प्राणनाथ को गुजराती, फ़ारसी, अरबी, संस्कृत तथा अन्य प्रांतीय बोलियों का सम्यक ज्ञान था।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सहायक ग्रंथ- 'उत्तरी भारत की संत परम्परा': परशुराम चतुर्वेदी; 'धार्मिक साहित्य का इतिहास': शिवशंकर मिश्र