"अनमोल वचन 13" के अवतरणों में अंतर
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* उपदेश की अपेक्षा कहीं अधिक हम अनुकरण से सीखते हैं। ~ बर्क | * उपदेश की अपेक्षा कहीं अधिक हम अनुकरण से सीखते हैं। ~ बर्क | ||
* यदि तुम भलाई का अनुकरण परिश्रम के साथ करो तो परिश्रम समाप्त हो जाता है और भलाई बनी रहती है, यदि तुम बुराई का अनुकरण सुख के साथ करो तो सुख चला जाता है और बुराई बनी रहती है। ~ सिसरो | * यदि तुम भलाई का अनुकरण परिश्रम के साथ करो तो परिश्रम समाप्त हो जाता है और भलाई बनी रहती है, यदि तुम बुराई का अनुकरण सुख के साथ करो तो सुख चला जाता है और बुराई बनी रहती है। ~ सिसरो | ||
− | * कोई व्यक्ति नकल से अभी तक | + | * कोई व्यक्ति नकल से अभी तक महान् नहीं हुआ है। ~ जॉनसन |
* अनुभव प्राप्ति के लिए अत्यंत अधिक मूल्य चुकाना पड़ता है परंतु इससे जो शिक्षा मिलती हैै वह अन्य किसी साधन द्वारा नहीं मिल सकती। ~ कार्लाइल | * अनुभव प्राप्ति के लिए अत्यंत अधिक मूल्य चुकाना पड़ता है परंतु इससे जो शिक्षा मिलती हैै वह अन्य किसी साधन द्वारा नहीं मिल सकती। ~ कार्लाइल | ||
* अनुभव एक रत्न है और इसे ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि यह प्राय: अत्यधिक मूल्य में ख़रीदा जाता है। ~ शेक्सपि यर | * अनुभव एक रत्न है और इसे ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि यह प्राय: अत्यधिक मूल्य में ख़रीदा जाता है। ~ शेक्सपि यर | ||
पंक्ति 114: | पंक्ति 114: | ||
* विद्या के लिए मोमबत्ती की तरह पिघलना चाहिए। ~ अज्ञात | * विद्या के लिए मोमबत्ती की तरह पिघलना चाहिए। ~ अज्ञात | ||
* सज्जन अपना नाम नहीं लेते, श्रेष्ठ लोगों की यही आचार परंपरा है। ~ श्रीहर्ष | * सज्जन अपना नाम नहीं लेते, श्रेष्ठ लोगों की यही आचार परंपरा है। ~ श्रीहर्ष | ||
− | * वही मनुष्य | + | * वही मनुष्य महान् है जो भीड़ की प्रशंसा की उपेक्षा कर सकता है और उसकी कृपा से स्वतंत्र रहकर प्रसन्न रहता है। ~ एडीसन |
* हिम्मत से रहित व्यक्ति का रद्दी के काग़ज़ की तरह कोई आदर नहीं करता। ~ कृपाराम | * हिम्मत से रहित व्यक्ति का रद्दी के काग़ज़ की तरह कोई आदर नहीं करता। ~ कृपाराम | ||
पंक्ति 142: | पंक्ति 142: | ||
* विचारपूर्वक किया गया श्रम उच्च से उच्च प्रकार की समाजसेवा है। ~ महात्मा गांधी | * विचारपूर्वक किया गया श्रम उच्च से उच्च प्रकार की समाजसेवा है। ~ महात्मा गांधी | ||
* दूसरों को दु:ख दिए बिना, दुष्टों की विनय किए बिना और सज्जनों के मार्ग का त्याग किए बिना अत्यल्प जो कुछ भी है, वही बहुत है। ~ अज्ञात | * दूसरों को दु:ख दिए बिना, दुष्टों की विनय किए बिना और सज्जनों के मार्ग का त्याग किए बिना अत्यल्प जो कुछ भी है, वही बहुत है। ~ अज्ञात | ||
− | * किसी | + | * किसी महान् कार्य को करने के प्रसंग में शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए। ~ भागवत |
* विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। ~ बाण | * विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। ~ बाण | ||
===महान वह है, जो ग़लत रास्ते से लौट सके=== | ===महान वह है, जो ग़लत रास्ते से लौट सके=== | ||
− | * जो प्रकृति से ही | + | * जो प्रकृति से ही महान् हैं उनके स्वाभाविक तेज को किसी (शारीरिक)ओज-प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती। ~ चाणक्य |
− | * संपत्ति और विपत्ति में एक समान आचरण करनेवाले ही | + | * संपत्ति और विपत्ति में एक समान आचरण करनेवाले ही महान् कहलाते हैं। ~ विष्णु शर्मा |
− | * विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत | + | * विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत महान् और विशाल है। वैसे ही महापुरुष को किसी की निंदा दूषित नहीं कर सकती। ~ इत्तिवृत्तक |
− | * मैं | + | * मैं महान् उसको मानता हूं जो स्वत: अपना मार्ग बनाते हैं, परंतु कहीं मिथ्या मार्ग पर चल पड़ें तो लौट आने का साहस और बुद्धि भी रखते हैं। ~ गुरुदत्त |
===महानता जिस क्षुद्रता में पलती है=== | ===महानता जिस क्षुद्रता में पलती है=== | ||
पंक्ति 155: | पंक्ति 155: | ||
