अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ
अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ
| |
विवरण | 'अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ' अंतरराष्ट्रीय आधारों पर मज़दूरों तथा श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए नियम वनाता है। यह संयुक्त राष्ट्र की विशिष्ट संस्था है। |
स्थापना | 1919 |
मुख्यालय | जेनेवा, स्विटज़रलैण्ड |
उद्देश्य | इस संगठन का उद्देश्य संसार के श्रमिक वर्ग की श्रम और आवास संबंधी अवस्थाओं में सुधार करना है। |
विशेष | वर्ष 1969 में इस संगठन को विश्व शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानि किया गया था। |
अन्य जानकारी | भारत इस संगठन के संस्थापक सदस्य राष्ट्रों में है और 1922 से उसकी कार्यकारिणी में संसार की आठवीं औद्योगिक शक्ति के रूप में वह अवस्थित रहता रहा है। |
अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ (अंग्रेज़ी: International Labour Organization or I.L.O.) एक त्रिदलीय अंतरराष्ट्रीय संस्था है, जिसकी स्थापना 1919 ई. की शांति संधियों द्वारा हुई और जिसका लक्ष्य संसार के श्रमिक वर्ग की श्रम और आवास संबंधी अवस्थाओं में सुधार करना है।
इतिहास
यद्यपि इस संगठन की स्थापना 1919 ई. में हुई, तथापि उसका इतिहास औद्योगिक क्रांति के प्रारंभिक दिनों से ही आरंभ हो गया था, जब नवोत्थित औद्योगिक सर्वहारा वर्ग ने समाज की उत्क्रांतिमूलक शक्तिमान संस्था के रूप में तत्कालीन समाज के अर्थशास्त्रियों के लिए एक समस्या उत्पन्न कर दी थी। यह औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के कारण न केवल तरह-तरह के उद्योग-धंधों के विकास में अतीव मूल्यवान सिद्ध हो रहा था, बल्कि श्रम की व्यवस्थाओं और व्यवसायों के तीव्रगतिक केंद्रीकरण के कारण असाधारण शक्ति संपन्न होता जा रहा था। फ़्राँसीसी राज्य क्रांति, साम्यवादी घोषणा के प्रकाशन, प्रथम और द्वितीय इंटरनेशनल की स्थापना और एक नए संघर्ष निरत वर्ग के अभ्युदय ने विरोधी शक्तियों को इस सामाजिक चेतना से लोहा लेने के लिए संगठित प्रयत्न करने को विवश किया।[1]
इसके अतिरिक्त कुछ औपनिवेशिक शक्तियों ने, जिन्हें दास श्रमिकों की बड़ी संख्या उपलब्ध थी, अन्य राष्ट्रों से औद्योगिक विकास में बढ़ जाने के संकल्प से उनमें अंदेशा उत्पन्न कर दिया और ऐसा प्रतीत होने लगा कि संसार के बाज़ार पर उनका एकाधिकार हो जाएगा। ऐसी स्थिति में अंतरराष्ट्रीय श्रम के विधान की आवश्यकता स्पष्ट हो गई और इस दिशा में तरह-तरह के समझौतों के प्रयत्न समूची 19वीं शताब्दी भर होते रहे। 1889 ई. में जर्मनी के सम्राट ने बर्लिन-श्रम-सम्मेलन का आयोजन किया। फिर 1900 में पेरिस में श्रम के विधान के लिए एक अंतरराष्ट्रीय संघ की स्थापना हुई। इसके तत्वावधान में बर्न में 1905 एवं 1906 में आयोजित सम्मेलनों ने श्रम संबंधी प्रथम नियम बनाए। ये नियम स्त्रियों के रात में काम करने के और दियासलाई के उद्योग में श्वेत फॉस्फोरस के प्रयोग के विरोध में बनाए गए थे, यद्यपि प्रथम महायुद्ध छिड़ जाने से 1913 में बने सम्मेलन की मान्यताएँ जोर न पकड़ सकीं।
शक्तिशाली ट्रेड यूनियनों का उदय
