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यद्यपि इन समितियों और उनकी सिफारिशों के बावजूद भारत में भ्रष्टाचार की गति कभी थमी नहीं। वर्ष [[1957]] का मूंदड़ा घोटाला भ्रष्टाचार का ऐसा बड़ा मामला था, जिसमें केंद्रीय मंत्री शामिल पाए गए थे। इस मामले में तत्कालीन वित्तमंत्री टी. टी. कृष्णमचारी को इस्तीफा तक देना पड़ा था। इन परिस्थितियों में तत्कालीन गृहमंत्री [[लाल बहादुर शास्त्री]] ने भ्रष्टाचार रोकने के तात्कालिक तंत्र की समीक्षा और सुझाव के लिए [[तमिलनाडु]] के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के. संथानम की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। [[1962]] में गठित इस समिति की सिफारिशों के आधार पर ही प्रथम और द्वितीय श्रेणी के सरकारी अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच के लिए [[1964]] में '[[केंद्रीय सतर्कता आयोग]]' (सीवीसी) की स्थापना हुई।
 
यद्यपि इन समितियों और उनकी सिफारिशों के बावजूद भारत में भ्रष्टाचार की गति कभी थमी नहीं। वर्ष [[1957]] का मूंदड़ा घोटाला भ्रष्टाचार का ऐसा बड़ा मामला था, जिसमें केंद्रीय मंत्री शामिल पाए गए थे। इस मामले में तत्कालीन वित्तमंत्री टी. टी. कृष्णमचारी को इस्तीफा तक देना पड़ा था। इन परिस्थितियों में तत्कालीन गृहमंत्री [[लाल बहादुर शास्त्री]] ने भ्रष्टाचार रोकने के तात्कालिक तंत्र की समीक्षा और सुझाव के लिए [[तमिलनाडु]] के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के. संथानम की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। [[1962]] में गठित इस समिति की सिफारिशों के आधार पर ही प्रथम और द्वितीय श्रेणी के सरकारी अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच के लिए [[1964]] में '[[केंद्रीय सतर्कता आयोग]]' (सीवीसी) की स्थापना हुई।

14:29, 21 फ़रवरी 2013 के समय का अवतरण

संथानम समिति का गठन सन 1962 में तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता के. संथानम की अध्यक्षता में की थी। चार अन्य सांसदों सहित दो वरिष्ठ अधिकारी इसके सदस्य थे। इसे भारत सरकार के विभागों में भ्रष्टाचार के विभिन्न पक्षों की तहकीकात करने तथा इस पर रोक लगाने के उपायों की सिफारिश करने का कार्य सौंपा गया था। परंतु राजनीतिक भ्रष्टाचार (अर्थात मंत्रिमण्डल स्तर के भ्रष्टाचार) के विषय को इसके विचारार्थ विषयों से अलग रखा गया था। लाल बहादुर शास्त्री द्वारा गठित इस समिति की सिफारिशों के आधार पर 'केंद्रीय सतर्कता आयोग' का गठन हुआ था।

इतिहास

भारत में आजादी के तुरंत बाद सन 1948 में भ्रष्टाचार के मामलों की शुरुआत सेना के जीप ख़रीद घोटाले से हुई तो सरकारी स्तर पर इसे रोकने की कोशिशें भी शुरू हुईं। इस कड़ी में भ्रष्टाचार निरोधक क़ानून-1947 की समीक्षा के लिए 'बख्शी टेकचंद समिति' के गठन को पहली कोशिश माना जा सकता है। इसके बाद सन 1950 में 'गोरवाला समिति' का गठन हुआ, जिसने पाया कि भारत में मंत्री और सांसद-विधायक भारी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं।[1]

गठन

यद्यपि इन समितियों और उनकी सिफारिशों के बावजूद भारत में भ्रष्टाचार की गति कभी थमी नहीं। वर्ष 1957 का मूंदड़ा घोटाला भ्रष्टाचार का ऐसा बड़ा मामला था, जिसमें केंद्रीय मंत्री शामिल पाए गए थे। इस मामले में तत्कालीन वित्तमंत्री टी. टी. कृष्णमचारी को इस्तीफा तक देना पड़ा था। इन परिस्थितियों में तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भ्रष्टाचार रोकने के तात्कालिक तंत्र की समीक्षा और सुझाव के लिए तमिलनाडु के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के. संथानम की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। 1962 में गठित इस समिति की सिफारिशों के आधार पर ही प्रथम और द्वितीय श्रेणी के सरकारी अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच के लिए 1964 में 'केंद्रीय सतर्कता आयोग' (सीवीसी) की स्थापना हुई।

समिति का कथन

पहली बार 'लोकपाल' नामक संस्था का विचार भी संथानम की रिपोर्ट से ही निकला हुआ माना जाता है। अपनी सिफारिशों में संथानम समिति ने कहा था कि "भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए जो सर्वोच्च संस्था बनाई जाए, वहाँ तक आम आदमी की पहुँच होनी चाहिए, जिससे वह उसके समक्ष अपनी शिकायतें दर्ज करवा सके।" संसद ने उस वक्त यह माना था कि इस शक्ति के आते ही संबंधित संस्था काम के बोझ से दब जाएगी और अप्रभावी होने लगेगी, इसलिए आम नागरिकों के लिए अलग से संस्था गठित करने की आवश्यकता महसूस की गई। यह मूल रूप से लोकपाल के गठन का बीज विचार था।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 वर्मा, पवन। संथानम समिति (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 20 दिसम्बर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख