बसंत (ii) -नज़ीर अकबराबादी

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बसंत (ii) -नज़ीर अकबराबादी
नज़ीर अकबराबादी
कवि नज़ीर अकबराबादी
जन्म 1735
जन्म स्थान दिल्ली
मृत्यु 1830
मुख्य रचनाएँ बंजारानामा, दूर से आये थे साक़ी, फ़क़ीरों की सदा, है दुनिया जिसका नाम आदि
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नज़ीर अकबराबादी की रचनाएँ

फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत।
हर एक गुलबदन ने मनाई बसंत॥
तवायफ़ ने हरजाँ उठाई बसंत।
इधर औ' उधर जगमगाई बसंत॥
हमें फिर ख़ुदा ने दिखाई बसंत ॥1॥

        मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा।
        वह काफ़िर भी जोड़ा बसंती बना॥
        सरापा वह सरसों का बन खेत-सा।
        वह नाज़ुक से हाथों से गड़ुवा उठा॥
        अज़ब ढंग से मुझ पास लाई बसंत ॥2॥

वह कुर्ती बसंती वह गेंदे के हार।
वह कमख़्वाब का ज़र्द काफ़िर इज़ार॥
दुपट्टा फिर ज़र्द संजगाफ़दार।
जो देखी मैं उसकी बसंती बहार॥
तो भूली मुझे याद आई बसंत॥3॥

        वह कड़वा जो था उसके हाथों में फूल।
        गया उसकी पोशाक को देख भूल॥
        कि इस्लाम तू अल्लाह ने कर कबूल।
        निकाला इसे और छिपाई बसंत ॥4॥

वह अंगिया जो थी ज़र्द और जालदार।
टँकी ज़र्द गोटे की जिस पर कतार॥
वह ज़ो दर्द लेमू को देख आश्कार।
ख़ुशी होके सीने में दिल एक बार॥
पुकारा कि अब मैंने पाई बसंत ॥5॥

        वह जोड़ा बसंती जो था ख़ुश अदा।
        झमक अपने आलम की उसमें दिखा॥
        उठा आँख औ' नाज़ से मुस्करा।
        कहा लो मुबारक हो दिन आज का॥
        कि याँ हमको लेकर है आई बसंत ॥6॥

पड़ी उस परी पर जो मेरी निगाह।
तो मैं हाथ उसके पकड़ ख़्वामख़्वाह॥
गले से लिपटा लिया करके चाह।
लगी ज़र्द अंगिया जो सीने से आह॥
तो क्या-क्या जिगर में समाई बसंत ॥7॥

        वह पोशाक ज़र्द और मुँह चांद-सा।
        वह भीगा हुआ हुस्न ज़र्दी मिला॥
        फिर उसमें जो ले साज़ खींची सदा।
        समाँ छा गया हर तरफ़ राग का॥
        इस आलम से काफ़िर ने गाई बसंत ॥8॥

बंधा फिर वह राग बसंती का तार।
हर एक तान होने लगी दिल के पार॥
वह गाने की देख उसकी उसदम बहार।
हुई ज़र्द दीवारोंदर एक बार ॥
गरज़ उसकी आंखों में छाई बसंत ॥9 ॥



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