यूरोप के व्यावसायिक केंद्रों में होने वाली बड़ी हड़तालों और 1917 की बोल्शेविक क्रांति ने श्रम की समस्याओं को विस्फोट की स्थिति तक पहुँचने से रोकने और उन्हें नियंत्रित करने की आवश्यकता सिद्ध कर दी। इस सुझाव के परिणामस्वरूप 1919 के शांति सम्मेलन ने अंतरराष्ट्रीय श्रम विधान के लिए एक ऐसा जाँच कमीशन बैठाया, जो अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ तथा विश्व-श्रम-चार्टर का निर्माण संभव कर सके। कमीशन के सुझाव कुछ परिवर्तनों के साथ मान लिए गए और पूँजीवादी जगत् में श्रम के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए झगड़ों को ध्यान में रखकर इस संघ को शीघ्रातिशीघ्र अपना कार्य आरंभ कर देने का निर्णय कर लिया गया। शीघ्रता यहाँ तक की गई कि अक्टूबर, 1919 में वाशिंगटन डी.सी. में प्रथम श्रम सम्मेलन की बैठक हो गई, जबकि अभी संधि की शर्तें भा सर्वथा मान्य नहीं हो पाई थीं।
भारत का योगदान
भारत इस संगठन के संस्थापक सदस्य राष्ट्रों में है और 1922 से उसकी कार्यकारिणी में संसार की आठवीं औद्योगिक शक्ति के रूप में वह अवस्थित रहता रहा है। 1949 में इस संगठन के बजट में भारत का योगदान 3.32 प्रतिशत है, जो संयुक्त राज्य अमरीका, ग्रेट ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ़्राँस, जर्मनी के प्रजातंत्र संघ तथा कनाडा के बाद सातवें स्थान पर है। द्वितीय महायुद्ध के परवर्ती काल में यह संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ की एक विशिष्ट संस्था बन गई है।[1]
संस्थाएँ
अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ में तीन संस्थाएँ हैं-
- साधारण सम्मेलन (जेनरल कॉन्फ्रसें)
- शासी निकाय (गवर्निंग बॉडी)
- अंतरराष्ट्रीय श्रम कार्यालय
सदस्य राष्ट्र
साधारण सम्मेलन अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन के नाम से अधिक विख्यात है। शासी निकाय संघ की कार्यकारिणी के रूप में काम करता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम कार्यालय का स्थायी सचिवालय है। संगठन के वर्तमान विधान के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ का कोई भी सदस्य इस संगठन का सदस्य बन सकता है, उसे केवल सदस्यता के साधारण नियमों का पालन स्वीकार करना होगा। यदि सार्वजनिक सम्मेलन चाहे तो संयुक्त राष्ट्र संघ की परिधि से बाहर के देश भी इसके सदस्य बन सकते हैं। आज अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ के सदस्य राष्ट्रों की संख्या 71 है, जिनकी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्थाएँ विभिन्न प्रकार की हैं।
शक्ति तथा बैठक
अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ की समूची शक्ति अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन के हाथों में है। उसकी बैठक प्रति वर्ष होती है। इस सम्मेलन में प्रत्येक सदस्य राष्ट्र चार प्रतिनिधि भेजता है। परंतु इन प्रतिनिधियों में दो राजकीय प्रतिनिधि सदस्य राष्ट्रों की सरकारों द्वारा नियुक्त होते हैं, तीसरा उद्योगपतियों का और चौथा श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करता है। इनकी नियुक्ति भी सदस्य सरकारें ही करती हैं। सिद्धांत: ये प्रतिनिधि उद्योगपतियों और श्रमिकों की प्रधान प्रतिनिधि संस्थाओं से चुन लिए जाते हैं। उन संस्थाओं के प्रतिनिधित्व का निर्णय भी उनके देश की सरकारें ही करती हैं। परंतु प्रत्येक प्रतिनिधि को व्यक्तिगत मतदान का अधिकार होता है।
