कुषाण साम्राज्य
कुषाण साम्राज्य तत्कालीन तीन महत्त्वपूर्ण साम्राज्य, पूर्व में चीन, पश्चिम में पार्थियन (पहलव) एवं रोम साम्राज्य के मध्य में स्थित था। चूंकि पार्थियनों के रोम से सम्बन्ध अच्छे नहीं थे, इसलिए चीन से व्यापार करने के लिए रोम को कुषाणों से मधुर सम्बन्ध बनाने पड़े। यह व्यापार महान् 'सिल्कमार्ग' तथा 'रेशममार्ग' से सम्पन्न होता था। यह मार्ग तीन हिस्सों में बंटा था -(1.) कैस्पीयन सागर होते हुए, (2.) मर्व से फरात नदी होते हुए नील सागर पर स्थित बन्दरगाह तथा (3.) लाल सागर तक जाता था।
कुषाणकालीन व्यापार
प्रथम शताब्दी में भारत और रोम के बीच मधुर सम्बन्ध का उल्लेख 'पेरिप्लस ऑफ़ दी इरीथ्रियन सी' नामक पुस्तक में मिलता है। इस पुस्तक में रोमन साम्राज्य को निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में कालीमिर्च, अदरक, रेशम, मलमल, सूती वस्त्र, रत्न, मोती आदि का उल्लेख मिलता है। आयात की जाने वाली वस्तुओं में मूंगा, लोशन, कांच, चांदी, सोने का बर्तन, रांगा, सीसा, तिप्तीया घास, गीत गाने वाले लड़के का उल्लेख मिलता है। प्रथम शताब्दी ई. में व्यापार मुख्यतः सिन्धु नदी के मुहाने पर स्थित बन्दरगाह 'बारवैरिकम' और भड़ौच से होता था। दक्षिण भारत में इस समय आरिकामेडु, मुजरिस, कावेरी, पत्तम जैसे प्रमुख बन्दरगाह थे। 'पेरिप्लस ऑफ़ द इसीथ्रियन सी' पुस्तक में आरिकामेडु बन्दरगाह का उल्लेख पेडोक नाम से किया गया है। बेरीगाजा (भड़ौच) अथवा भरूकच्छ पश्चिमी तट पर स्थित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह और प्रवेशद्वार था। रोम से भारत आ रहे लोगों की मात्रा पर ग्रीक इतिहासकार प्लिनी ने दुःख व्यक्त किया है।
चौथी बौद्ध संगीति
कनिष्क बौद्ध धर्म की 'महायान' शाखा का अनुयायी था। उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए काफ़ी काम किया। कनिष्क के समय में ही बौद्ध धर्म की चौथी संगीति का आयोजन किया गया। यह संगीति कश्मीर के 'कुण्डल वन' में आयोजित की गई। इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र एवं उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। अश्वघोष, कनिष्क का राजकवि था। इसी संगीति में बौद्ध धर्म दो भागों-हीनयान और महायान में विभाजित हो गया। इस संगीति में नागार्जुन शामिल हुए थे। इसी संगीति में तीनों पिटकों पर टीकायें लिखी गईं, जिनको 'महाविभाषा' नाम की पुस्तक में संकलित किया गया। इस पुस्तक को बौद्ध धर्म का 'विश्वकोष' भी कहा जाता है। संगीति के निर्णयों को ताम्रपत्र पर लिखकर पत्थर की मंजूषाओं में रखकर स्तूप में स्थापित कर दिया गया। कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयायी होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति साहिष्णु था। इसके सिक्कों पर पार्थियन, यूनानी एवं भारतीय देवी-देवताओं की आकृतियाँ मिली हैं। कनिष्क के सिक्कों पर ग्रीक अक्षर में जिन देवताओं के नाम लिखे हैं वे इस प्रकार हैं- 'हिरैक्लीज', 'सिरापीज', ग्रीक नामधारी सूर्य और चन्द्र, हेलिओस और सेलिनी, मीइरो (सूर्य), अर्थों (अग्नि), ननाइया, शिव आदि। सिक्कों पर महात्मा बुद्ध तथा भारतीय देवी देवताओं की आकृतियाँ यूनानी शैली में उकेरी गई हैं। कुषाण वंश के शासकों में विम कडफ़ाइसिस, शैव; कनिष्क, बौद्ध; हुविष्क और वासुदेव कुषाण, वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। मथुरा से कनिष्क की एक ऐसी मूर्ति मिली है, जिसमें उसे सैनिक वेषभूषा में दिखाया गया है। कनिष्क के अब तक प्राप्त सिक्के यूनानी एवं ईरानी भाषा में मिले हैं।
