अधिकार अधिनियम (अधिकारपत्र)

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अधिकार अधिनियम, अधिकारपत्र अंग्रेजी संविधान के विकास में मैग्ना कार्टा के बाद सबसे अधिक महत्व की मंजिल है। यह अधिनियम ब्रिटिश पार्लियामेंट (संसद) द्वारा 16 दिसंबर, 1689 को पारित हुआ और विलियम तथा मेरी ने तत्काल इसे अपनी राजकीय स्वीकृति देकर संविधान का अधिनियम बना दिया। इस अधिनियम का पूरा शीर्षक मूल में इस प्रकार दिया हुआ है प्रजा के अधिकारों और स्वतंत्रता की घोषणा तथा सिंहासन का उत्तराधिकार व्यवस्थित करने वाला अधिनियम। ब्रिटिश लोकसभा द्वारा नियुक्त एक समिति ने अधिकार की घोषणा नामक जो पत्रक प्रस्तुत किया था और जिसे राजदंपति ने 19 फरवरी, 1689 को अपनी स्वीकृति दी थी वही घोषणा इस अधिनियम की पूर्ववर्ती थी और इसकी धाराएँ प्राय पूर्णत उसके अनुरूप थीं। अधिकार की घोषणा में उन शर्तों का भी परिगणन था जिनके अनुसार राजदंपति को उत्तराधिकार मिला था और जिनका पालन करने की उन्होंने शपथ ली थी। इन दोनों अधिनियमों का प्रधान महत्व अंग्रेजी संविधान में राजकीय उत्तराधिकार निश्चित करने में है।[1]

अधिकार अधिनियम वस्तुत उन अधिकारों का परिगणना करता है जिनकी अभिप्राप्ति के लिए अंग्रेज जनता मैग्ना कार्टा (1215 ई.) की घोषणा के पहले से ही संघर्ष करती आई थी। इस अधिनियम की धाराएँ इस प्रकार हैं:

पार्लियामेंट (संसद) की अनुमति के बिना विधि नियमों का कानून का निलंबन अथवा अनुपयोग अवैध होगा।

पार्लियामेंट की अनुमति के बिना आयोग न्यायालयों का निर्माण, परंपराधिकार अथवा राजा की आवश्यकता के नाम पर कर लगाना और शांतिकाल में स्थायी सेना की भरती के कार्य अवैध होंगे।

प्रजा को राजा के यहाँ आवेदन करने और, यदि प्रोटेस्टेंट हुई तो स्वरक्षा के लिए, उसे हथियार बाँधने का अधिकार होगा।

पार्लियामेंट के सदस्यों का निर्वाचन निर्वाध होगा तथा संसद में उन्हें भाषण की स्वतंत्रता होगी और उस भाषण के संबंध में पार्लियामेंट के बाहर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकेगा, न वक्ता पर किसी प्रकार का मुकदमा चलाया जा सकेगा।

इस अधिनियम ने जमानत और जुरमाने के बोझ को कम किया और इस संबंध की अत्यधिक रकम को अनुचित ठहराया। साथ ही, इसने क्रूर दंडों की निंदा की और घोषित किया कि प्रस्तुत सूची में दर्ज नाम वाले जूरर ही जूरी के सदस्य हो सकेंगे और देशद्रोह के निर्णय में भाग लेने वाले सदस्यों के लिए तो भूमि का कापीराइट (स्वामित्व) होना भी अनिवार्य होगा।

इस अधिनियम ने अपराध सिद्ध होने के पूर्व जुरमाने की रीति को अवैध करार दिया और कानून की रक्षा तथा राजनीतिक कष्टों के निवारण के लिए पार्लियामेंट के त्वरित अधिवेशन की व्यवस्था की।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 100,101 |
  2. सं.ग्रं.-डब्ल्यू. स्टब्स : दि कांस्टिट्यूशनल हिस्ट्री ऑव इंग्लैंड, 1929; जी.एन. क्लार्क : दि लेटर स्टुअर्ट्‌स, 1660-1714, 1934; डी.एल. कीर : कांस्टिट्यूशनल हिस्ट्री ऑव माडर्न ब्रिटेन, 1485-1937, 1950।

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