सम्मेलन का काम अंतरराष्ट्रीय श्रम नियम एवं सुझाव संबंधी मसविदा बनाना है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय सामाजिक और श्रम संबंधी निम्नतम मान आ जाएँ। इस प्रकार यह एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय मंच का काम करता है, जिस पर आधुनिक औद्योगिक समाज के तीनों प्रमुख अंगों-राज्य, संगठन (व्यवस्था, मैनेजमेंट) और श्रम-के प्रतिनिधि औद्योगिक संबंधों की महत्वपूर्ण समस्याओं पर परस्पर विचार विनिमय करते हैं। दो-तिहाई बहुमत द्वारा नियम और बहुमत द्वारा सिफारिश स्वीकृत होती है; परंतु स्वीकृत नियमों या सिफारिशों को मान लेना सदस्य राष्ट्रों के लिए आवश्यक नहीं। हाँ, उनसे ऐसी आशा अवश्य की जाती है कि वे अपने देशों की राष्ट्रीय संसदों के समक्ष 18 महीने के भीतर उन विषयों को विचार के लिए प्रस्तुत कर दें। सुझावों के स्वीकरण पर विचार इतना आवश्यक नहीं है जितना नियमों को कानून का रूप देना। संघ राज्यों के विषय में ये नियम सुझाव के रूप में ही ग्रहण करने होते हैं, विधान के रूप में नहीं। जब कोई सरकार नियम को मान लेती है और उसका व्यवहार करना चाहती है तो उसे अंतरराष्ट्रीय श्रम कार्यालय में इस संबंध का एक वार्षिक विवरण भेजना पड़ता है।[1]
शासी निकाय
शासी निकाय भी एक तीन अंगों वाली संस्था है। यह 32 सदस्यों से निर्मित है, जिनमें 16 सरकारी तथा आठ-आठ उद्योगपतियों और श्रमिकों के प्रतिनिधि होते हैं। इन 16 सरकारी संस्थानों में से आठ उन देशों के लिए हैं, जो प्रधान औद्योगिक देश मान लिए गए हैं। शेष आठ प्रति तीसरे वर्ष सरकारी प्रतिनिधियों द्वारा निर्वाचित होते हैं, जिनके निर्वाचन का अधिकार कार्यकारिणी में सम्मिलित उन आठ देशों को भी प्राप्त होता है, जो प्रधान औद्योगिक देश होने के कारण उसके पहले से ही सदस्य हैं। इसका निर्णय भी कार्यकारिणी परिषद् द्वारा ही होता है कि आठ प्रधान औद्योगिक देश कौन से हों। कार्यकारिणी नीति और कार्यक्रम निर्धारित करती है, अंतरराष्ट्रीय श्रम कार्यालय का संचालन और सम्मेलन द्वारा नियुक्त अनेक समितियों और आयोगों के कार्यों का निरीक्षण करती है। कार्यालय के डाइरेक्टर जेनरल का निर्वाचन कार्यकारिणी ही करती है और वही सम्मेलन का कार्यक्रम (एजेंडा) भी प्रस्तुत करती है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम कार्यालय
अंतरराष्ट्रीय श्रम कार्यालय सम्मेलन तथा कार्यकारिणी का स्थायी सचिवालय है। संयुक्त राष्ट्र संघ के कर्मचारियों की ही भाँति श्रम कार्यालय के कर्मचारी भी अंतरराष्ट्रीय सिविल सर्विस के कर्मचारी होते हैं जो उस अंतरराष्ट्रीय संस्था के प्रति उत्तरदायी होते हैं। श्रम कार्यालय का काम अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ के विविध अंगों के लिए कार्य विवरण, काग़ज़ पत्र आदि प्रस्तुत करना है। सचिवालय के इन कार्यों के साथ ही वह कार्यालय अंतरराष्ट्रीय श्रम अनुसंधान का भी केंद्र है, जो जीवन और श्रम की परिस्थितियों को अंतरराष्ट्रीय ढंग से मान्यता प्रदान करने के लिए उनसे संबंधित सभी विषयों पर मूल्यवान सामग्री एकत्र करता तथा उनका विश्लेषण और वितरण करता है। सदस्य देशों की सरकारों और श्रमिकों से वह निरंतर संपर्क रखता है। अपने सामयिक पत्रों और प्रकाशनों द्वारा वह श्रम विषयक सूचनाएँ देता रहता है।
