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'''वह महान राजनयक और योग्य सेनापति था'''। उसने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि [[मुग़ल काल|मुग़ल साम्राज्य]] छिन्न-भिन्न होने जा रहा है और उसने [[महाराष्ट्र]] क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से [[मुग़ल]] साम्राज्य के स्थान पर '''हिन्दूपाद-पादशाही''' स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर [[भारत]] भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई0 में [[मालवा]] पर आक्रमण किया और 1724 ई0 में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से [[गुजरात]] जीत लिया।
 
'''वह महान राजनयक और योग्य सेनापति था'''। उसने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि [[मुग़ल काल|मुग़ल साम्राज्य]] छिन्न-भिन्न होने जा रहा है और उसने [[महाराष्ट्र]] क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से [[मुग़ल]] साम्राज्य के स्थान पर '''हिन्दूपाद-पादशाही''' स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर [[भारत]] भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई0 में [[मालवा]] पर आक्रमण किया और 1724 ई0 में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से [[गुजरात]] जीत लिया।
 
====साहसी एवं कल्पनाशील====
 
====साहसी एवं कल्पनाशील====
'''बाजीराव प्रथम''' एक योग्य सैनिक ही नहीं, बल्कि विवेकी राजनीतिज्ञ भी था। उसने तुरन्त अनुभव किया कि मुग़ल साम्राज्य का अन्त निकट है तथा हिन्दू नायकों की सहानुभूति प्राप्त कर इस परिस्थिति का मराठों की शक्ति बढ़ाने में अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है। साहसी एवं कल्पनाशील होने के कारण उसने निश्चित रूप से मराठा साम्राज्यवाद की की नीति बनाई, जिसे प्रथम [[पेशवा]] ने आरम्भ किया था। उसने शाही शक्ति के केन्द्र पर आघात करने के उद्देश्य से नर्मदा के पार फैलाव की नीति का श्रीगणेश किया। अत: उसने अपने स्वामी साहू से प्रस्ताव किया-'''हमें मुर्झाते हुए वृक्ष के धड़ पर चोट करनी चाहिए। शाखाएँ अपने आप ही गिर जायेंगी। इस प्रकार मराठों का झण्डा कृष्णा से सिन्धु तक फहराना चाहिए।''' बाजीराव के बहुत से साथियों ने उसकी इस नीति का समर्थन नहीं किया। उन्होंने उसे समझाया कि उत्तर में विजय आरम्भ करने के पहले दक्षिण में [[मराठा]] शक्ति को दृढ़ करना उचित है। परन्तु उसने वाक् शक्ति एवं उत्साह से अपने स्वामी को उत्तरी विस्तार की अपनी योग्यता की स्वीकृति के लिए राज़ी कर लिया।  
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'''बाजीराव प्रथम''' एक योग्य सैनिक ही नहीं, बल्कि विवेकी राजनीतिज्ञ भी था। उसने अनुभव किया कि मुग़ल साम्राज्य का अन्त निकट है तथा हिन्दू नायकों की सहानुभूति प्राप्त कर इस परिस्थिति का मराठों की शक्ति बढ़ाने में अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है। साहसी एवं कल्पनाशील होने के कारण उसने निश्चित रूप से मराठा साम्राज्यवाद की नीति बनाई, जिसे प्रथम [[पेशवा]] ने आरम्भ किया था। उसने शाही शक्ति के केन्द्र पर आघात करने के उद्देश्य से नर्मदा के पार फैलाव की नीति का श्रीगणेश किया। अत: उसने अपने स्वामी साहू से प्रस्ताव किया-'''हमें मुर्झाते हुए वृक्ष के धड़ पर चोट करनी चाहिए। शाखाएँ अपने आप ही गिर जायेंगी। इस प्रकार मराठों का झण्डा कृष्णा से सिन्धु तक फहराना चाहिए।''' बाजीराव के बहुत से साथियों ने उसकी इस नीति का समर्थन नहीं किया। उन्होंने उसे समझाया कि उत्तर में विजय आरम्भ करने के पहले दक्षिण में [[मराठा]] शक्ति को दृढ़ करना उचित है। परन्तु उसने वाक् शक्ति एवं उत्साह से अपने स्वामी को उत्तरी विस्तार की अपनी योग्यता की स्वीकृति के लिए राज़ी कर लिया।
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====हिन्दूपाद-पादशाही====
 
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'''हिन्दू नायकों की सहानुभूति''' जगाने तथा उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए बाजीराव ने '''हिन्दूपाद-पादशाही''' के आदर्श का प्रचार किया। जब उसने दिसम्बर, 1723 ई. में [[मालवा]] पर आक्रमण किया, तब स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों ने उसकी बड़ी सहायता की, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपार धन-जन का बलिदान करना पड़ा। [[गुजरात]] में गृह-युद्ध से लाभ उठाकर मराठों ने उस समृद्ध प्रान्त में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी 'सेनापति' [[त्र्यम्बकराव दाभाड़े]] था, घोर विरोध किया।
 
