तुलसी

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तुलसी
Tulsi
  • एक छोटा पौधा जिसे वैष्णव धर्मावलंबी अत्यंत पवित्र मानते और पूजा में इसकी पत्तियों का उपयोग करते हैं।
  • आंगन में इसका पौधा लगाया जाता है।
  • प्रात:काल इसमें जल चढ़ाते और सायं काल इसके नीचे दिया जलाते हैं।
  • तुलसी के संबंध में पुराणों में एक कथा मिलती है।
  • तुलसी का एक नाम वृन्दा है।
  • वह अपने पतिव्रत धर्म के कारण विष्णु के लिए भी वंदनीय थी।
  • इसी वृन्दा के नाम पर श्रीकृष्ण की लीलाभूमि का नाम वृन्दावन पड़ा।
  • कार्तिक सुदी एकादशी के दिन 'तुलसी विवाह' मनाया जाता है।
  • कार्तिक मास में कई घरों में तुलसी की पूजा की जाती है।

तुलसी राधा की सखी थी, किंतु राधा ने इसे शाप दे दिया। यह धर्मध्वज के घर पैदा हुई। अनुपम सौंदर्यवती तुलसी ने तप करके ब्रह्मा से वर मांग लिया कि मुझे पतिरूप में श्री कृष्ण प्राप्त हों। पर उसका विवाह शंखचूर्ण नामक राक्षस के साथ हो गया। शंखचूर्ण को वरदान प्राप्त था कि जब तक उसकी स्त्री का सतीत्व भंग नहीं होगा, वह मर नहीं सकता। जब शंखचूर्ण का उपद्रव बहुत बढ़ गया तो विष्णु ने शंखचूर्ण का रूप धारण करके तुलसी का सतीत्व भंग कर दिया। इससे रुष्ट होकर तुलसी ने विष्णु को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया। लेकिन विष्णु ने उसे वर दिया कि तुम्हारे केशों से तुलसी का पौधा उत्पन्न होगा और तुम मुझे लक्ष्मी के समान प्रिय होगी। कहते हैं, तभी से विष्णु के शालिग्राम रूप की तुलसी की पत्तियों से पूजा होने लगी।


तुलसी शंखचूड़ की पत्नी थी। शंखचूड़ को युद्ध में परास्त करने के लिए शिव की प्रेरणा से विष्णु, शंखचूड़ का वेश धारण करके तुलसी के पास पहुँचे। उन्होंने दर्शाया कि शंखचूर्ण देवताओं को परास्त करके आया है। प्रसन्नता के आवेग में तुलसी ने उनके साथ समागम किया। तदनन्तर विष्णु को पहचानकर पतिव्रत धर्म नष्ट करने के कारण उसने शाप दिया,

"तुम पत्थर हो जाओ। तुमने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपने भक्त के हनन के निमित्त उसकी पत्नी से छल किया है।"

शिव ने प्रकट होकर उसके क्रोध का शमन किया और कहा,

"तुम गंडकी नदी होकर विष्णु के अंश से बने समुद्र के साथ बिहार करोगी। तुम्हारे शाप से विष्णु गंडकी नदी के किनारे पत्थर के होंगे और तुम तुलसी के रूप में उन पर चढ़ाई जाओगी। शंखचूड़ पूर्वजन्म में सुदामा था, तुम उसे भूलकर विष्णु के साथ विहार करो। शंखचूड़ की पत्नी होने के कारण नदी के रूप में तुम्हें सदैव शंख का साथ मिलेगा।"

शिव अंतर्धान हो गये और वह शरीर का परित्याग करके बैकुंठ चली गई।[1]


धर्मध्वज की पत्नी का नाम माधवी तथा पुत्री का नाम तुलसी था। वह अतीव सुन्दरी थी। जन्म लेते ही वह नारीवत होकर बदरीनाथ में तपस्या करने लगी। ब्रह्मा ने दर्शन देकर उसे वर मांगने के लिए कहा। उसने ब्रह्मा को बताया कि वह पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण की सखी थी। राधा ने उसे कृष्ण के साथ रतिकर्म में मग्न देखकर मृत्यृलोक जाने का शाप दिया था। कृष्ण की प्रेरणा से ही उसने ब्रह्मा की तपस्या की थी, अत: ब्रह्मा से उसने पुन: श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने का वर मांगा। ब्रह्मा ने कहा,

"तुम भी जातिस्मरा हो तथा सुदामा भी अभी जातिस्मर हुआ है, उसको पति के रूप में ग्रहण करो। नारायण के शाप अंश से तुम वृक्ष रूप ग्रहण करके वृंदावन में तुलसी अथवा वृंदावनी के नाम से विख्यात होगी। तुम्हारे बिना श्रीकृष्ण की कोई भी पूजा नहीं हो पायेगी। राधा को भी तुम प्रिय हो जाओगी।"

ब्रह्मा ने उसे षोडशाक्षर राधा मंत्र दिया। महायोगी शंखचूड़ ने महर्षि जैवीषव्य से कृष्णमंत्र पाकर बदरीनाथ में प्रवेश किया। तुलसी से मिलने पर उसने बताया कि वह ब्रह्मा की आज्ञा से उससे विवाह करने के निमित्त वहाँ पहुँचा था। तुलसी ने उससे विवाह कर लिया। वे लोग दानवों के अधिपति के रूप में निवास करने लगे। एक दिन हरि ने अपना शूल देकर शिव से कहा कि वे शंखचूड़ को मार डालें। शिव ने उस पर आक्रमण किया। सबने विचारा कि जब तक उसकी पत्नी पतिव्रता है तथा उसके पास नारायण का दिया हुआ कवच है, उसे मारना असम्भव है। अत: नारायण ने बूढ़े ब्राह्मण के रूप में जाकर उससे कवच की भिक्षा मांगी। शंखचूड़ का कवच पहनकर स्वयं उसका सा रूप बनाकर वे उसके घर के सम्मुख दुंदुभी बजाकर अपनी विजय की घोषणा कि तथा तुलसी का सतीत्व नष्ट कर डाला। तुलसी ने जब अनुभव किया कि मायावी पुरुष शंखचूड़ नहीं अपितु कृष्ण है, तब उसने छली कृष्ण को पाषण होने का शाप दिया। कृष्ण ने कहा-

"मुझे पाने का तप तो तुमने ही किया था। इस शरीर को त्यागकर अब तुम लक्ष्मीवत मेरे साथ रमण करो। तुम्हारा यह शरीर गंडक नामक नदी तथा केश तुलसी नामक पवित्र वृक्ष होंगे। तुलसी समस्त लोकों में पवित्रतम वृक्ष के रूप में रहेगी।"

श्रीकृष्ण ने कार्तिक की पूर्णिमा को तुलसी का पूजन करके गोलोक में रमा के साथ विहार किया, अत: वही तुलसी का जन्मदिन माना जाता है। प्रारम्भ में लक्ष्मी तथा गंगा ने तो उसे स्वीकार कर लिया था, किन्तु सरस्वती बहुत क्रुद्ध हुई। तुलसी वहाँ से अंतर्धान होकर वृंदावन में चली गई। नारायण पुन: उसे ढूँढकर लाये तथा सरस्वती से उसकी मित्रता करवा दी। सबके लिए आनंदायिनी होने के कारण वह नंदिनी भी कहलाती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शिव पुराण, पूर्वार्द्ध 5|39

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