मेवाड़ की चित्रकला

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मेवाड़ की चित्रकला काफ़ी लम्बे समय से ही लोगों का ध्यान आकर्षित करती रही है। यहाँ चित्रांकन की अपनी एक विशिष्ट परंपरा है, जिसे यहाँ के चित्रकार पीढ़ियों से अपनाते रहे हैं। 'चितारे'[1] अपने अनुभवों एवं सुविधाओं के अनुसार चित्रण के कई नए तरीके भी खोजते रहे। रोचक तथ्य यह है कि यहाँ के कई स्थानीय चित्रण केन्द्रों में वे परंपरागत तकनीक आज भी जीवित हैं। तकनीकों का प्रादुर्भाव पश्चिमी भारतीय चित्रण पद्धति के अनुरूप ही ताड़पत्रों के चित्रण कार्यों में ही उपलब्ध होता है। यशोधरा द्वारा उल्लेखित षडांग के संदर्भ एवं 'समराइच्चकहा' एवं 'कुवलयमाला' कहा जैसे ग्रंथों में 'दट्ठुम' शब्द का प्रयोग चित्र की समीक्षा हेतु हुआ है, जिससे इस क्षेत्र की उत्कृष्ट परंपरा के प्रमाण मिलते हैं। ये चित्र मूल्यांकन की कसौटी के रूप में प्रमुख मानक तथा समीक्षा के आधार थे।

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विकास क्रम

विकास के इस सतत् प्रवाह में विष्णुधर्मोत्तर पुराण, समरांगण सूत्रधार एवं चित्र लक्षण जैसे अन्य ग्रंथों में वर्णित चित्रकर्म के सिद्धांत का भी पालन किया गया है। परंपरागत कला सिद्धांतों के अनुरूप ही शास्त्रीय विवेचन में आये आदर्शवाद एवं यथार्थवाद का निर्वाह हुआ है। प्रारंभिक स्वरूपों का उल्लेख आठवीं सदी में हरिभद्रसूरि द्वारा रचित 'समराइच्चिकहा' एवं 'कुवलयमालाकहा' जैसे प्राकृत ग्रंथों से प्राप्त कला संदर्भों में मिलता है। इन ग्रंथों में विभिन्न प्रकार के रंग-तुलिका एवं चित्रफलकों का तत्कालीन साहित्यिक संदर्भों के अनुकूल उल्लेख मेवाड़ में प्रामाणित रूप से चित्रण के तकनीकी पक्ष का क्रमिक विकास यहीं से मानते हैं। यहाँ के चित्रावशेष 1229 ई. के उत्कीर्ण भित्तिचित्रों एवं 1260 ई के ताल पत्रों पर मिलते हैं।[2]

चित्रण परंपरा

मेवाड़ में प्रारंभिक गुर्जर प्रभाव काल से ही चित्रों में नाक, आँख, ठुड्डी एवं पहनावे का अंकन जैन चित्रों एवं गुर्जर कला में विकसित हुआ है। पशु, पक्षी, पेड़, पत्तियाँ, फल-फूल आदि का कलात्मक सरलीकरण, नारी चित्रों के पहनावे में सादगी एवं अन्य सरलीकृत आकृतियाँ तत्कालीन चित्रण परंपरा में आधुनिक रूपों एवं विरूपण को व्यक्त करती है। रंगों में भी भिन्न-भिन्न प्रकार की रंग श्रेणियाँ एवं झाइयों का प्रयोग बहुत हुआ है। रेखा, रंग, रूप एवं संयोजन का विश्लेषणात्मक प्रयोग मेवाड़ चित्र शैली में संतुलित ढ़ंग से किया गया है। यही मेवाड़ के परंपरागत चित्रकारों की कुशल सुझ-बुझ का प्रतीक है। चित्र संयोजन के साथ आत्मिक सात्विकता के आधार पर श्रृंगारिक एवं रीतिकालीन राग-रागिनियों का चित्रण हुआ है, उनमें भी वही सात्विक कौमार्य भाव है, जिन्हें दर्शक ईश्वरीय गुणों के अनुरूप मान लेता है। यह इस चित्र शैली के चित्रों की मनोवैज्ञानिक संयोजन प्रणाली की विशेषता है। परंपरागत मेवाड़ चित्रशैली में सभी प्रेरक तत्व इस चित्रशैली के कलावादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं।

