प्रयोग:Renu2
madhumatii nadi पद्मा (गंगा) नदी की सहायक नदी, दक्षिण-पश्चिम बांग्लादेश से प्रवाहित। यह कुश्तिया से ठीक उत्तर में पद्मा से अलग होती है और दक्षिण पूर्व में 306 किमी तक बहकर दक्षिण दिशा में मुड़कर सुंदरवन से गुज़रते हुए बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इसकी धारा के ऊपरी हिस्से में इसे गरई कहते हैं। निचले हिस्से में इसे बालेस्वर कहा जाता है और इसका 14 किमी चौड़ा मुहाना हरिनघाटा कहलाता है। गंगा के मैदान के दक्षिणी हिस्से में मधुमती, पद्मा की विशालतम वितरण धाराओं में से एक है और बंगाल की खाड़ी से जुड़ी हुई किसी भी अन्य नदी के मुक़ाबले नौकायन के लिए सर्वश्रेष्ठ परिस्थितियाँ प्रदान करती है।
भीमा नदी
कृष्णा नदी की प्रमुख सहायक नदी, महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्यों से होकर बहती है, पश्चिमी भारत। इसका उद्गम पश्चिमी घाट की भीमशंकर पर्वतश्रेणी से होता है और यह महाराष्ट्र में 725 किमी दक्षिण-पूर्व की ओर बहने के बाद कर्नाटक में कृष्णा नदी से जा मिलती है। इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ सीना और नीरा हैं। भीमा ला अपवाह क्षेत्र पश्चिमी घाट (पश्चिम), बालाघाट पर्वतश्रेणी (उत्तर) और महादेव पर्वतश्रेणी (दक्षिण) से सीमांकित है। भीमा नदी गहरी खाइयों से होकर गुज़रती है और इसके तट सघन अबादी वाले हैं। इसका जल स्तर मौसमी परिवर्तनों पर निर्भर करता है। बाढ़ का पानी अपने पीछे उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी छोड़ जाता है। उजाणी में हाल में निर्मित बांध से सिंचाई द्वारा कृषि को राहत मिली है और निचले इलाक़े में बाढ़ का ख़तरा कम हुआ है। वर्षा के बिखरे हुए जल को संगृहीत कर स्थानीय स्तर पर सिंचाई की जाती है; प्रमुख फ़सलें ज्वार, बाजरा और तिलहन है। सिंचित क्षेत्र से प्राप्त गन्ना एक महत्वपूर्ण नक़दी फ़सल है।
रावी नदी
रावी नदी, पश्चिमोत्तर भारत और पूर्वोत्तर पाकिस्तान, उन पाँच नदियों में से एक, जिनसे पंजाब (पाँच नदियों का प्रदेश) नाम पड़ा। यह हिमाचल प्रदेश में प्रदेश में वृहद हिमालय से निकलती है एवं पश्चिम-पश्चिमोत्तर में चंबा नगर से होती हुई जम्मू-कश्मीर की सीमा पर दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। इसके बाद यह नदी पाकिस्तानी पंजाब में प्रवेश करने से पहले पाकिस्तानी सीमा के साथ-साथ 80 किमी से अधिक दूरी तक बहती है। यह लाहौर से होकर बहती हुई कमलिया के निकट पश्चिम की ओर मुड़ जाती है और लगभग 725 किमी के बाद अहमदपुर सियाल के दक्षिण में चिनाब नदी में मिल जाती है।
रावी नदी के जल का सिचाई के लिए उपयोग सम्पू्ण प्रवाह क्षेत्र में किया जाता है। भारतीय पंजाब के उत्तरी छोर पर माधोपुर में प्रारम्भिक बिंदु वाली ऊपरी बारी (बा ब्यास, री-रावी) दोआब नहर 1878-1879 में बनकर तैयार हुई थी; यह रावी के पूर्व के बड़े हिस्से को सिंचाई की सुविधा प्रदान करती है, जिसकी सहायक नहरें पाकिस्तान तक विस्तारित है।
अलकनन्दा नदी • इंद्रावती नदी • कालिंदी नदी • काली नदी • कावेरी नदी • कृष्णा नदी • केन नदी • कोशी नदी • क्षिप्रा नदी • खड़कई नदी • गंगा नदी • गंडक नदी • गोदावरी नदी • गोमती नदी • घाघरा नदी • चम्बल नदी • झेलम नदी • टोंस नदी • तवा नदी • चेनाब नदी • ताप्ती नदी • तुंगभद्रा नदी • दामोदर नदी • नर्मदा नदी • पार्वती नदी • पुनपुन नदी • पेन्नार नदी • फल्गू नदी • बनास नदी • बराकर नदी • बागमती नदी • बाणगंगा नदी • बेतवा नदी • बैगाई नदी • ब्यास नदी • ब्रह्मपुत्र नदी • भागीरथी नदी • भीमा नदी • महानंदा नदी • महानदी नदी • माही नदी • मूठा नदी • मुला नदी •मूसी नदी • यमुना नदी • रामगंगा नदी • रावी नदी • लूनी नदी • शारदा नदी • शिप्रा नदी • सतलुज नदी • सरयू नदी • सरस्वती नदी • साबरमती नदी • सिन्धु नदी • सुवर्णरेखा नदी • सोन नदी • हुगली नदी •
