"कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य" के अवतरणों में अंतर

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*[[चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य|चंद्रगुप्त द्वितीय]] की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त राजगद्दी पर बैठा।
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'''कुमारगुप्त प्रथम''' (414-455 ई.) गुप्तवंशीय सम्राट था। पिता [[चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य|चंद्रगुप्त द्वितीय]] की मृत्यु के बाद वह राजगद्दी पर बैठा था। वह पट्टमहादेवी [[ध्रुवदेवी]] का पुत्र था। उसके शासन काल में विशाल [[गुप्त साम्राज्य]] अक्षुण रूप से क़ायम रहा। [[बल्ख]] से [[बंगाल की खाड़ी]] तक उसका अबाधित शासन था। सब राजा, सामन्त, गणराज्य और प्रत्यंतवर्ती जनपद कुमारगुप्त के वशवर्ती थे। [[गुप्त वंश]] की शक्ति उसके शासन काल में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। कुमारगुप्त को विद्रोही राजाओं को वश में लाने के लिए कोई युद्ध नहीं करने पड़े।
*यह पट्टमहादेवी [[ध्रुवदेवी]] का पुत्र था।  
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*इसके शासन काल में विशाल [[गुप्त साम्राज्य]] अक्षुण्ण रूप से क़ायम रहा।  
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==अभिलेख==
*[[बल्ख]] से [[बंगाल की खाड़ी]] तक इसका अबाधित शासन था।  
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कुमारगुप्त प्रथम के समय के लगभग 16 [[अभिलेख]] और बड़ी मात्रा में [[स्वर्ण]] के सिक्के प्राप्त हुए हैं। उनसे उसके अनेक विरुदों, यथा- 'परमदैवत', 'परमभट्टारक', 'महाराजाधिराज', 'अश्वमेघमहेंद्र', 'महेंद्रादित्य', 'श्रीमहेंद्र', 'महेंद्रसिंह' आदि की जानकारी मिलती है। इसमें से कुछ तो वंश के परंपरागत विरुद्ध हैं, जो उनके सम्राट पद के बोधक हैं। कुछ उसकी नई विजयों के द्योतक जान पड़ते हैं। सिक्कों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त प्रथम ने दो [[अश्वमेघ यज्ञ]] किए थे। उसके अभिलेखों और सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से उसके विस्तृत साम्राज्य का ज्ञान होता है। वे पूर्व में उत्तर-पश्चिम बंगाल से लेकर पश्चिम में भावनगर, [[अहमदाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]] और [[बिहार]] में उनकी संख्या अधिक है। उसके अभिलेखों से साम्राज्य के प्रशासन और प्रांतीय उपरिकों<ref>गवर्नरों</ref> का भी ज्ञान होता है।<ref>{{cite web |url= http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A5%E0%A4%AE|title= कुमारगुप्त प्रथम|accessmonthday= 13 फरवरी|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारतखोज|language= हिन्दी}}</ref>
*सब राजा, सामन्त, गणराज्य और प्रत्यंतवर्ती जनपद कुमारगुप्त के वशवर्ती थे।  
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==राज्य पर आक्रमण==
*गुप्त वंश की शक्ति इस समय अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। कुमारगुप्त को विद्रोही राजाओं को वश में लाने के लिए कोई युद्ध नहीं करने पड़े।  
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*उसके शासन काल में विशाल गुप्त साम्राज्य में सर्वत्र शान्ति विराजती थी। इसीलिए विद्या, धन, कला आदि की समृद्धि की दृष्टि से यह काल वस्तुतः भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' था।
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====सुख-समृद्धि का युग====
*अपने पिता और पितामह का अनुकरण करते हुए कुमारगुप्त ने भी [[अश्वमेध यज्ञ]] किया। उसने यह अश्वमेध किसी नई विजय यात्रा के उपलक्ष्य में नहीं किया था। कोई सामन्त या राजा उसके विरुद्ध शक्ति दिखाने का साहस तो नहीं करता, यही देखने के लिए यज्ञीय अश्व छोड़ा गया था, जिसे रोकने का साहस किसी राजशक्ति ने नहीं किया था।
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कुमारगुप्त का शासन काल [[भारतवर्ष]] में सुख और समृद्धि का युग था। वह स्वयं धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु और उदार शासक था। उसके अभिलेखों में पौराणिक [[हिन्दू धर्म]] के अनेक संप्रदायों के देवी-देवताओं के नामोल्लेख और स्मरण तो हैं ही, [[बुद्ध]] की भी स्मृति चर्चा है। उसके उदयगिरि के [[अभिलेख]] में पार्श्वनाथ के मूर्ति निर्मांण का भी वर्णन है। यदि [[ह्वेनत्सांग]] का 'शक्रादित्य' कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य ही हो, तो हम उसे '[[नालन्दा विश्वविद्यालय]]' का संस्थापक भी कह सकते हैं।
*कुमारगुप्त ने कुल चालीस वर्ष तक राज्य किया।
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==निधन==
*उसके राज्यकाल के अन्तिम भाग में मध्य भारत की [[नर्मदा नदी]] के समीप 'पुष्यमित्र' नाम की एक जाति ने गुप्त साम्राज्य की शक्ति के विरुद्ध एक भयंकर विद्रोह खड़ा किया।
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455 ई. में कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु हुई।
*ये पुष्यमित्र लोग कौन थे, इस विषय में बहुत विवाद हैं, पर यह एक प्राचीन जाति थी, जिसका उल्लेख [[पुराण|पुराणों]] में भी आया है।  
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*पुष्यमित्रों को कुमार स्कन्दगुप्त ने परास्त किया।
 