* महानता जिस क्षुद्रता में पलती है, वह क्षुद्रता कभी महानता को समझती नहीं। ~ रांगेय राघव | * महानता जिस क्षुद्रता में पलती है, वह क्षुद्रता कभी महानता को समझती नहीं। ~ रांगेय राघव | ||
* यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं, तथापि मनुष्य को अपना काम करना ही चाहिए। ~ अपभ्रंश से | * यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं, तथापि मनुष्य को अपना काम करना ही चाहिए। ~ अपभ्रंश से | ||
− | * ठीक समय पर किया हुआ थोड़ा-सा काम भी बहुत उपकारी है और समय बीतने पर किया हुआ | + | * ठीक समय पर किया हुआ थोड़ा-सा काम भी बहुत उपकारी है और समय बीतने पर किया हुआ महान् उपकार भी व्यर्थ हो जाता है। ~ योगवशिष्ठ |
===मेहनती भाग्य को भी परास्त कर देते हैं=== | ===मेहनती भाग्य को भी परास्त कर देते हैं=== | ||
पंक्ति 231: | पंक्ति 231: | ||
===मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है=== | ===मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है=== | ||
* प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी | * प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी | ||
− | * वही अच्छी प्रार्थना करता है जो | + | * वही अच्छी प्रार्थना करता है जो महान् और क्षुद्र सभी जीवों से सर्वोत्तम प्रेम करता है, क्योंकि हमसे प्रेम करनेवाले ने ही उन सबको बनाया है और वह उनसे प्रेम करता है। ~ कालरिज |
* जो जिसका प्रिय व्यक्ति है, वह उसका कोई विलक्षण धन है। प्रिय व्यक्ति कुछ न करता हुआ भी सामीप्यादि दुखों को दूर कर देता है। ~ भवभूति | * जो जिसका प्रिय व्यक्ति है, वह उसका कोई विलक्षण धन है। प्रिय व्यक्ति कुछ न करता हुआ भी सामीप्यादि दुखों को दूर कर देता है। ~ भवभूति | ||
* मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास | * मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास | ||
पंक्ति 304: | पंक्ति 304: | ||
* राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास | * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास | ||
* विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | ||
− | * वह विजय | + | * वह विजय महान् होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति |
===राजलक्ष्मी तो चंचल होती है=== | ===राजलक्ष्मी तो चंचल होती है=== | ||
पंक्ति 345: | पंक्ति 345: | ||
==ल== | ==ल== | ||
===लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता है=== | ===लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता है=== | ||
− | * मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है, किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो | + | * मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है, किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो महान् अनर्थ का कारण बन जाती है। ~ वेदव्यास |
* आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। ~ तुर्की लोकोक्ति | * आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। ~ तुर्की लोकोक्ति | ||
* वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। ~ डिजरायली | * वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। ~ डिजरायली | ||
पंक्ति 494: | पंक्ति 494: | ||
* मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान | * मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान | ||
* अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए, तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित | * अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए, तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित | ||
− | * संपन्नता | + | * संपन्नता महान् शिक्षक है पर विपत्ति महानतर शिक्षक है। संपत्ति मन को लाड़ से बिगाड़ देती है, किंतु अभाव उसे प्रशिक्षित कर शक्तिशाली बनाता है। ~ हैजलिट |
* विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करनेवाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | * विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करनेवाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | ||
पंक्ति 508: | पंक्ति 508: | ||
* वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं, क्योंकि हृदयाकाश के केंद्र में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | * वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं, क्योंकि हृदयाकाश के केंद्र में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | ||
* वरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवा नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं। ~ प्रेमचंद्र | * वरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवा नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं। ~ प्रेमचंद्र | ||
− | * जो | + | * जो महान् है वह महान् पर ही वीरता दिखाता है। ~ नारायण पंडित |
* बिना विवेक की वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * बिना विवेक की वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
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* हमारी शिक्षा तब तक अधूरी रहेगी जब तक उसमें धार्मिक विचारों का समावेश नहीं किया जाता। ~ अज्ञात | * हमारी शिक्षा तब तक अधूरी रहेगी जब तक उसमें धार्मिक विचारों का समावेश नहीं किया जाता। ~ अज्ञात | ||
− | ===वह विजय | + | ===वह विजय महान् होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है=== |
* मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | * मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | ||
− | * वह विजय | + | * वह विजय महान् होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति |
* अमृत और मृत्यु- दोनों ही इस शरीर में स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है। ~ वेदव्यास | * अमृत और मृत्यु- दोनों ही इस शरीर में स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है। ~ वेदव्यास | ||
* वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | ||
पंक्ति 563: | पंक्ति 563: | ||
* मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम | * मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम | ||
* जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि करता है, वह पशुओं से भी गया-बीता है। ~ दयानंद | * जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि करता है, वह पशुओं से भी गया-बीता है। ~ दयानंद | ||
− | * बल तथा कोश से संपन्न | + | * बल तथा कोश से संपन्न महान् व्यक्तियों का महत्व ही क्या यदि उन्होंने दूसरों के कष्ट का उसी क्षण विनाश नहीं किया। ~ सोमदेव |
* उपकार करने का साहसी स्वभाव होने के कारण गुणी लोग अपनी हानि की भी चिंता नहीं करते। दीपक की लौ अपना अंग जलाकर ही प्रकाश उत्पन्न करती है। ~ अज्ञात | * उपकार करने का साहसी स्वभाव होने के कारण गुणी लोग अपनी हानि की भी चिंता नहीं करते। दीपक की लौ अपना अंग जलाकर ही प्रकाश उत्पन्न करती है। ~ अज्ञात | ||
पंक्ति 637: | पंक्ति 637: | ||
===वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं=== | ===वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं=== | ||
* वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं। वह यथार्थ के दर्शन चाहता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | * वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं। वह यथार्थ के दर्शन चाहता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | ||
− | * राजा अपने राज्य का प्रथम सेवक होता है। ~ फ्रेडरिक | + | * राजा अपने राज्य का प्रथम सेवक होता है। ~ फ्रेडरिक महान् |
* व्यक्ति के अंतर्मन को परखना चाहिए। ~ दशवैकालिक | * व्यक्ति के अंतर्मन को परखना चाहिए। ~ दशवैकालिक | ||
* शरीर और मन साथ ही साथ उन्नत होने चाहिए। ~ विवेकानंद | * शरीर और मन साथ ही साथ उन्नत होने चाहिए। ~ विवेकानंद |
14:03, 30 जून 2017 का अवतरण
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इन्हें भी देखें: अनमोल वचन 1, अनमोल वचन 2, अनमोल वचन 3, अनमोल वचन 4, अनमोल वचन 5, अनमोल वचन 6, अनमोल वचन 7, अनमोल वचन 8, अनमोल वचन 9, कहावत लोकोक्ति मुहावरे एवं सूक्ति और कहावत
अनमोल वचन |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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