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+ | *अमोघवर्ष को पूर्वी चालुक्यों एवं [[गंग वंश|गंगो]] से लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी। | ||
+ | *वह योग्य शासक होने के साथ-साथ जिनसेन '[[आदि पुराण|आदिपुराण]]' के रचनाकार, महावीरचार्य 'गणितसार-संग्रह' के रचनाकार एवं सक्तायाना के रचनाकार जैसे विद्धानों का 'अमोघवर्ष' आश्रयदाता भी था। | ||
+ | *अमोघवर्ष धार्मिक और विद्याव्यसनी था उसने स्वयं ही [[कन्नड़]] के प्रसिद्ध ग्रंथ '"कविराज मार्ग"' और '"प्रश्नोत्तरमालिका'" की रचना की। | ||
+ | *अमोघवर्ष ने ही '[[मान्यखेट]]' को राष्ट्रकूट की राजधानी बनाया। | ||
+ | *तत्कालीन अरब यात्री [[सुलेमान]] ने अमोघवर्ष की गणना विश्व के तत्कालीन चार महान शासकों में की थी। | ||
+ | *वह [[जैन]] मतावलम्बी होते हुए भी [[हिन्दू]] देवी देवताओं का सम्मान करता था, जैनाचार्य के उपदेश से उसकी प्रवृत्ति जैन हो गई थी। | ||
+ | *अमोघवर्ष [[महालक्ष्मी]] का अनन्त भक्त था। | ||
+ | *उसके संजन ताम्रपत्र से समकालीन भारतीय राजनीति पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है, यद्यपि उसमें स्वयं उसकी विजयों का वर्णन अतिरंजित है। वास्तव में अमोघवर्ष के युद्ध प्राय: उसके विपरीत ही गए थे। तथा उसके इस अभिलेख से यह भी पता चलता है कि उसने एक अवसर पर देवी को अपने बाएं हाथ की उंगली चढ़ा दी थी। उसकी तुलना [[शिव]], [[दधीचि]] जैसे पौराणिक व्यक्तियों से की जाती है। | ||
*[[राष्ट्रकूट साम्राज्य]] में उसके विरोधियों की भी कमी नहीं थी। इस स्थिति से लाभ उठाकर न केवल अनेक अधीनस्थ राजाओं ने स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, अपितु विविध राष्ट्रकूट सामन्तों और राजपुरुषों ने भी उसके विरुद्ध षड़यंत्र आरम्भ कर दिए। | *[[राष्ट्रकूट साम्राज्य]] में उसके विरोधियों की भी कमी नहीं थी। इस स्थिति से लाभ उठाकर न केवल अनेक अधीनस्थ राजाओं ने स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, अपितु विविध राष्ट्रकूट सामन्तों और राजपुरुषों ने भी उसके विरुद्ध षड़यंत्र आरम्भ कर दिए। | ||
*अमोघवर्ष का मंत्री करकराज था। अपने सामन्तों के षड़यंत्रों के कारण कुछ समय के लिए अमोघवर्ष को राजसिंहासन से भी हाथ धोना पड़ा। पर करकराज की सहायता से उसने राजपद पुनः प्राप्त किया। | *अमोघवर्ष का मंत्री करकराज था। अपने सामन्तों के षड़यंत्रों के कारण कुछ समय के लिए अमोघवर्ष को राजसिंहासन से भी हाथ धोना पड़ा। पर करकराज की सहायता से उसने राजपद पुनः प्राप्त किया। | ||
− | *आंतरिक अव्यवस्था के कारण अमोघवर्ष राष्ट्रकूट साम्राज्य को अक्षुण्ण रख सकने में असमर्थ रहा, और चालुक्यों ने राष्ट्रकूटों की निर्बलता से लाभ उठाकर एक बार फिर अपने उत्कर्ष के लिए प्रयत्न किया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली। | + | *आंतरिक अव्यवस्था के कारण अमोघवर्ष [[राष्ट्रकूट साम्राज्य]] को अक्षुण्ण रख सकने में असमर्थ रहा, और [[चालुक्य|चालुक्यों]] ने राष्ट्रकूटों की निर्बलता से लाभ उठाकर एक बार फिर अपने उत्कर्ष के लिए प्रयत्न किया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली। |
*अमोघवर्ष के शासन काल में ही [[कन्नौज]] के [[गुर्जर प्रतिहार वंश|गुर्जर प्रतिहार]] राजा मिहिरभोज ने अपने विशाल साम्राज्य का निर्माण किया, और उत्तरी भारत से राष्ट्रकूटों के शासन का अन्त कर दिया। | *अमोघवर्ष के शासन काल में ही [[कन्नौज]] के [[गुर्जर प्रतिहार वंश|गुर्जर प्रतिहार]] राजा मिहिरभोज ने अपने विशाल साम्राज्य का निर्माण किया, और उत्तरी भारत से राष्ट्रकूटों के शासन का अन्त कर दिया। | ||
− | *गुर्जर प्रतिहार लोग किस प्रकार कन्नौज के स्वामी बने, और उन्होंने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। | + | *गुर्जर प्रतिहार लोग किस प्रकार [[कन्नौज]] के स्वामी बने, और उन्होंने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। |