कनिष्क के तांबे के सिक्कों पर उसे 'बलिवेदी' पर बलिदान करते हुए दर्शाया गया है। कनिष्क के सोने के सिक्के रोम के सिक्कों से काफ़ी कुछ मिलते थे। बुद्ध के अवशेषों पर कनिष्क ने पेशावर के निकट एक स्तूप एवं मठ निर्माण करावाया। कनिष्क कला और विद्वता का आश्रयदाता था। इसके दरबार का सबसे महान् साहित्यिक व्यक्ति अश्वघोष था। इसकी रचनाओं की तुलना महान् मिल्टन, गेटे, काण्ट एवं वॉल्टेयर से की गई है। अश्वघोष ने 'बुद्धचरित्र' तथा 'सौन्दरनन्द', शारिपुत्रकरण एवं सूत्रालंकार की रचना की। इसमें बुद्धचरित तथा सौन्दरनन्द को महाकाव्य की संज्ञा प्राप्त है। सौन्दरनन्द में बुद्ध के सौतेले भाई सुन्दरनन्द के सन्न्यास ग्रहण करने का वर्णन है। अश्वघोष का ग्रंथ 'सरिपुत्रप्रकरण' नौ अंको का एक नाटक ग्रंथ है, जिसमें बुद्ध के शिष्य 'शरिपुत्र' के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का नाटकीय उल्लेख है। इस ग्रंथ की तुलना वाल्मीकि के रामायण से की जाती है। कनिष्क के दरबार की ही एक अन्य विभूति नागार्जुन दार्शनिक ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक भी था। इसकी तुलना मार्टिन लूथर से की जाती है। इसे भारत का 'आईन्सटाइन' कहा गया है। नागार्जुन ने अपनी पुस्तक 'माध्यमिक सूत्र' में सापेक्षता के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। वसुमित्र ने चौथी बौद्ध संगीति में 'बौद्ध धर्म के विश्वकोष' 'महाविभाष्ज्ञसूत्र' की रचना की। इस ग्रंथ को 'बौद्ध धर्म का विश्वकोष'कहा जाता है। कनिष्क के दरबार के एक और रत्न चिकित्सक 'चरक' ने औषधि पर 'चरकसंहिता' की रचना की। चरक, कनिष्क का राजवैद्य था। अन्य विद्धानों में पार्श्व, वसुमित्र, मतृवेट, संघरक्षक आदि के नाम उल्लेखनीय है। इसके संघरस कनिष्क के पुरोहित थे। विभाषाशास्त्र की रचना वसुमित्र ने की थी। कुषाणों ने भारत में बसकर यहाँ की संस्कृति को आत्मसात् किया। भारतीय संस्कृति यूनानी संस्कृति से प्रभावित थी। कुषाण शासकों ने 'देवपुत्र' उपाधि धारण की। कनिष्क के समय में ही 'वात्सायन का कामसूत्र', भारवि की स्वप्नवासवदत्ता की रचना हुई। 'स्वप्नवासवदत्ता' को संभवतः भारत का प्रथम सम्पूर्ण नाटक माना गया है।
युइशि जाति का भारत प्रवेश
