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सैयद मुसलमानों को सक्रिय राजनीति के बजाय शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह देते थे। बाद में जब कुछ मुसलमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हुए, तो सैयद ने इस संगठन और इसके उद्देश्य का जमकर विरोध किया, जिनमें भारत में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना भी एक उद्देश्य था। उन्होंने दलील दी कि सांप्रदायिक तौर पर विभाजित और कुछ वर्गों के लिए सीमित शिक्षा तथा राजनीतिक संगठन वाले देश में संसदीय लोकतंत्र से केवल असमानता ही बढ़ेगी। मुसलमानों ने आमतौर पर उनकी राय मानी और कई सालों बाद अपना राजनीतिक संगठन बनाने तक वह राजनीति से दूर रहे।
 
सैयद मुसलमानों को सक्रिय राजनीति के बजाय शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह देते थे। बाद में जब कुछ मुसलमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हुए, तो सैयद ने इस संगठन और इसके उद्देश्य का जमकर विरोध किया, जिनमें भारत में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना भी एक उद्देश्य था। उन्होंने दलील दी कि सांप्रदायिक तौर पर विभाजित और कुछ वर्गों के लिए सीमित शिक्षा तथा राजनीतिक संगठन वाले देश में संसदीय लोकतंत्र से केवल असमानता ही बढ़ेगी। मुसलमानों ने आमतौर पर उनकी राय मानी और कई सालों बाद अपना राजनीतिक संगठन बनाने तक वह राजनीति से दूर रहे।
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उन्होंने यह भगीरथ प्रयास किया कि मुसलमान व ब्रिटिश सबसे अच्छे मित्र हैं। मुस्लिम राजनीति में सर सैयद की परंपरा मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) के रूप में उभरी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885 में स्थापित) के विरूध्द उनका प्रोपेगंडा था कि कांग्रेस हिंदू आधिापत्य पार्टी है और प्रोपेगंडा आजाद-पूर्व भारत के मुस्लिमों में जीवित रहा। कुछ अपवादों को छोड़कर वे कांग्रेस से दूर रहे और यहां तक कि वे आजादी की लड़ाई से भी हिस्सा नहीं लिया। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ब्रिटिश-भारत के मुस्लिम बहुल राज्यों मसलन-बंगाल, पंजाब में लगभग सभी स्वतंत्रता सेनानी हिंदू या सिख थे।<ref>{{cite web |url=http://www.pravakta.com/story/547/comment-page-1 |title=तुष्टिकरण और इसके नतीजे |accessmonthday=[[17 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last=के. पुंज |first=बलबीर |authorlink= |format= |publisher=प्रवक्ता |language=हिन्दी }}</ref>
  
 
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06:30, 17 अक्टूबर 2010 का अवतरण

सर सैयद अहमद ख़ाँ

(जन्म-17 अक्टूबर 1817, दिल्ली; मृत्यु - 27 मार्च 1898, अलीगढ़)

सर सैयद अहमद ख़ाँ मुस्लिम शिक्षक, विधिवेत्ता और लेखक, ऐंग्लो-मोहम्मदन ओरिएंटल कॉलेज अलीगढ़, उत्तर प्रदेश, के संस्थापक थे। सर सैयद अहमद ख़ाँ ऐसे महान मुस्लिम समाज सुधारक और भविष्यदृष्टा थे, जिन्होंने शिक्षा के लिए जीवन भर प्रयास किया। सर सैयद अहमद ख़ाँ ने लोगों को पारंपरिक शिक्षा के स्थान पर आधुनिक ज्ञान हासिल करने के लिए प्रेरित किया क्योंकि वह जानते थे कि आधुनिक शिक्षा के बिना प्रगति संभव नहीं है। सर सैयद अहमद ख़ाँ मुसलमानों और हिन्दुओं के विरोधात्मक स्वर को चुप-चाप सहन करते रहे। इसी सहनशीलता का परिणाम है कि आज सर सैयद अहमद ख़ाँ को एक युग पुरूष के रूप में याद किया जाता है और हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही उनका आदर करते हैं।

परिवार

सर सैयद का परिवार प्रगतिशील होने के बावज़ूद पतनशील मुग़ल सल्तनत द्वारा बहुत सम्मानित था। उनके पिता, जिन्हें मुग़ल प्रशासन से भत्ता मिलता था, उन्होंने धर्म से लगभग संन्यास ले लिया था उनके नाना ने तत्कालीन मुग़ल बादशाह के प्रधानमंत्री के रूप में दो बार काम किया और ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन भी महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहे। सर सैयद को बचपन से ही पढ़ने लिखने का शौक़ था और उन पर पिता की तुलना में माँ का विशेष प्रभाव था। माँ के कुशल पालन पोषण और उनसे मिले संस्कारों का असर सर सैयद के बाद के दिनों में स्पष्ट दिखा, जब वह सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में आए। 1857 की महाक्रान्ति और उसकी असफलता के दुष्परिणाम उन्होंने अपनी आँखों से देखे। उनका घर तबाह हो गया, निकट सम्बन्धियों का क़त्ल हुआ, उनकी माँ जान बचाकर एक सप्ताह तक घोड़े के अस्तबल में छुपी रहीं। सैयद के भाई ने दिल्ली के सबसे पहले छापेख़ानों में से एक की स्थापना की थी और उत्तरी भारत के मुसलमानों की प्रमुख भाषा उर्दू के पहले समाचार पत्रों में से एक का प्रकाशन शुरू किया था।

जीवन परिचय

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हम बीज बो रहे हैं वह एक घने वृक्ष के रूप में फैलेगा और उसकी शाखें देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैल जायेंगी। यह कॉलेज विश्वविद्यालय का स्वरूप धारण करेगा और इसके छात्र सहिष्णुता, आपसी प्रेम व सद्भाव और ज्ञान के सन्देश को जन-जन तक पहुँचायेंगे। - सर सैयद अहमद ख़ाँBlockquote-close.gif |} 22 वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु के बाद परिवार को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और थोड़ी सी शिक्षा के बाद ही सैयद को आजीविका कमाने में लगना पड़ा। सर सैयद अहमद ख़ाँ ने 1830 ई.में ईस्ट इंडिया कंपनी में क्लर्क के रूप में काम शुरू किया, किंतु वह हाथ-पर-हाथ धर कर बैठने वालों में से नहीं थे। उन्होंने मेहनत की और तीन वर्ष बाद 1841 ई. में मैनपुरी में उप-न्यायाधीश की योग्यता हासिल की और विभिन्न स्थानों पर न्यायिक विभाग में काम किया। सैयद अहमद को न्यायिक विभाग में कार्य करने की वजह से कई क्षेत्रों में सक्रिय होने का समय मिल सका। स्पष्ट है कि यह नौकरी अंग्रेज़ी सरकार की कृपा का परिणाम नहीं थी।

उपाधि से सम्मानित

  • सर सैयद को 1888 में सर की उपाधि (नाइट कमांडर ऑफ़ द स्टार ऑफ़ इंडिया) प्रदान की गई।
  • सर सैयद की विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित होकर एडिनबरा विश्वविद्यालय ने उन्हें 1889 ई.में एल-एल.डी. की उपाधि से सम्मानित किया था।

रचनाएँ

सर सैयद ने धार्मिक एवं सांस्कृतिक विषयों पर काफ़ी लिखा। 19वीं शताब्दी के अंत में भारतीय इस्लाम के पुनर्जागरण की प्रमुख प्रेरक शक्ति हुई। उन्होंने उर्दू कृतियों में मुहम्मद के जीवन पर लेख (1870) और बाइबिल तथा क़ुरान पर टीकाएँ सम्मिलित हैं।

  • 23 वर्ष की आयु में धार्मिक पुस्तिकाएँ लिखकर, सर सैयद ने अपने उर्दू लेखन की शुरूआत की। उन्होंने 1847 में एक उल्लेखनीय पुस्तक अतहर असनादीद (महान लोगों के स्मारक) प्रकाशित की, जो दिल्ली के पुराविशेषों पर आधारित थी। उनकी पुस्तिका भारतीय विद्रोह के कारण (द कॉज़ेज़ ऑफ़ इंडियन रिवोल्ट) इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण थी।
  • उन्होंने 1857 के भारतीय ग़दर (स्वतंत्रता संग्राम) के दौरान अंग्रेज़ों का साथ दिया। परंतु अपनी पुस्तिका में उन्होंने कुशलता व निर्भीकता से ब्रिटिश प्रशासन की उन कमज़ोरियों और ग़लतियों को उजागर किया। जिनके कारण असंतोष और देशव्यापी विरोध पनपा था। इस पुस्तिका को अंग्रेज़ अधिकारियों ने बारीकी से पढ़ा और ब्रिटिश नीति पर इसका उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा।
  • धैर्य और सहनशीलता की मूर्ति सर सैयद अहमद ख़ाँ ने अपनी गंभीर सूझ-बूझ के आधार पर ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया की चिंता किए बिना, जनक्रांति के कारणों पर 1859 ई. में 'असबाबे-बगावते-हिंद' शीर्षक एक महत्वपूर्ण पुस्तिका लिखी और उसका अंग्रेज़ी अनुवाद ब्रिटिश पार्लियामेंट को भेज दिया। सर सैयद के मित्र राय शंकर दास ने जो उन दिनों मुरादाबाद में मुंसिफ थे सर सैयद को समझाया भी कि वे पुस्तकों को जला दें और अपनी जान खतरे में न डालें। किंतु सर सैयद ने उनसे स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि उनका यह कार्य देशवासियों और सरकार की भी भलाई के लिए आवश्यक है। इसके लिए जान-माल का नुकसान उठाने का खौफ़ उनके मार्ग में अवरोधक नहीं बन सका। क्रांति के जोखिम भरे विषय पर कुछ लिखने वाले सर सैयद प्रथम भारतीय हैं।
  • दिल्ली के निवासकाल में 'आसारुस्सनादीद' शीर्षक पुस्तक लिखकर सर सैयद ने दिल्ली की 232 इमारतों का शोधपरक ऐतिहासिक परिचय प्रस्तुत किया और इस पुस्तक के आधार पर उन्हें रायल एशियाटिक सोसाइटी लन्दन का फेलो नियुक्त किया गया। गार्सां-द-तासी ने इसका फ़्रांसीसी भाषा में अनुवाद किया जो 1861 ई. में प्रकाशित हुआ।
  • धर्म में उनकी सक्रिय रूचि थी, जो जीवनपर्यंत रही। उन्होंने बाइबिल की सहृदय व्याख्या से शुरुआत की और पैग़ंबर मुहम्मद पर पुस्तक लिखी, जिसका उनके पुत्र ने एस्सेज़ ऑन द लाइफ़ ऑफ़ मुहम्मद शीर्षक से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। उन्होंने क़ुरान पर आधुनिक व्याख्या के कई खंड लिखने के लिए भी समय निकाला। अपनी इन कृतियों में उन्होंने इस्लामी मत का समकालीन वैज्ञानिक तथा राजनीतिक प्रगतिशील विचारों से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया।

संस्थाओं की स्थापना

सैयद के जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार उसके व्यापकतम अर्थों में करना था। मुस्लिम समाज के सुधार के लिए प्रयासरत सर सैयद ने (1858) में मुरादाबाद में आधुनिक मदरसे की स्थापना की। यह उन शुरुआती धार्मिक स्कूलों में था जहाँ वैज्ञानिक शिक्षा दी जाती थी। उन्होंने 1863 में गाजीपुर में भी एक आधुनिक स्कूल की स्थापना की। उनका एक अन्य महत्तवाकांक्षी कार्य था- 'साइंटिफ़िक सोसाइटी' की स्थापना, जिसने कई शैक्षिक पुस्तकों का अनुवाद प्रकाशित किया उर्दू तथा अंग्रेज़ी में द्विभाषी पत्रिका निकाली।

ये संस्थाएं सभी नागरिकों के लिए थीं और हिन्दू तथा मुस्लिम मिलकर इनका संचालन करते थे। 1860 के दशक के अंतिम वर्षों का घटनाक्रम उनकी गतिविधियों का रुख़ बदलने वाला सिद्ध हुआ। उन्हें 1867 में हिन्दुओं की धार्मिक आस्थाओं के केंद्र, गंगा तट पर स्थित बनारस (वर्तमान वाराणसी) में स्थानांतरिक कर दिया गया। लगभग इसी दौरान मुसलमानों द्वारा पोषित भाषा, उर्दू के स्थान पर हिन्दी को लाने का आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन तथा साइंटिफ़िक सोसाइटी के प्रकाशनों में उर्दू के स्थान पर हिन्दी लाने के प्रयासों से सैयद को विश्वास हो गया कि हिन्दुओं और मुसलमानों के रास्तों को अलग होना ही है। इसलीए उन्होंने इंग्लैंड की अपनी यात्रा (1869-70) के दौरान 'मुस्लिम केंब्रिज' जैसी महान शिक्षा संस्थाओं की योजना तैयार कीं। उन्होंने भारत लौटने पर इस उद्देश्य के लिए एक समिति बनाई और मुस्लमानों के उत्थान और सुधार के लिए प्रभावशाली पत्रिका तहदीब-अल-अख़लाक (सामाजिक सुधार) का प्रकाशन प्रारंभ किया।

सैयद ने 1886 में ऑल इंडिया मुहम्मदन ऐजुकेशनल कॉन्फ़्रेंस का गठन किया, जिसके वार्षिक सम्मेलन मुसलमानों में शिक्षा को बढ़ावा देने तथा उन्हें एक साझा मंच उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न स्थानों पर आयोजित किया जाते थे। 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना होने तक यह भारतीय इस्लाम का प्रमुख राष्ट्रीय केंद्र था।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय

शिक्षा-संस्था खोलने का विचार हुआ तो अपनी सारी जमा-पूँजी यहाँ तक कि मकान भी गिरवी रख कर यूरोपीय शिक्षा-पद्धति का ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से इंगलिस्तान की यात्रा की। लौटकर आए तो कुछ वर्षों के भीतर ही मई 1875 में अलीगढ़ में 'मदरसतुलउलूम' एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया गया और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद सैयद ने इसे कॉलेज में बदलने की बुनियाद रखी। सैयद की परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावज़ूद कॉलेज ने तेज़ी से प्रगति की और 1920 में इसे विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया।

सर सैयद अहमद ख़ाँ का उद्देश्य

भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों के पुर्नजागरण के प्रतीक सर सैयद अहमद ख़ाँ का उद्देश्य मात्र अलीगढ़ में एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना ही नहीं था बल्कि उनकी हार्दिक कामना थी कि अलीगढ़ में उनके द्वारा स्थापित कॉलेज का प्रारूप एक ऐसे केन्द्र का हो जिसके अधीन देश भर की मुस्लिम शिक्षा संस्थायें उसके निर्देशन में आगे बढ़ें ताकि देश भर के मुसलमान आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर राष्ट्र निर्माण में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकें। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अधीन स्थापित होने वाले नये केन्द्रों के गठन से सर सैयद अहमद ख़ाँ का सपना साकार होने जा रहा है।

एम. ए. यू. कॉलेज के आधारशिला समारोह में 8 जनवरी, 1877 को लार्ड लिटन के सम्मुख सर सैयद ने कहा था कि आज जो "हम बीज बो रहे हैं वह एक घने वृक्ष के रूप में फैलेगा और उसकी शाखें देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैल जायेंगी। यह कॉलेज विश्वविद्यालय का स्वरूप धारण करेगा और इसके छात्र सहिष्णुता, आपसी प्रेम व सद्भाव और ज्ञान के सन्देश को जन-जन तक पहुँचायेंगे।" आज इस संस्था के छात्र 92 देशों में फैले हुए हैं और देश का यह मात्र पहला ऐसा संस्थान है जिसके छात्र पूरी दुनियाँ में अपने संस्थापक सर सैयद का जन्म दिवस मनाते हैं। सर सैयद भारतीय मुसलमानों के ऐसे पहले समाज सुधारक थे जिन्होंने अज्ञानता की काली चादर की धज्जियाँ उड़ाकर मुस्लमानों में आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक चेतना जागृत की।