शब्दयुक्त योजनाएँ

चित्रांकन के कई तकनीकी आधार पीढ़ी दर पीढ़ी प्रचलित रहे, जिन्हें यहाँ के चित्रकारों ने स्थानीय शब्दावलियों में अपने अनुभव द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाया। इन शब्दावलियों ने चित्र की चित्रोतम विशेषताओं से लेकर चित्र की भावात्मक अभिव्यक्ति तक के सभी तथ्यपूर्ण विचारों एवं गुणों को बाँधा है। परंपरागत चित्र शैलियों में चित्रण कार्य स्थानीय शब्दावलियों, मुहावरों, उक्तियों, श्लोकों एवं दोहों के रूप में मिलते हैं। इनमें चित्रण अभिप्रायों एवं चित्रण पद्धतियों का विश्लेषण है। चित्रकारों की कृतियों की आलोचना या समालोचना के समय ये शब्दावलियाँ मूल कसौटी रहीं। इन शब्दयुक्त योजनाओं के दो आधार हैं-

  1. शास्त्रोक्त उक्तियाँ एवं श्लोक, जो प्राचीन ग्रंथों से प्राप्त हैं।
  2. मौलिक मुहावरे युक्त योजनाएँ, जो अनुभव से विकसित हुए हैं।

उक्ति परंपरा

अभी तक ऐतिहासिक तथ्यों एवं स्थानीय अनुभवों में इस प्रकार की उक्तियाँ परंपरागत चित्रकारों के घरानों में देखी जा सकती है, जैसे- "हाथ, हाथी और घोड़ा और थोड़ा-थोड़ा"। यह उक्ति मेवाड़ के सीखने वाले छात्रों हेतु प्रयुक्त रही है, जिसमें मूल सिद्धांतों का अध्ययन छिपा हुआ है। यहाँ हाथ से केवल हाथ की आकृति के अभ्यास का संबंध नहीं है बल्कि उनमें जो सरल रेखाओं के छोटे एवं बड़े घुमाव हैं, उनका सुक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण एवं अभ्यास होता है। हाथी के अंकन में अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी घुमावदार, सुदृढ़ एवं सशक्त रेखाओं का अंकन किये जाने की क्षमता एवं हाथी के अंग-प्रत्यंगों से अनुपात एवं संतुलन का ध्यान रखते हुए चित्रण कार्य करने की पद्धति, चित्रकार में धैर्य व दक्षता को प्रकट करता है। घोड़ा, प्रत्येक चित्रकार के अनुपातिक अंकन एवं अभ्यास की दक्षता परखने का मापदण्ड है। प्रवाह पूर्ण रेखाओं का अभ्यास एक सफल चित्रकार के लिए अति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त उसे सभी चित्रण इकाइयों, उनके अभिप्रायों व प्रतीकों को अंकन करने वाली सामग्री की जानकारी अवश्य होनी चाहिए।

चित्रकारी की एक अन्य दूसरी उक्ति का सूत्र भी ऐसी ही सैद्धांतिक प्रक्रिया पर आधारित है, जैसे- "हाथी, हाथ, ऊँट तथा घोड़ा"। हाथी से विशालता का बोध, हाथ से प्रमाण व नाप-तोल का ज्ञान, ऊँट से छोटी व बड़े सभी घुमानों का अभ्यास एवं घोड़े से गतिपूर्ण अंकन प्रक्रिया आदि समझने पर ही व्यक्ति को चित्रण कार्य के उपयुक्त माना जा सकता है। विषय-वस्तु की बनावट व अनुपात मात्र के आधार पर रूपभेद एवं भावों में परिवर्तन के सिद्धांत का प्रत्येक चित्रकार ध्यान रखता है। एक अन्य उक्ति है- "पग बड़ों कपूत रो, सर बड़ों सपूत रो।" चित्रकारों से मानव आकृति एवं अंग-प्रत्यंगों के सुक्ष्म ज्ञान तथा उसके अभ्यास की अपेक्षा की जाती है। इसके अनुसार अंकन न करने पर अर्थ में भारी परिवर्तन आ सकता है। उदाहरण के लिए 'अमानुषी', राक्षसी (कपूत) गुणों का अंकन करते समय पाँव की आकृति बड़ी बनाई जाती है, वहीं महान व्यक्ति का सिर बड़ा बनाया जाता है।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चित्रकार वर्ग
  2. मेवाड़ चित्रकला की चित्रण सामग्री (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 14 जनवरी, 2013।
  3. चित्रकला की स्थानीय शब्दयुक्त योजनाएँ (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 14 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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