 
 
 
 
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कुमारगुप्त प्रथम (414-455 ई.) गुप्तवंशीय सम्राट था। पिता चंद्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के बाद वह राजगद्दी पर बैठा था। वह पट्टमहादेवी ध्रुवदेवी का पुत्र था। उसके शासन काल में विशाल गुप्त साम्राज्य अक्षुण रूप से क़ायम रहा। बल्ख से बंगाल की खाड़ी तक उसका अबाधित शासन था। सब राजा, सामन्त, गणराज्य और प्रत्यंतवर्ती जनपद कुमारगुप्त के वशवर्ती थे। गुप्त वंश की शक्ति उसके शासन काल में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। कुमारगुप्त को विद्रोही राजाओं को वश में लाने के लिए कोई युद्ध नहीं करने पड़े।

अभिलेख

कुमारगुप्त प्रथम के समय के लगभग 16 अभिलेख और बड़ी मात्रा में स्वर्ण के सिक्के प्राप्त हुए हैं। उनसे उसके अनेक विरुदों, यथा- 'परमदैवत', 'परमभट्टारक', 'महाराजाधिराज', 'अश्वमेघमहेंद्र', 'महेंद्रादित्य', 'श्रीमहेंद्र', 'महेंद्रसिंह' आदि की जानकारी मिलती है। इसमें से कुछ तो वंश के परंपरागत विरुद्ध हैं, जो उनके सम्राट पद के बोधक हैं। कुछ उसकी नई विजयों के द्योतक जान पड़ते हैं। सिक्कों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त प्रथम ने दो अश्वमेघ यज्ञ किए थे। उसके अभिलेखों और सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से उसके विस्तृत साम्राज्य का ज्ञान होता है। वे पूर्व में उत्तर-पश्चिम बंगाल से लेकर पश्चिम में भावनगर, अहमदाबाद, उत्तर प्रदेश और बिहार में उनकी संख्या अधिक है। उसके अभिलेखों से साम्राज्य के प्रशासन और प्रांतीय उपरिकों[1] का भी ज्ञान होता है।[2]

राज्य पर आक्रमण

कुमारगुप्त के अंतिम दिनों में साम्राज्य को हिला देने वाले दो आक्रमण हुए थे। पहला आक्रमण कदाचित्‌ नर्मदा नदी और विध्यांचल पर्वतवर्ती आधुनिक मध्य प्रदेशीय क्षेत्रों में बसने वाली पुष्यमित्र नाम की किसी जाति का था। उनके आक्रमण ने गुप्त वंश की लक्ष्मी को विचलित कर दिया था; किंतु राजकुमार स्कंदगुप्त आक्रमणकारियों को मार गिराने में सफल हुआ। दूसरा आक्रमण हूणों का था, जो संभवत उसके जीवन के अंतिम वर्ष में हुआ था। हूणों ने गंधार पर क़ब्ज़ा कर गंगा की ओर बढ़ना प्रारंभ कर दिया था। स्कंदगुप्त ने उन्हें[3] पीछे ढकेल दिया।

सुख-समृद्धि का युग

कुमारगुप्त का शासन काल भारतवर्ष में सुख और समृद्धि का युग था। वह स्वयं धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु और उदार शासक था। उसके अभिलेखों में पौराणिक हिन्दू धर्म के अनेक संप्रदायों के देवी-देवताओं के नामोल्लेख और स्मरण तो हैं ही, बुद्ध की भी स्मृति चर्चा है। उसके उदयगिरि के अभिलेख में पार्श्वनाथ के मूर्ति निर्मांण का भी वर्णन है। यदि ह्वेनत्सांग का 'शक्रादित्य' कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य ही हो, तो हम उसे 'नालन्दा विश्वविद्यालय' का संस्थापक भी कह सकते हैं।

निधन

455 ई. में कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु हुई।

 

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गवर्नरों
  2. कुमारगुप्त प्रथम (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 13 फरवरी, 2015।
  3. म्लेच्छों को

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