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===अन्तर्दृष्टि=== | ===अन्तर्दृष्टि=== | ||
* हाथ की शोभा दान से है। सिर की शोभा अपने से बड़ो को प्रणाम करने से है। मुख की शोभा सच बोलने से है। दोनों भुजाओं की शोभा युद्ध में वीरता दिखाने से है। हृदय की शोभा स्वच्छता से है। कान की शोभा शास्त्र के सुनने से है। यही ठाट बाट न होने पर भी सज्जनों के भूषण हैं। ~ चाणक्य | * हाथ की शोभा दान से है। सिर की शोभा अपने से बड़ो को प्रणाम करने से है। मुख की शोभा सच बोलने से है। दोनों भुजाओं की शोभा युद्ध में वीरता दिखाने से है। हृदय की शोभा स्वच्छता से है। कान की शोभा शास्त्र के सुनने से है। यही ठाट बाट न होने पर भी सज्जनों के भूषण हैं। ~ चाणक्य | ||
− | * संकट के समय धैर्य, अभ्युदय के समय क्षमा | + | * संकट के समय धैर्य, अभ्युदय के समय क्षमा अर्थात् सब सहन करने की सामर्थ्य, सभा में अच्छा बोलना और युद्ध में वीरता शोभा देती है। ~ भतृहरि |
* किसी मनुष्य में जन साधारण से विशेष गुण या शक्ति का विकास देखकर उसके संबंध में जो एक स्थायी आनंद पद्बति हृदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा कहते हैं। ~ रामचंद्र शुक्ल | * किसी मनुष्य में जन साधारण से विशेष गुण या शक्ति का विकास देखकर उसके संबंध में जो एक स्थायी आनंद पद्बति हृदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा कहते हैं। ~ रामचंद्र शुक्ल | ||
* शौर्य किसी में बाहर से पैदा नहीं किया जा सकता। वह तो मनुष्य के स्वभाव में होना चाहिए। ~ महात्मा गांधी | * शौर्य किसी में बाहर से पैदा नहीं किया जा सकता। वह तो मनुष्य के स्वभाव में होना चाहिए। ~ महात्मा गांधी | ||
===अधिकार में स्वयं एक आनंद है=== | ===अधिकार में स्वयं एक आनंद है=== | ||
− | * एक स्थिति ऐसी होती है जब मनुष्य को विचार प्रकट करने की आवश्यकता नहीं रहती। उसके विचार ही कर्म बन जाते हैं, वह संकल्प से कर्म कर लेता है। ऐसी स्थिति जब आती है तब मनुष्य अकर्म में कर्म देखता है, | + | * एक स्थिति ऐसी होती है जब मनुष्य को विचार प्रकट करने की आवश्यकता नहीं रहती। उसके विचार ही कर्म बन जाते हैं, वह संकल्प से कर्म कर लेता है। ऐसी स्थिति जब आती है तब मनुष्य अकर्म में कर्म देखता है, अर्थात् अकर्म से कर्म होता है। ~ महात्मा गांधी |
* शास्त्रों द्वारा नाना प्रकार के संशयों का निराकरण और परोक्ष विषयों का ज्ञान होता है। इसलिए शास्त्र सभी के नेत्ररूप हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, वह एक प्रकार से अंधा है। ~ हितोपदेश | * शास्त्रों द्वारा नाना प्रकार के संशयों का निराकरण और परोक्ष विषयों का ज्ञान होता है। इसलिए शास्त्र सभी के नेत्ररूप हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, वह एक प्रकार से अंधा है। ~ हितोपदेश | ||
* अज्ञानी होना मनुष्य का असाधारण अधिकार नहीं है, वरन् अपने को अज्ञानी जानना ही उसका विशेष अधिकार है। ~ राधाकृष्णन | * अज्ञानी होना मनुष्य का असाधारण अधिकार नहीं है, वरन् अपने को अज्ञानी जानना ही उसका विशेष अधिकार है। ~ राधाकृष्णन | ||
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* शास्त्रों द्वारा नाना प्रकार के संशयों का निराकरण और परोक्ष विषयों का ज्ञान होता है। इसलिए शास्त्र सभी के नेत्ररूप हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं, वह एक प्रकार से अंधा है। ~ हितोपदेश | * शास्त्रों द्वारा नाना प्रकार के संशयों का निराकरण और परोक्ष विषयों का ज्ञान होता है। इसलिए शास्त्र सभी के नेत्ररूप हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं, वह एक प्रकार से अंधा है। ~ हितोपदेश | ||
* मनुष्य का अंत:करण उसके आकार, संकेत, गति, चेहरे की बनावट, बोलचाल तथा आंख और मुख के विकारों से मालूम पड़ जाता है। ~ पंचतंत्र | * मनुष्य का अंत:करण उसके आकार, संकेत, गति, चेहरे की बनावट, बोलचाल तथा आंख और मुख के विकारों से मालूम पड़ जाता है। ~ पंचतंत्र | ||
− | * अज्ञानी होना मनुष्य का असाधारण अधिकार नहीं है, | + | * अज्ञानी होना मनुष्य का असाधारण अधिकार नहीं है, वरन् अपने को अज्ञानी जानना ही उसका विशेष अधिकार है। ~ राधाकृष्णन |
* अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींचकर महाप्राण शक्तियां बनाते हैं। ~ महर्षि अरविन्द | * अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींचकर महाप्राण शक्तियां बनाते हैं। ~ महर्षि अरविन्द | ||
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* अवसर के अनुकूल आचरण हमें कहीं का कहीं पहुंचा देता है। ~ चेखव | * अवसर के अनुकूल आचरण हमें कहीं का कहीं पहुंचा देता है। ~ चेखव | ||
− | ===अभ्यास के लिए अभिलाषा | + | ===अभ्यास के लिए अभिलाषा ज़रूरी=== |
* ऐसी कोई वस्तु नहीं जो अभ्यास से प्राप्त न की जा सकती हो। कोई अभ्यास के बल पर आकाश में गति पा लेते हैं। कोई बाघ और सांपों को काबू कर लेते हैं। कोई तो अभ्यास से शब्द ब्रह्मा को मात दे देते हैं। ~ संत ज्ञानेश्वर | * ऐसी कोई वस्तु नहीं जो अभ्यास से प्राप्त न की जा सकती हो। कोई अभ्यास के बल पर आकाश में गति पा लेते हैं। कोई बाघ और सांपों को काबू कर लेते हैं। कोई तो अभ्यास से शब्द ब्रह्मा को मात दे देते हैं। ~ संत ज्ञानेश्वर | ||
* अभ्यास करते करते जड़मति भी सुजान हो जाता है। रस्सी पर बार बार आने-जाने से पत्थर पर भी निशान बन जाता है। ~ वृंद | * अभ्यास करते करते जड़मति भी सुजान हो जाता है। रस्सी पर बार बार आने-जाने से पत्थर पर भी निशान बन जाता है। ~ वृंद | ||
− | * अभ्यास के लिए अभिलाषा | + | * अभ्यास के लिए अभिलाषा ज़रूरी है। जिस अभिलाषा में शक्ति नहीं, उसकी पूर्ति असंभव है। ~ गुलाब रत्न वाजपेयी |
* जीवन में कोई भी कार्य कठिन नहीं होता। मन से अभ्यास करने से हर कार्य संभव हो जाता है। ~ अज्ञात | * जीवन में कोई भी कार्य कठिन नहीं होता। मन से अभ्यास करने से हर कार्य संभव हो जाता है। ~ अज्ञात | ||
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* बड़ा काम करने के लिए बड़ा हृदय होना चाहिए। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | * बड़ा काम करने के लिए बड़ा हृदय होना चाहिए। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | ||
* महान् लोग खेल में भी ऐसा शब्द नहीं कहते, जिससे चैतन्यशील उपदेश न लें। ~ शेख सादी | * महान् लोग खेल में भी ऐसा शब्द नहीं कहते, जिससे चैतन्यशील उपदेश न लें। ~ शेख सादी | ||
− | * शिक्षित व्यक्ति यदि चरित्रहीन हो, तब क्या उसे | + | * शिक्षित व्यक्ति यदि चरित्रहीन हो, तब क्या उसे विद्वान् कहेंगे? कभी नहीं। ~ सुभाषचंद बोस |
===असली शिक्षा=== | ===असली शिक्षा=== | ||
पंक्ति 284: | पंक्ति 284: | ||
* जो मनुष्य दूसरे का उपकार करता है वह अपना भी उपकार न केवल परिणाम में अपितु उसी कर्म में करता है, क्योंकि अच्छा कर्म करने का भाव ही स्वयं उचित पुरस्कार है। ~ सेनेका | * जो मनुष्य दूसरे का उपकार करता है वह अपना भी उपकार न केवल परिणाम में अपितु उसी कर्म में करता है, क्योंकि अच्छा कर्म करने का भाव ही स्वयं उचित पुरस्कार है। ~ सेनेका | ||
* प्रसन्नता न हमारे अंदर है और न बाहर बल्कि यह ईश्वर के साथ हमारी एकता स्थापित करने वाला एक तत्व है। ~ पास्कल | * प्रसन्नता न हमारे अंदर है और न बाहर बल्कि यह ईश्वर के साथ हमारी एकता स्थापित करने वाला एक तत्व है। ~ पास्कल | ||
− | * | + | * ग़रीब वह नहीं है जिसके पास धन नहीं है बल्कि वह है जिसकी अभिलाषाएं बढ़ी हुई हैं। ~ डेनियल |
===आलोचना मित्र को भी शत्रु के शिविर में भेज देती है=== | ===आलोचना मित्र को भी शत्रु के शिविर में भेज देती है=== | ||
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* निरर्थक आशा से बंधा मानव अपना हृदय सुखा डालता है और आशा की कड़ी टूटते ही वह झट से विदा हो जाता है। ~ रवीन्द्र | * निरर्थक आशा से बंधा मानव अपना हृदय सुखा डालता है और आशा की कड़ी टूटते ही वह झट से विदा हो जाता है। ~ रवीन्द्र | ||
* किसी का सहारा लिए बिना कोई ऊंचे नहीं चढ़ सकता, अत: सबको किसी प्रधान आश्रय का सहारा लेना चाहिए। ~ वेदव्यास | * किसी का सहारा लिए बिना कोई ऊंचे नहीं चढ़ सकता, अत: सबको किसी प्रधान आश्रय का सहारा लेना चाहिए। ~ वेदव्यास | ||
− | * अमीर जो | + | * अमीर जो ग़रीबों के समान नम्र हैं और ग़रीब जो कि अमीरों के समान उदार हैं, वही ईश्वर के प्रिय पात्र होते हैं। ~ शेख सादी |
===आलोचना से परे कोई भी नहीं है=== | ===आलोचना से परे कोई भी नहीं है=== | ||
पंक्ति 325: | पंक्ति 325: | ||
===आंदोलन समाज की सेहत के लक्षण=== | ===आंदोलन समाज की सेहत के लक्षण=== | ||
* हर सुधार का कुछ न कुछ विरोध अनिवार्य है। परंतु विरोध और आंदोलन, एक सीमा तक, समाज में स्वास्थ्य के लक्षण होते हैं। ~ महात्मा गांधी | * हर सुधार का कुछ न कुछ विरोध अनिवार्य है। परंतु विरोध और आंदोलन, एक सीमा तक, समाज में स्वास्थ्य के लक्षण होते हैं। ~ महात्मा गांधी | ||
− | * जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है, और न किसी चीज़ की अपेक्षा करता है, वह सदा ही | + | * जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है, और न किसी चीज़ की अपेक्षा करता है, वह सदा ही संन्यासी समझने के योग्य है। ~ वेदव्यास |
* सच्ची संस्कृति मस्तिष्क, हृदय और हाथ का अनुशासन है। ~ शिवानंद | * सच्ची संस्कृति मस्तिष्क, हृदय और हाथ का अनुशासन है। ~ शिवानंद | ||
* सच हज़ार ढंग से कहा जा सकता है, फिर भी उसका हर ढंग सच हो सकता है। ~ विवेकानंद | * सच हज़ार ढंग से कहा जा सकता है, फिर भी उसका हर ढंग सच हो सकता है। ~ विवेकानंद | ||