पुस्तिका प्रकाशन
श्रम कार्यालय बराबर विवरण, सावधि सामाजिक समस्याओं का अध्ययन, प्रधान साधारण सम्मेलन के अधिवेशनों तथा विविध समितियों का अध्ययन, प्रधान साधारण सम्मेलन के अधिवेशनों तथा विविध समितियों और तकनीकी सम्मेलनों के विवरण, संदर्भ ग्रंथ, श्रम के आँकड़ों की वार्षिक पुस्तकें, संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने उपस्थित किए गए अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ के विवरण तथा विशेष पुस्तिकाएँ प्रकाशित करता रहता है। प्रकाशित पत्रों में दि इंटरनेशनल लेबर रिव्यू संघ विषयक सामान्य व्याख्यात्मक निबंधों और आंकड़ों का मासिक पत्र है; इंडस्ट्री ऐंड लेबर श्रम अनुसंधान का विवरण प्रकाशित करने वाला पाक्षिक है; लेजिस्लेटिव सीरीज़ विभिन्न देशों के श्रम कानूनों का विवरण प्रस्तुत करने वाला द्विमासिक है; ऑक्यूपेशनल सेफ्टी ऐंड हेल्थ तथा दि बिब्लियोग्रैफ़ी ऑव इंडस्ट्रियल हाइजिन त्रैमासिक हैं। इनमें से अधिकांश पत्र विभिन्न भाषाओं में छपते हैं।
स्वीकृत नियम
अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन द्वारा कुल स्वीकृत नियम 1958 के अंत तक 109 रहे हैं और विधान के रूप में स्वीकृत विभिन्न देशीय विधानों की संख्या, जो श्रम कार्यालय द्वारा प्राप्त हो चुके थे, 1808 है। 1958 के अंत तक भारत ने 23 नियम माने हैं। कुछ देशों ने शर्तों के साथ नियम स्वीकार किए हैं; अधिकांश ने अनेक महत्व के नियम स्वीकृत नहीं किए हैं। नियमों को स्वीकार करने की गति मंद है। यद्यपि अधिकतर देशों ने अनेक महत्व के नियम स्वीकृत नहीं किए हैं, तथापि अल्पतम मान स्थापित करने का नैतिक वातावरण अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ ने उत्पन्न कर दिया है। उसी का परिणाम है कि एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय श्रम क़ानून का विकास हो चला है, जिसमें उसके स्वीकृत अनेक नियमों एवं सुझावों का समावेश है। इनमें काम के घंटों, विश्रामकाल, वेतन सहित वार्षिक छट्टियों, मज़दूरी का भाव, उसकी रक्षा, अल्पतम मज़दूरी की व्यवस्था, समान कामों का समान पारिश्रमिक, नौकरी पाने की अल्पतम आयु, नौकरी के लिए आवश्यक डाक्टरी परीक्षा, रात के समय स्त्रियों, बच्चों एवं अल्पायु युवक तथा युवतियों की नियुक्ति जच्चा की रक्षा, औद्योगिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य, औद्योगिक कल्याण, बेकारी का बीमा, कार्यकालिक चोट को क्षतिपूर्ति, चिकित्सा की व्यवस्था, संगठित होने और सामूहिक माँग करने का अधिकार आदि अनेक महत्वपूर्ण प्रश्न सुलझाए गए हैं और इनके लिए सामान्य अंतरराष्ट्रीय न्यूनतम मान निर्धारित हो गए हैं। इन अंतरराष्ट्रीय न्यूनतम मानों का प्रभाव प्रत्यक्ष नियमस्वीकरण द्वारा अथवा अप्रत्यक्ष रूप से नैतिकता के प्रभाव से विभिन्न देशों के श्रम विधान पर पड़ा है, क्योंकि उनमें सतत परिवर्तनशील समय की आवश्यकताएँ प्रतिबिंबित होती रही हैं।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 11 मार्च, 2015।
संबंधित लेख