'''हिन्दू नायकों की सहानुभूति''' जगाने तथा उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए बाजीराव ने '''हिन्दूपाद-पादशाही''' के आदर्श का प्रचार किया। जब उसने दिसम्बर, 1723 ई. में [[मालवा]] पर आक्रमण किया, तब स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों ने उसकी बड़ी सहायता की, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपार धन-जन का बलिदान करना पड़ा। [[गुजरात]] में गृह-युद्ध से लाभ उठाकर मराठों ने उस समृद्ध प्रान्त में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी 'सेनापति' [[त्र्यम्बकराव दाभाड़े]] था, घोर विरोध किया।

11:28, 22 दिसम्बर 2010 का अवतरण

बाजीराव प्रथम मराठा राज्य का दूसरा पेशवा (1720-40 ई0), जिसकी नियुक्ति उसके पिता बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी के रूप में राजा साहू ने की थी। साहू ने राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया था और मराठा राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था।

योग्य सेनापति और राजनयक

वह महान राजनयक और योग्य सेनापति था। उसने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है और उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर हिन्दूपाद-पादशाही स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर भारत भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई0 में मालवा पर आक्रमण किया और 1724 ई0 में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से गुजरात जीत लिया।

साहसी एवं कल्पनाशील

बाजीराव प्रथम एक योग्य सैनिक ही नहीं, बल्कि विवेकी राजनीतिज्ञ भी था। उसने अनुभव किया कि मुग़ल साम्राज्य का अन्त निकट है तथा हिन्दू नायकों की सहानुभूति प्राप्त कर इस परिस्थिति का मराठों की शक्ति बढ़ाने में अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है। साहसी एवं कल्पनाशील होने के कारण उसने निश्चित रूप से मराठा साम्राज्यवाद की नीति बनाई, जिसे प्रथम पेशवा ने आरम्भ किया था। उसने शाही शक्ति के केन्द्र पर आघात करने के उद्देश्य से नर्मदा के पार फैलाव की नीति का श्रीगणेश किया। अत: उसने अपने स्वामी साहू से प्रस्ताव किया-हमें मुर्झाते हुए वृक्ष के धड़ पर चोट करनी चाहिए। शाखाएँ अपने आप ही गिर जायेंगी। इस प्रकार मराठों का झण्डा कृष्णा से सिन्धु तक फहराना चाहिए। बाजीराव के बहुत से साथियों ने उसकी इस नीति का समर्थन नहीं किया। उन्होंने उसे समझाया कि उत्तर में विजय आरम्भ करने के पहले दक्षिण में मराठा शक्ति को दृढ़ करना उचित है। परन्तु उसने वाक् शक्ति एवं उत्साह से अपने स्वामी को उत्तरी विस्तार की अपनी योग्यता की स्वीकृति के लिए राज़ी कर लिया।

हिन्दूपाद-पादशाही

हिन्दू नायकों की सहानुभूति जगाने तथा उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए बाजीराव ने हिन्दूपाद-पादशाही के आदर्श का प्रचार किया। जब उसने दिसम्बर, 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया, तब स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों ने उसकी बड़ी सहायता की, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपार धन-जन का बलिदान करना पड़ा। गुजरात में गृह-युद्ध से लाभ उठाकर मराठों ने उस समृद्ध प्रान्त में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी 'सेनापति' त्र्यम्बकराव दाभाड़े था, घोर विरोध किया।

बाजीराव की सफलता

शिवाजी के वंश के कोल्हापुर शाखा के राजा शम्भूजी द्वितीय तथा निज़ामुलमुल्क, जो बाजीराव प्रथम की सफलताओं से जलते थे, त्र्यम्बकराव दाभाड़े से जा मिले। परन्तु बाजीराव प्रथम ने अपनी उच्चतर प्रतिभा के बल पर अपने शत्रुओं की योजनाओं को विफल कर दिया। 1 अप्रैल, 1731 ई. को ढावोई के निकट बिल्हापुर के मैदान में, जो बड़ौदा तथा उस नगर (ढावोई) के बीच में है, एक लड़ाई हुई। इसमें लड़ाई में त्र्यम्बकराव दाभाड़े परास्त होकर मारा गया। बाजीराव प्रथम की यह विजय पेशवाओं के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है। 1731 में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा साहू का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था।

पेशवा का पद

इस परिस्थिति में बाजीराव प्रथम ने पेशवा पद को पैतृक उत्तराधिकारियों के रूप में अपने परिवार के लिए सुरक्षित कर दिया और उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की अपनी योजनाओं को फिर से आगे बढ़ाया।

