श्राद्ध और ग्रहण

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Warning-sign-small.png यह लेख पौराणिक ग्रंथों अथवा मान्यताओं पर आधारित है अत: इसमें वर्णित सामग्री के वैज्ञानिक प्रमाण होने का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। विस्तार में देखें अस्वीकरण
श्राद्ध और ग्रहण
श्राद्ध कर्म में पूजा करते ब्राह्मण
अनुयायी सभी हिन्दू धर्मावलम्बी
उद्देश्य श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है, उसी को 'श्राद्ध' कहते हैं।।
प्रारम्भ वैदिक-पौराणिक
तिथि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या अर्थात आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक
अनुष्ठान श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो 'पिण्ड' बनाते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है।
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अन्य जानकारी ब्रह्म पुराण के अनुसार श्राद्ध की परिभाषा- 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है', श्राद्ध कहलाता है।

आपस्तम्ब धर्मसूत्र[1], मनु[2], विष्णु धर्मसूत्र[3], कूर्म पुराण[4], ब्रह्माण्ड पुराण[5], भविष्य पुराण[6] ने रात्रि, सन्ध्या (गोधूलि काल) या जब सूर्य का तुरत उदय हुआ हो तब–ऐसे कालों में श्राद्ध सम्पादन मना किया है। किन्तु चन्द्रग्रहण के समय छूट दी है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र ने इतना जोड़ दिया है कि यदि श्राद्ध सम्पादन अपरान्ह्न में आरम्भ हुआ हो और किसी कारण से देर हो जाए तथा सूर्य डूब जाए तो कर्ता को श्राद्ध सम्पादन के शेष कृत्य दूसरे दिन ही करने चाहिए और उसे दर्भों पर पिण्ड रखने तक उपवास करना चाहिए। विष्णु धर्मसूत्र का कथन है कि ग्रहण के समय किया गया श्राद्ध पितरों को तब तक संतुष्ट करता है जब तक कि चन्द्र व तारों का अस्तित्व है और कर्ता की सभी सुविधाओं एवं सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है। यही कूर्म पुराण का कथन है कि जो व्यक्ति ग्रहण के समय श्राद्ध नहीं करता है वह पंक में पडी हुई गाय के समान डूब जाता है (अर्थात् उसे पाप लगता है या उसका नाश हो जाता है)। मिताक्षरा[7] ने सावधानी के साथ निर्देशित किया है कि यद्यपि श्राद्धों के समय भोजन करना निषिद्ध है, तथापि यह निषिद्धता केवल भोजन करने वाले (उन ब्राह्मणों को जो ग्रहण काल में श्राद्ध भोजन करते हैं) को प्रभावित करती है, किन्तु कर्ता को नहीं, जो उससे अच्छे फलों की प्राप्ति करता है।[8]

अपरान्ह्न का अर्थ

श्राद्धकाल के लिए मनु[9] द्वारा व्यवस्थित अपरान्ह्न के अर्थ के विषय में अपरार्क[10], हेमाद्रि[11] एवं अन्य लेखकों तथा निबन्धों में विद्वत्तापूर्ण विवेचन उपस्थित किया गया है। कई मत प्रकाशित किये गये हैं। कुछ लोगों के मत से मध्यान्ह्न के उपरान्त दिन का शेषान्त अपरान्ह्न है। पूर्वाह्न शब्द ऋग्वेद[12] में आया है। इस कथन के आधार पर कहा है कि दिन को तीन भागों में बांट देने पर अन्तिम भाग अपरान्ह्न कहा जाता है। तीसरा मत यह है कि पाँच भागों में विभक्त दिन का चौथा भाग अपरान्ह्न है। इस मत को मानने वाले शतपथ ब्राह्मण[13] पर निर्भर हैं। दिन के पाँच भाग ये हैं–प्रात:, संगव, मध्यन्दिन (मध्यान्ह्न), अपरान्ह्न एवं सायाह्न (सांय या अस्तगमन)। इनमें प्रथम तीन स्पष्ट रूप से ऋग्वेद[14] में उल्लिखित हैं। प्रजापतिस्मृति[15] में आया है कि इनमें प्रत्येक भाग तीन मुहूर्तों तक रहता है।[16] इसने आगे कहा है कि कुतप सूर्योदय के उपरान्त आठवाँ मुहूर्त है और श्राद्ध को कुतप में आरम्भ करना चाहिए तथा उसे रौहिण मुहूर्त के आगे नहीं ले जाना चाहिए। श्राद्ध के लिए पाँच मुहूर्त (आठवें से बारहवें तक) अधिकतम योग्य काल हैं।