कॉलेज में अनेक भाषाओं में शिक्षा

सर सैयद के 'एम. ए. यू. कॉलेज' के द्वार सभी धर्मावलम्बियों के लिए खुले हुए थे। पहले दिन से ही अरबी फ़ारसी भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा कि शिक्षा की भी व्यवस्था की गई। स्कूल के स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन को भी अपेक्षित समझा गया और इसके लिए पं. केदारनाथ अध्यापक नियुक्त हुए। सकूल तथा कॉलेज दोनों ही स्तरों पर हिन्दू अध्यापकों की नियुक्ति में कोई संकोच नहीं किया गया। कॉलेज के गणित के प्रोफेसर जादव चन्द्र चक्रवर्ती को अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई। एक लंबे समय तक चक्रवर्ती गणित के अध्ययन के बिना गणित का ज्ञान अधूरा समझा जाता था।

राजनीति

सैयद मुसलमानों को सक्रिय राजनीति के बजाय शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह देते थे। बाद में जब कुछ मुसलमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हुए, तो सैयद ने इस संगठन और इसके उद्देश्य का जमकर विरोध किया, जिनमें भारत में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना भी एक उद्देश्य था। उन्होंने दलील दी कि सांप्रदायिक तौर पर विभाजित और कुछ वर्गों के लिए सीमित शिक्षा तथा राजनीतिक संगठन वाले देश में संसदीय लोकतंत्र से केवल असमानता ही बढ़ेगी। मुसलमानों ने आमतौर पर उनकी राय मानी और कई सालों बाद अपना राजनीतिक संगठन बनाने तक वह राजनीति से दूर रहे।


उन्होंने यह भगीरथ प्रयास किया कि मुसलमान व ब्रिटिश सबसे अच्छे मित्र हैं। मुस्लिम राजनीति में सर सैयद की परंपरा मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) के रूप में उभरी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885 में स्थापित) के विरूध्द उनका प्रोपेगंडा था कि कांग्रेस हिंदू आधिापत्य पार्टी है और प्रोपेगंडा आजाद-पूर्व भारत के मुस्लिमों में जीवित रहा। कुछ अपवादों को छोड़कर वे कांग्रेस से दूर रहे और यहां तक कि वे आजादी की लड़ाई से भी हिस्सा नहीं लिया। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ब्रिटिश-भारत के मुस्लिम बहुल राज्यों मसलन-बंगाल, पंजाब में लगभग सभी स्वतंत्रता सेनानी हिंदू या सिख थे।[1]

सेवा से अवकाशप्राप्त

सेवा से अवकाशप्राप्त करने के बाद वह पूरी तरह से स्कूल के विकास और धार्मिक सुधार में लग गए। हालांकि इस दौरान उन्हें धार्मिक नेताओं के जोरदार विरोध का सामना करना पड़ा। पर सर सैयद ने घुटने नहीं टेके और अपने काम में लगातार लगे रहे। इस दौरान उन्हें ब्रिटिश राज का समर्थन मिला। उनके कई विचारों को लेकर विवाद भी हुआ जिनमें 1857 उर्दू का महत्व आदि है। उन्होंने उर्दू को लोकप्रिय बनाने और आम मुस्लिमों की भाषा बनाने के लिए काफ़ी प्रयास किया। उनकी देख-रेख में पश्चिमी कृतियों का उर्दू में अनुवाद कराया गया। उनके द्वारा स्थापित स्कूलों में शिक्षा का माध्यम उर्दू को बनाया गया। सर सैयद ने सामाजिक सरोकारों के लिए भी काम किया और 1860 में पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में अकाल पीडि़तों को राहत पहुँचाने के लिए सक्रिय रूप से योगदान किया।

मृत्यु

इस महान शिक्षाविद् और समाज सुधारक व्यक्तित्व की जीवनलीला 27 मार्च 1898 को समाप्त ज़रूर हो गई किंतु उसका प्रकाश आज भी करोड़ों भारतवासियों को रोशनी प्रदान कर रहा है।

  1. के. पुंज, बलबीर। तुष्टिकरण और इसके नतीजे (हिन्दी) प्रवक्ता। अभिगमन तिथि: 17 अक्टूबर, 2010