हूणों के आक्रमण के कारण युइशि लोग अपने प्राचीन अभिजन को छोड़कर अन्यत्र जाने के लिए विवश हुए थे, और इसलिए मध्य एशिया के क्षेत्र में निवास करने वाली विविध जातियों में एक प्रकार की उथल-पुथल मच गई थी। युइशि जाति का मूल अभिजन तिब्बत के उत्तर-पश्चिम में 'तकला मक़ान' की मरुभूमि के सीमान्त क्षेत्र में था। उस समय हूण लोग उत्तरी चीन में निवास करते थे। जब चीन के शक्तिशाली सम्राट शी-हुआंग-ती (246—210 ई. पू.) ने उत्तरी चीन में विशाल दीवार बनवाकर हूणों के लिए अपने राज्य पर आक्रमण कर सकना असम्भव बना दिया, तो हूण लोग पश्चिम की ओर बढ़े, और उस प्रदेश पर टूट पड़े, जहाँ युइशि जाति का निवास था। युइशि लोगों के लिए यह सम्भव नहीं था कि वे बर्बर और प्रचण्ड हूण आक्रान्ताओं का मुक़ाबला कर सकते। वे अपने अभिजन को छोड़कर पश्चिम व दक्षिण की ओर जाने के लिए विवश हुए। उस समय सीर नदी की घाटी में शक जाति का निवास था। युइशि लोगों के आक्रमण के कारण वह अपने प्रदेश को छोड़ देने के लिए विवश हुई, और सीर नदी की घाटी पर युइशि जाति का अधिकार हो गया। युइशियों से धकेले जाकर ही शकों ने बैक्ट्रिया और पार्थिया पर आक्रमण किए और उनकी एक शाखा भारत में भी प्रविष्ट हुई। शकों के द्वारा बैक्ट्रिया के यवन राज्य का अन्त हुआ, और पार्थिया भी उनके अधिकार में आ जाता, यदि राजा मिथिदातस द्वितीय उनके आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा करने में समर्थ न होता। पार्थिया को जीत सकने में समर्थ न हो पाने के कारण ही शकों की एक शाखा सीस्तान होती हुई सिन्ध नदी में प्रविष्ट हुई थी।
युइशि जाति का बैक्ट्रिया में प्रवेश
सीर नदी की घाटी से शकों को निकालकर युइशि जाति के लोग वहाँ पर आबाद हो गए थे। पर वे वहाँ पर भी देर तक नहीं टिक सके। जिन हूणों के आक्रमण के कारण युइशि लोग अपने मूल अभिजन को छोड़ने के लिए विवश हुए थे, उन्होंने उन्हें सीर नदी की घाटी में भी चैन से नहीं रहने दिया। हूणों ने यहाँ पर भी उनका पीछा कया, जिससे की शकों के पीछे-पीछे वे बैक्ट्रिया में भी प्रविष्ट हुए। बैक्ट्रिया और उसके समीपवर्ती प्रदेशों पर उन्होंने क़ब्ज़ा कर लिया, और वहाँ अपने पाँच राज्य क़ायम किए। एक चीनी ऐतिहासिक के अनुसार -
- हिउ-मी
- शुआंग-मी
- कुएई-शुआंग
- ही-तू
- काओ-फ़ू।
पहली सदी ई. पू. से ही युइशि लोग अपने ये पाँच राज्य स्थापित कर चुके थे। इन राज्यों में परस्पर संघर्ष चलता रहता था। बैक्ट्रिया के यवन निवासियों के सम्पर्क में आकर युइशि लोग सभ्यता के मार्ग पर भी अग्रसर होने लगे थे, और वे उस दशा से उन्नति कर गए थे, जिसमें कि वे तक़लामक़ान की मरुभूमि के समीपवर्ती अपने मूल अभिजन में रहा करते थे।
कुषाण
युइशि लोगों के पाँच राज्यों में अन्यतम 'कुएई-शुआंगा' था। 25 ई. पू. के लगभग इस राज्य का स्वामी 'कुषाण' नाम का वीर पुरुष हुआ, जिसके शासन में इस राज्य की बहुत उन्नति हुई। उसने धीरे-धीरे अन्य युइशि राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया। वह केवल युइशि राज्यों को जीतकर ही संतुष्ट नहीं हुआ, अपितु उसने समीप के पार्थियन और शक राज्यों पर भी आक्रमण किए।