कुतप

कुतप शब्द के आठ अर्थ हैं, जैसा कि स्मृतिच.[17] एवं हेमाद्रि[18] ने कहा है। यह शब्द 'कु' (निन्दित अर्थात् पाप) एवं 'तप' (जलाना) से बना है। 'कुतप' के आठ अर्थ ये हैं–मध्याह्न, खड्गपात्र (गेंडे के सींग का बना पात्र), नेपाल का कम्बल, रूपा (चाँदी), दर्भ, तिल, गाय एवं दौहित्र (कन्या का पुत्र)। सामान्य नियम यह है कि श्राद्ध अपरान्ह्न में किया जाता है (किन्तु यह नियम अमावास्या, महालय, अष्टका एवं अन्वष्टका के श्राद्धों के लिए प्रयुक्त होता है), किन्तु वृद्धिश्राद्ध और आमश्राद्ध (जिनमें केवल अन्न का ही अर्पण होता है) प्रात: काल में किये जाते हैं। इस विषय में मेधा तिथि[19] ने एक स्मृतिवचन उद्धृत किया है।[20] त्रिकाण्डमण्डन[21] में आया है कि यदि मुख्य काल में श्राद्ध करना सम्भव: न हो तो उसके पश्चात् वाले गौण काल में उसे करना चाहिए, किन्तु कृत्य के मुख्य काल एवं सामग्री संग्रहण के काम में प्रथम को ही वरीयता देनी चाहिए और सभी मुख्य द्रव्यों को एकत्र करने के लिए गौण काल के अतिरिक्त अन्य कार्यों में उसकी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आपस्तम्ब धर्मसूत्र (7|17|23-25
  2. मनु (3|280
  3. विष्णु धर्मसूत्र (77|8-9
  4. कूर्म पुराण (2|16|3-4
  5. ब्रह्माण्ड पुराण (3|14|3
  6. भविष्य पुराण (1|185|1
  7. याज्ञवल्क्य 1|217
  8. न च नक्तं श्राद्धं कुर्वीत।
    आरब्धे चाभोजनमा समापनात्।
    अन्यत्र राहुदर्शनात्।
    आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2|7|17|23-25); नक्तं तु वर्जयेच्छारद्धं राहोरन्यत्र दर्शनात्।
    सर्वस्वेनापि कर्तव्यं क्षिप्रं वै राहुदर्शने।
    उपरागे न कुर्याद्य: पडृंगौरिव सीदति।।
    कूर्म पुराण (2|16-3|4)।
    यद्यपि 'चन्द्रसूर्यग्रहे नाद्यात्' इति ग्रहणे भोजननिषेधस्तथापि भोक्तुर्दोषी दातुरभ्युदय:। मिता. (याज्ञ. 1|217-218)।

  9. मनु (3|278
  10. पृष्ठ 465
  11. हेमाद्रि (पृष्ठ 313
  12. ऋग्वेद (10|34|11
  13. शतपथ ब्राह्मण (2|2|3|9
  14. ऋग्वेद (5|76|3
  15. प्रजापतिस्मृति (156-157
  16. दिन 15 मुहूर्तों में बाँटा जाता है
  17. स्मृतिच. (श्राद्ध पृष्ठ 433
  18. हेमाद्रि (श्राद्ध, पृष्ठ 320
  19. मनु 3|254
  20. पूर्वाह्ने दैविकं कार्यमपराह्ने तु पैतृकम्। एकोद्दिष्टं तु मध्याह्ने प्रातर्वृद्धिनिमित्तकम्।। मेधातिथि (मनु 3|243)। दीपकलिका (याज्ञ. 1|226) ने इस श्लोक को वायुपुराण के एक श्लोक के रूप में उद्धृत किया है।
  21. त्रिकाण्डमण्डन (2|150 एवं 162

बाहरी कड़ियाँ

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