*यह सर्वथा स्पष्ट है, कि अमोघवर्ष के समय में राष्ट्रकूट साम्राज्य का अपकर्ष प्रारम्भ हो गया था। | *यह सर्वथा स्पष्ट है, कि अमोघवर्ष के समय में राष्ट्रकूट साम्राज्य का अपकर्ष प्रारम्भ हो गया था। | ||
*अमोघवर्ष ने 814 से 878 ई. तक शासन किया। | *अमोघवर्ष ने 814 से 878 ई. तक शासन किया। | ||
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12:10, 7 जून 2018 के समय का अवतरण
अमोघवर्ष एक राष्ट्रकूट राजा था जो स. 814 ई. मेंगोविन्द तृतीय की मृत्यु हो जाने पर मान्यखेट के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ और इसने सम्भवतः 64 साल तक राज किया। यह गोविंद तृतीय का पुत्र था। अमोघवर्ष के किशोर होने के कारण पिता ने मृत्यु के समय करकराज को शासन का कार्य सँभालने के लिये सहायक नियुक्त किया किंतु मंत्री और सामंत धीरे-धीरे विद्रोही और असहिष्णु होते गए। साम्राज्य का गंगवाडी प्रांत स्वतंत्र हो गया और वेंगी के चालुक्यराज विजयादित्य द्वितीय ने आक्रमण कर अमोघवर्ष को गद्दी से उतार तक दिया। परंतु अमोघवर्ष भी साहस छोड़नेवाला व्यक्ति न था और करकराज की सहायता से उसने राष्ट्रकूटों का सिंहासन फिर स्वायत्त कर लिया किंतु इससे राष्ट्रकूटों की शक्ति फिर भी लौटी नहीं और उन्हें बार-बार चोट खानी पड़ी।
- अमोघवर्ष को पूर्वी चालुक्यों एवं गंगो से लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी।
- वह योग्य शासक होने के साथ-साथ जिनसेन 'आदिपुराण' के रचनाकार, महावीरचार्य 'गणितसार-संग्रह' के रचनाकार एवं सक्तायाना के रचनाकार जैसे विद्धानों का 'अमोघवर्ष' आश्रयदाता भी था।
- अमोघवर्ष धार्मिक और विद्याव्यसनी था उसने स्वयं ही कन्नड़ के प्रसिद्ध ग्रंथ '"कविराज मार्ग"' और '"प्रश्नोत्तरमालिका'" की रचना की।
- अमोघवर्ष ने ही 'मान्यखेट' को राष्ट्रकूट की राजधानी बनाया।
- तत्कालीन अरब यात्री सुलेमान ने अमोघवर्ष की गणना विश्व के तत्कालीन चार महान शासकों में की थी।
- वह जैन मतावलम्बी होते हुए भी हिन्दू देवी देवताओं का सम्मान करता था, जैनाचार्य के उपदेश से उसकी प्रवृत्ति जैन हो गई थी।
- अमोघवर्ष महालक्ष्मी का अनन्त भक्त था।
- उसके संजन ताम्रपत्र से समकालीन भारतीय राजनीति पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है, यद्यपि उसमें स्वयं उसकी विजयों का वर्णन अतिरंजित है। वास्तव में अमोघवर्ष के युद्ध प्राय: उसके विपरीत ही गए थे। तथा उसके इस अभिलेख से यह भी पता चलता है कि उसने एक अवसर पर देवी को अपने बाएं हाथ की उंगली चढ़ा दी थी। उसकी तुलना शिव, दधीचि जैसे पौराणिक व्यक्तियों से की जाती है।
- राष्ट्रकूट साम्राज्य में उसके विरोधियों की भी कमी नहीं थी। इस स्थिति से लाभ उठाकर न केवल अनेक अधीनस्थ राजाओं ने स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, अपितु विविध राष्ट्रकूट सामन्तों और राजपुरुषों ने भी उसके विरुद्ध षड़यंत्र आरम्भ कर दिए।
- अमोघवर्ष का मंत्री करकराज था। अपने सामन्तों के षड़यंत्रों के कारण कुछ समय के लिए अमोघवर्ष को राजसिंहासन से भी हाथ धोना पड़ा। पर करकराज की सहायता से उसने राजपद पुनः प्राप्त किया।
- आंतरिक अव्यवस्था के कारण अमोघवर्ष राष्ट्रकूट साम्राज्य को अक्षुण्ण रख सकने में असमर्थ रहा, और चालुक्यों ने राष्ट्रकूटों की निर्बलता से लाभ उठाकर एक बार फिर अपने उत्कर्ष के लिए प्रयत्न किया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली।
- अमोघवर्ष के शासन काल में ही कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार राजा मिहिरभोज ने अपने विशाल साम्राज्य का निर्माण किया, और उत्तरी भारत से राष्ट्रकूटों के शासन का अन्त कर दिया।
- गुर्जर प्रतिहार लोग किस प्रकार कन्नौज के स्वामी बने, और उन्होंने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की।
- यह सर्वथा स्पष्ट है, कि अमोघवर्ष के समय में राष्ट्रकूट साम्राज्य का अपकर्ष प्रारम्भ हो गया था।
- अमोघवर्ष ने 814 से 878 ई. तक शासन किया।
- अपने अंतिम दिनों में राजकार्य मंत्रियों और युवराज पर छोड़ वह विरक्त रहने लगा था तथा संभवतः उसकी मृत्यु 878 ई. में हुई।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 208 |