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* जो लक्ष्मी प्राणों के देने पर भी नहीं प्राप्त होती, वह चंचल होती हुई भी नीतिज्ञ मनुष्य के पास अपने आप दौड़ी चली आती है। ~ नारायण पंडित | * जो लक्ष्मी प्राणों के देने पर भी नहीं प्राप्त होती, वह चंचल होती हुई भी नीतिज्ञ मनुष्य के पास अपने आप दौड़ी चली आती है। ~ नारायण पंडित | ||
* जिसने विद्या पढ़ी और आचरण नहीं किया- वह उसके समान है, जिसने बैल जोता है और बीज नहीं बिखेरा है। ~ शेख सादी | * जिसने विद्या पढ़ी और आचरण नहीं किया- वह उसके समान है, जिसने बैल जोता है और बीज नहीं बिखेरा है। ~ शेख सादी | ||
− | * अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या न हो, | + | * अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या न हो, विद्वान् पुरुष उसके लिए शोक नहीं करता। ~ वेदव्यास |
* आज का कबूतर, कल के मोर से अच्छा। ~ संस्कृत लोकोक्ति | * आज का कबूतर, कल के मोर से अच्छा। ~ संस्कृत लोकोक्ति | ||
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===ईश्वर के सामने सिर झुकाने से क्या होगा=== | ===ईश्वर के सामने सिर झुकाने से क्या होगा=== | ||
* ईश्वर के सामने सिर झुकाने से क्या होगा, जब हृदय ही अशुद्ध हो। ~ गुरुनानक | * ईश्वर के सामने सिर झुकाने से क्या होगा, जब हृदय ही अशुद्ध हो। ~ गुरुनानक | ||
− | * | + | * विद्वान् झगड़े में न पड़ें। व्यर्थ के वैर से अलग रहें। थोड़ी हानि सह लें। वैर से धन की प्राप्ति हो, तो भी उसे छोड़ दें। ~ विष्णु पुराण |
* धन्य वह है जो किसी बात की आशा नहीं करता क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। ~ अलेक्जेंडर पोप | * धन्य वह है जो किसी बात की आशा नहीं करता क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। ~ अलेक्जेंडर पोप | ||
* विचारहीन लोग धर्मग्रंथों को उसी प्रकार बांचते रहते हैं, जिस प्रकार पिंजरे में तोता राम-राम की रट लगाता है। ~ लल्लेश्वरी | * विचारहीन लोग धर्मग्रंथों को उसी प्रकार बांचते रहते हैं, जिस प्रकार पिंजरे में तोता राम-राम की रट लगाता है। ~ लल्लेश्वरी | ||
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===कोई भी संस्कृति जीवित नहीं रह सकती=== | ===कोई भी संस्कृति जीवित नहीं रह सकती=== | ||
− | * कोई भी संस्कृति जीवित नहीं रह सकती यदि वह अपने को अन्य से | + | * कोई भी संस्कृति जीवित नहीं रह सकती यदि वह अपने को अन्य से पृथक् रखने का प्रयास करे। ~ महात्मा गांधी |
* संस्कृति की चाहे कोई भी परिभाषा क्यो न हो, किंतु उसे व्यक्ति, समूह अथवा राष्ट्र की सीमाओ मे बांधना मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है। ~ जवाहरलाल नेहरू | * संस्कृति की चाहे कोई भी परिभाषा क्यो न हो, किंतु उसे व्यक्ति, समूह अथवा राष्ट्र की सीमाओ मे बांधना मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है। ~ जवाहरलाल नेहरू | ||
* जो संस्कृति महान् होती है वह दूसरो की संस्कृति को भय नहीं देती, बल्कि उसे साथ लेकर पवित्रता देती है। गंगा महान् क्यो है? दूसरे प्रवाहो को अपने मे मिला लेने के कारण ही वह पवित्र रहती है। ~ साने गुरु | * जो संस्कृति महान् होती है वह दूसरो की संस्कृति को भय नहीं देती, बल्कि उसे साथ लेकर पवित्रता देती है। गंगा महान् क्यो है? दूसरे प्रवाहो को अपने मे मिला लेने के कारण ही वह पवित्र रहती है। ~ साने गुरु | ||
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* जिसकी अभिलाषाएं नहीं मरतीं, वह मरकर भी भटकते हैं। अभिलाषाओं से मुक्ति ही प्रभु में विलय है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य | * जिसकी अभिलाषाएं नहीं मरतीं, वह मरकर भी भटकते हैं। अभिलाषाओं से मुक्ति ही प्रभु में विलय है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य | ||
* जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | * जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | ||
− | * दुनिया में रहते हुए भी सेवाभाव से और सेवा के लिए जो जीता है, वह | + | * दुनिया में रहते हुए भी सेवाभाव से और सेवा के लिए जो जीता है, वह संन्यासी है। ~ महात्मा गांधी |
* सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से आग जलती है, सत्य से वायु बहती है, सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है। ~ वेदव्यास (महाभारत) | * सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से आग जलती है, सत्य से वायु बहती है, सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है। ~ वेदव्यास (महाभारत) | ||
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* लोगों के छिपे हुए ऐब ज़ाहिर मत करो। इससे उनकी इज्जत तो ज़रूर घट जाएगी पर तुम्हारा तो ऐतबार ही उठ जाएगा। ~ सादी | * लोगों के छिपे हुए ऐब ज़ाहिर मत करो। इससे उनकी इज्जत तो ज़रूर घट जाएगी पर तुम्हारा तो ऐतबार ही उठ जाएगा। ~ सादी | ||
* कमज़ोरी कभी न हटने वाला बोझ और यंत्रणा है, कमज़ोरी ही मृत्यु है। ~ विवेकानंद | * कमज़ोरी कभी न हटने वाला बोझ और यंत्रणा है, कमज़ोरी ही मृत्यु है। ~ विवेकानंद | ||
− | * फल मनुष्य के कर्म के अधीन है, बुद्धि कर्म के अनुसार आगे बढ़ने वाली है, फिर भी | + | * फल मनुष्य के कर्म के अधीन है, बुद्धि कर्म के अनुसार आगे बढ़ने वाली है, फिर भी विद्वान् और महात्मा लोग अच्छी तरह से विचार कर ही कोई कर्म करते हैं। ~ चाणक्य |
===कायर दैव का भरोसा करता है=== | ===कायर दैव का भरोसा करता है=== | ||
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* करुणा में शीतल अग्नि होती है जो क्रूर से क्रूर व्यक्ति का हृदय भी आर्द्र कर देती है। ~ सुदर्शन | * करुणा में शीतल अग्नि होती है जो क्रूर से क्रूर व्यक्ति का हृदय भी आर्द्र कर देती है। ~ सुदर्शन | ||
* कर्म वह आईना है जो हमारा स्वरूप हमें दिखा देता है। अत: हमें कर्म का एहसानमंद होना चाहिए। ~ विनोबा | * कर्म वह आईना है जो हमारा स्वरूप हमें दिखा देता है। अत: हमें कर्म का एहसानमंद होना चाहिए। ~ विनोबा | ||
− | * इस धरती पर कर्म करते-करते सौ साल तक जीने की इच्छा रखो, क्योंकि कर्म | + | * इस धरती पर कर्म करते-करते सौ साल तक जीने की इच्छा रखो, क्योंकि कर्म करने वाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्म-निष्ठा छोड़कर भोग-वृत्ति रखता है, वह मृत्यु का अधिकारी बनता है। ~ वेद |