अनेक इतिहासकारों का मत है, कि कुषाण किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं था। यह नाम युइशि जाति की उस शाखा का था, जिसने अन्य चारों युइशि राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। जिस राजा ने पाँचों युइशि राज्यों को मिलाकर अपनी शक्ति का उत्कर्ष किया, उसका अपना नाम कुजुल कडफ़ाइसिस था। पर्याप्त प्रमाण के अभाव में यह निश्चित कर सकना कठिन है कि जिस युइशि वीर ने अपनी जाति के विविध राज्यों को जीतकर एक सूत्र में संगठित किया, उसका वैयक्तिक नाम कुषाण था या कुजुल था। यह असंदिग्ध है, कि बाद के युइशि राजा भी कुषाण वंशी थे। राजा कुषाण के वंशज होने के कारण वे कुषाण कहलाए, या युइशि जाति की कुषाण शाखा में उत्पन्न होने के कारण - यह निश्चित न होने पर भी इसमें सन्देह नहीं कि ये राजा कुषाण कहलाते थे और इन्हीं के द्वारा स्थापित साम्राज्य को कुषाण साम्राज्य कहा जाता है।
प्राचीन भारत के सभी साम्राज्यों में कुषाण साम्राज्य की बड़ी ही महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय स्थिति थी। इस समय के अनेक साम्राज्यों के बीच स्थित था। पूर्व में चीन का 'स्वर्गिक साम्राज्य' था। इसके पश्चिम में पार्थियन साम्राज्य था। रोमन साम्राज्य का उदय हो रहा था। रोमन तथा पार्थियन साम्राज्यों में परस्पर शत्रुता थी, और रोमन एक ऐसा मार्ग चाहते थे जहाँ से रोम और चीन के बीच व्यापार शत्रु देश पार्थिया से गुज़रे बिना हो सके। इसलिए वे कुषाण साम्राज्य से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखने के इच्छुक थे। महान् 'सिल्क मार्ग' की तीनों मुख्य शाखाओं पर कुषाण साम्राज्य का नियंत्रण था -
- कैस्पियन सागर से होकर जाने वाले मार्ग पर,
- मर्व[1] से फ़रात (यूक्रेट्स) नदी होते हुए रूमसागर पर बने बंदरगाह तक जाने वाले मार्ग पर,
- भारत से लाल सागर तक जाने वाले मार्ग पर।
परिणामस्वरूप कुषाणों के समय में उत्तर पश्चिम भारत उस समय का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र बन गया था। आर्थिक दृष्टि से कुषाणकालीन भारत अत्यन्त समृद्ध प्रतीत होता है। केवल सम्पूर्ण गंगा घाटी ही नहीं अपितु मध्य एशिया तक विभिन्न उत्खननों से पता चलता है कि ईसा की तीन शताब्दियों में शहरीकरण काफ़ी विकसित हो चुका था।
उत्तरी भारत के सांस्कृतिक इतिहास में भी कुषाण काल का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
कुषाण भी शकों की ही तरह मध्य एशिया से निकाले जाने पर क़ाबुल-कंधार की ओर यहाँ आ गये थे। उस काल में यहाँ के हिन्दी यूनानियों की शक्ति कम हो गई थी, उन्हें कुषाणों ने सरलता से पराजित कर दिया। उसके बाद उन्होंने क़ाबुल-कंधार पर अपना राज्याधिकार क़ायम किया। उनके प्रथम राजा का नाम कुजुल कडफाइसिस था। उसने क़ाबुल – कंधार के यवनों (हिन्दी यूनानियों) को हरा कर भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसे हुए पह्लवों को भी पराजित कर दिया। कुषाणों का शासन पश्चिमी पंजाब तक हो गया था। कुजुल के पश्चात् उसके पुत्र विम तक्षम ने कुषाण राज्य का और भी अधिक विस्तार किया। भारत की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति का लाभ उठा कर ये लोग आगे बढ़े और उन्होंने हिंद यूनानी शासकों की शक्ति को कमज़ोर कर शुंग साम्राज्य के पश्चिमी भाग को अपने अधिकार में कर लिया। विजित प्रदेश का केन्द्र उन्होंने मथुरा को बनाया, जो उस समय उत्तर भारत के धर्म, कला तथा व्यापारिक यातायात का एक प्रमुख नगर था।[2]
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