निज़ामुलमुल्क की पराजय

बाजीराव प्रथम ने सौभाग्यवश आमेर के सवाई जयसिंह द्वितीय तथा छत्रसाल बुन्देला की मित्रता प्राप्त कर ली। 1737 ई. में वह सेना लेकर दिल्ली के पार्श्व तक गया, परन्तु बादशाह की भावनाओं पर चोट पहुँचाने से बचने के लिए उसने अन्दर प्रवेश नहीं किया। इस मराठा संकट से मुक्त होने के लिए बादशाह ने बाजीराव प्रथम के घोर शत्रु निज़ामुलमुल्क को सहायता के लिए दिल्ली बुला भेजा। निज़ामुलमुल्क को 1731 ई. के समझौते की अपेक्षा करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। उसने बादशाह के बुलावे का शीघ्र ही उत्तर दिया, क्योंकि इसे उसने बाजीराव की बढ़ती हुई शक्ति के रोकने का अनुकूल अवसर समझा। भोपाल के निकट दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ हुई। निज़ामुलमुल्क पराजित हुआ तथा उसे विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। इसके सन्धि के अनुसार उसने इन बातों की प्रतिज्ञा की-*बाजीराव को सम्पूर्ण मालवा देना तथा नर्मदा एवं चम्बल नदी के बीच के प्रदेश पर पूर्ण प्रभुता प्रदान करना; *बादशाह से इस समर्पण के लिए स्वीकृति प्राप्त करना; *पेशवा का ख़र्च चलाने के लिए पचास लाख रुपयों की अदायगी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रयत्न को काम में लाना।

अकाल मृत्यु

इन प्रबन्धों के बादशाह द्वारा स्वीकृत होने का परिणाम यह हुआ कि मराठों की प्रभुता, जो पहले ठेठ हिन्दुस्तान के एक भाग में वस्तुत: स्थापित हो चुकी थी, अब क़ानूनन भी हो गई। पश्चिमी समुद्र तट पर मराठों ने पुर्त्तगीजों से 1739 ई. में साष्टी तथा बसई छीन ली। परन्तु शीघ्र ही बाजीराव प्रथम, नादिरशाह के आक्रमण से कुछ चिन्तित हो गया। अपने मुसलमान पड़ोसियों के प्रति अपने सभी मतभेदों को भूलकर पेशवा ने पारसी आक्रमणकारी को संयुक्त मोर्चा देने का प्रयत्न किया। परन्तु इसके पहले की कुछ किया जा सकता, अप्रैल, 1740 ई. में 42 वर्ष की आयु में बाजीराव प्रथम की अकाल ही मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक महान मराठा राजनीतिज्ञ चल बसा, जिसने अपने व्यक्तिगत चरित्र में कुछ धब्बों के बावजूद मराठा राज्य की सेवा करने की भरसक चेष्टा की।

मराठा मण्डल की स्थापना

बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ रहा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया। इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें ग्वालियर के शिन्दे, बड़ौंदा के गायकवाड़, इन्दौर के होल्कर और नागपुर के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया। लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। उसको बहुत अच्छी तरह मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक माना जा सकता है।

मराठा शक्ति का विभाजन

यद्यपि बाजीराव प्रथम ने बहुत अंशों में मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया, परन्तु जिस राज्य पर उसने अपने स्वामी के नाम से शासन किया, उसमें ठोसपन का बहुत आभाव था। इसके अन्दर राजाराम के समय में जागीर प्रथा के पुन: चालू हो जाने से कुछ अर्ध-स्वतंत्र मराठा राज्य पैदा हो गए। इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ। मराठा केन्द्रीय सरकार का दुर्बल होना तथा अन्त में इसका टूट पड़ना। ऐसे राज्यों में एक बहुत पुराना और अत्यन्त महत्वपूर्ण था, बरार। यह उस समय रघुजी भोंसले के अधीन था, जिसका साहू के साथ में वैवाहिक सम्बन्ध था। उसका परिवार पेशवा के परिवार से पुराना था, क्योंकि यह राजाराम के शासनकाल में ही प्रसिद्ध हो चुका था। दाभाड़े परिवार ने मूलरूप से गुजरात पर अधिकार कर रखा था, परन्तु पुश्तैनी सेनापति के पतन के बाद उसके पहले के पुराने अधीन रहने वाले गायकवाड़ों ने बड़ौदा में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। ग्वालियर के सिंधिया वंश के संस्थापक रणोजी सिंधिया ने बाजीराब प्रथम के अधीन गौरव के साथ सेवा की तथा मालवा के मराठा राज्य में मिलाये जाने के बाद इस प्रान्त का एक भाग उसके हिस्से में पड़ा। इन्दौर परिवार के मल्हारराव व होल्कर ने भी बाजीराव प्रथम के अधीन विशिष्ट रूप से सेवा की तथा मालवा का एक भाग प्राप्त किया। मालवा में एक छोटी जागीर पवारों को मिली, जिन्होंने धार में अपनी राजधानी बनाई।


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