* निष्काम कर्म ईश्वर को ऋणी बना देता है और ईश्वर उसको सूद सहित वापस करने के लिए बाध्य हो जाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | * निष्काम कर्म ईश्वर को ऋणी बना देता है और ईश्वर उसको सूद सहित वापस करने के लिए बाध्य हो जाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | ||
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* जिसकी अभिलाषाएं नहीं मरतीं, वह मरकर भी भटकते हैं। अभिलाषाओं से मुक्ति ही प्रभु में विलय है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य | * जिसकी अभिलाषाएं नहीं मरतीं, वह मरकर भी भटकते हैं। अभिलाषाओं से मुक्ति ही प्रभु में विलय है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य | ||
* जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | * जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | ||
− | * दुनिया में रहते हुए भी सेवाभाव से और सेवा के लिए जो जीता है, वह | + | * दुनिया में रहते हुए भी सेवाभाव से और सेवा के लिए जो जीता है, वह संन्यासी है। ~ महात्मा गांधी |
* कर्म से हीन बन जाना सन्न्यास नहीं है। कर्म के समुद को पार कर जाना ही सन्न्यास है। ~ लक्ष्मी नारायण मिश्र | * कर्म से हीन बन जाना सन्न्यास नहीं है। कर्म के समुद को पार कर जाना ही सन्न्यास है। ~ लक्ष्मी नारायण मिश्र | ||
* सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से आग जलती है, सत्य से वायु बहती है, सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है। ~ वेदव्यास (महाभारत) | * सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से आग जलती है, सत्य से वायु बहती है, सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है। ~ वेदव्यास (महाभारत) | ||
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* जिसने शीतल एवं शुभ्र सज्जन-संगति रूपी गंगा में स्नान कर लिया उसको दान, तीर्थ तप तथा यज्ञ से क्या प्रयोजन? ~ वाल्मीकि | * जिसने शीतल एवं शुभ्र सज्जन-संगति रूपी गंगा में स्नान कर लिया उसको दान, तीर्थ तप तथा यज्ञ से क्या प्रयोजन? ~ वाल्मीकि | ||
* गुणी पुरुषों के संपर्क से छोटा व्यक्ति भी गुरुता प्राप्त कर लेता है। ~ क्षेमेंद्र | * गुणी पुरुषों के संपर्क से छोटा व्यक्ति भी गुरुता प्राप्त कर लेता है। ~ क्षेमेंद्र | ||
− | * कांच भी कंचन का संग पा जाने पर मरकत मणि की शोभा प्राप्त कर लेता है। उसी प्रकार सज्जनों का साथ करने से मूर्ख भी | + | * कांच भी कंचन का संग पा जाने पर मरकत मणि की शोभा प्राप्त कर लेता है। उसी प्रकार सज्जनों का साथ करने से मूर्ख भी विद्वान् बन जाता है। ~ नारायण पंडित |
* गंगा पाप का, चंद्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता के अभिशाप का अपहरण करता है, परंतु सत्संग पाप, ताप और दैन्य- तीनों का तत्काल नाश कर देता है। ~ गर्गसंहिता | * गंगा पाप का, चंद्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता के अभिशाप का अपहरण करता है, परंतु सत्संग पाप, ताप और दैन्य- तीनों का तत्काल नाश कर देता है। ~ गर्गसंहिता | ||
* कोई भी वस्तु महान् का आश्रय पाकर उत्कर्ष प्राप्त करती है। ~ हर्ष | * कोई भी वस्तु महान् का आश्रय पाकर उत्कर्ष प्राप्त करती है। ~ हर्ष | ||
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===चापलूसी कब आती है=== | ===चापलूसी कब आती है=== | ||
− | * मनुष्य के अंतरंग का | + | * मनुष्य के अंतरंग का श्रृंगार है चातुर्य, वस्त्र तो केवल बाहरी सजावट है। ~ गुरु रामदास |
* जब निष्कपट व्यवहार को दरवाज़े से बाहर ढकेल दिया जाता है तो चापलूसी बैठक में आ जाती है। ~ कहावत | * जब निष्कपट व्यवहार को दरवाज़े से बाहर ढकेल दिया जाता है तो चापलूसी बैठक में आ जाती है। ~ कहावत | ||
* चरित्र बल पर ही मनुष्य दैनिक कार्य, प्रलोभन और परीक्षा के संसार में दृढ़तापूर्वक स्थिर रहते हैं और वास्तविक जीवन की क्रमिक क्षीणता को सहन करने योग्य होते हैं। ~ स्माइल्स | * चरित्र बल पर ही मनुष्य दैनिक कार्य, प्रलोभन और परीक्षा के संसार में दृढ़तापूर्वक स्थिर रहते हैं और वास्तविक जीवन की क्रमिक क्षीणता को सहन करने योग्य होते हैं। ~ स्माइल्स | ||
पंक्ति 868: | पंक्ति 868: | ||
* मेरे ख्याल से किसी को चैंपियन बनाने में सबसे बड़ी भूमिका आत्मबोध की होती है। ~ बिली जीन किंग | * मेरे ख्याल से किसी को चैंपियन बनाने में सबसे बड़ी भूमिका आत्मबोध की होती है। ~ बिली जीन किंग | ||
* एक चैंपियन को जीत से ऊपर और उसके पार जाने वाली किसी और प्रेरणा की आवश्यकता होती है। ~ पैट रिले | * एक चैंपियन को जीत से ऊपर और उसके पार जाने वाली किसी और प्रेरणा की आवश्यकता होती है। ~ पैट रिले | ||
− | * हर भदेसपन को अपने बचाव के लिए एक चैंपियन की | + | * हर भदेसपन को अपने बचाव के लिए एक चैंपियन की ज़रूरत पड़ती है, क्योंकि ग़लती हमेशा बातूनी होती है। ~ ओलिवर गोल्डस्मिथ |
===चिंता शहद की मक्खी=== | ===चिंता शहद की मक्खी=== | ||
पंक्ति 883: | पंक्ति 883: | ||
===चिन्तन करना भी एक कला है=== | ===चिन्तन करना भी एक कला है=== | ||
− | * प्रेम संयम और तप से | + | * प्रेम संयम और तप से उत्पन्नहोता है। भक्ति साधना से प्राप्त होती है, श्रद्धा के लिए अभ्यास और निष्ठा की ज़रूरत होती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
* जैसे मनुष्यों की प्रार्थनाएं उनकी इच्छा का रोग हैं, वैसे ही उनके मतवाद उनकी बुद्धि के रोग हैं। ~ एमर्सन | * जैसे मनुष्यों की प्रार्थनाएं उनकी इच्छा का रोग हैं, वैसे ही उनके मतवाद उनकी बुद्धि के रोग हैं। ~ एमर्सन | ||
* जिस तरह अध्ययन करना अपने आप में कला है उसी प्रकार चिन्तन करना भी एक कला है। ~ महात्मा गांधी | * जिस तरह अध्ययन करना अपने आप में कला है उसी प्रकार चिन्तन करना भी एक कला है। ~ महात्मा गांधी |
10:04, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
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इन्हें भी देखें: अनमोल वचन 1, अनमोल वचन 2, अनमोल वचन 3, अनमोल वचन 4, अनमोल वचन 5, अनमोल वचन 6, अनमोल वचन 7, अनमोल वचन 8, अनमोल वचन 9, कहावत लोकोक्ति मुहावरे एवं सूक्ति और कहावत
अनमोल वचन |
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