अलकनंदा चमोली टेहरी और पौड़ी ज़िलों से होकर गुज़रती है। गंगा के पानी में इसका योगदान भागीरथी से अधिक है। हिंदुओं का प्रसिद्ध तीर्थस्थल बद्रीनाथ अलखनंदा के तट पर ही बसा हुआ है। अलकनन्दा नदी गंगा की सहयोगी नदी हैं। यह गंगा के चार नामों में से एक है। चार धामों में गंगा के कई रूप और नाम हैं। गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है, केदारनाथ में मंदाकिनी और बद्रीनाथ में अलकनन्दा के नाम से। यह उत्तराखंड में शतपथ और भगीरथ खड़क नामक हिमनदों से निकलती है। यह स्थान गंगोत्री कहलाता है। अलकनंदा नदी घाटी में लगभग 229 किमी तक बहती है। देव प्रयाग या विष्णु प्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है और इसके बाद अलकनंदा नाम समाप्त होकर केवल गंगा नाम रह जाता है। अलकनंदा चमोली टेहरी और पौड़ी जिलों से होकर गुज़रती है।
नदियां
इसका पेज बन गया है। कपिली (असम)
Sunday, June 06, 2010 11:13 AM
खसिया पहाड़ियों पर बहने वाली नदी। ए0 विल्सन के अनुसार इस नदी के पश्चिम में स्थित देश को कपिली देश कहते थे जिसका उल्लेख एक चीनी लेखक ने इस देश के राजा द्वारा चीन को भेजे गए दूत के संबंध में किया है (दे0 जर्नल आव रॉयल एसियाटिक सोसाइटी, पृ0 540)।
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ओधवती इसका पेज बन गया है। Sunday, June 06, 2010 11:28 AM
कुरुक्षेत्र की एक नदी जिसका उल्लेख महाभारत में है। दुर्योधन को भीम ने ओधवती के तट पर गदायुद्ध में आहत किया था। पृथूदक इसी नदी के तट पर स्थित था। महाभारत अनुशासन0 2 में वर्णित पौराणिक कथा के अनुसार अग्निपुत्र सुदर्शन की सती पत्नी ही ओधवती के रूप में परिणत हो गई थी- 'एष हि तपसा स्वेन संयुक्ता ब्रह्मवादिनी, पावनार्थ लोकस्य सरिच्छ्रेष्ठा भविष्यति, अर्धेनौधवती नाम स्वामर्धेनानुयास्यति' अनुशासन 2,83-84।
Pasted from <file:///\\Nicola\SharedDocs\common%20typing\prem%20typing\Bharatdishcovery\Eitihashik%20Sthanawali\O\Odhawati.docx>
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कर्णदा इसका पेज बन गया है। Sunday, June 06, 2010 11:14 AM
- बृहद्धर्मपुराण में वर्णित कीकट देश (मगध) की एक नदी जिसे पवित्र माना गया है<> 'तत्र देशे गया नाम पुण्यदेशोस्ति विश्रुत: नदी च कर्णदा नाम पितृणां स्वर्ग-दायिनी'।<>
- जान पड़ता है यह गया के निकट बहने वाली फल्गु नदी है जहाँ पितरों का श्राद्ध किया जाता है।
- कर्णदा नदी का नाम महाभारत के कर्ण से संबंधित जान पड़ता है।
- यह तथ्य उल्लेखनीय है कि कीकट देश को प्राचीन पुराणों की परंपरा में अपवित्र देश बताया गया है जिसका कारण इस देश में बौद्ध-मत का आधिपत्य रहा होगा, किंतु कालांतर में गया में पुन: हिंदूधर्म की सत्ता स्थापित होने पर इसे तथा यहाँ बहने वाली नदी को पवित्र समझा जाने लगा।
कर्मनाशा इसका पेज बन गया है। Sunday, June 06, 2010 11:05 AM
- कर्मनाशा नदी वाराणसी (उत्तर प्रदेश) और आरा (बिहार) जिलों की सीमा पर बहने वाली नदी जिसे अपवित्र माना जाता था- 'कर्मनाशा नदी स्पर्शात् करतोया विलंघनात्, गंडकी बाहुतरणाद् धर्मस्खलति कीर्तनात्' आनंदरामायण- यात्राकांड 9,3 ।
- इसका कारण यह जान पड़ता है कि बौद्धधर्म के उत्कर्षकाल में बिहार-बंगाल में विशेष रूप से बौद्धों की संख्या का आधिक्य हो गया था और प्राचीन धर्मावलंबियों के लिए ये प्रदेश अपूजित माने जाने लगे थे।
- कर्मनाशा को पार करने के पश्चात् बौद्धों का प्रदेश प्रारंभ हो जाता था इसलिए कर्मनाशा को पार करना या स्पर्श भी करना अपवित्र माना जाने लगा।
- इसी प्रकार अंग, बंग, कलिंग और मगध बौद्धों के तथा सौराष्ट्र जैनों के कारण अगम्य समझे जाते थे- अंगबंगकलिंगेषुसौराष्ट्रमागधेषु च, तीर्थयात्रां विना गच्छन् पुन: संस्कारमर्हति'- तीर्थप्रकाश।
कंकावती
Sunday, June 06, 2010 10:53 AM
काठियावाड़ (गुजरात) के उत्तर-पश्चिमी भाग- हालार में बहने वाली एक नदी।
कपिला इसका पेज बन गया है। Sunday, June 06, 2010 10:51 AM
(1) (काठियावाड़, गुजरात) सौराष्ट्र के पश्चिमी भाग सोरठ की एक नदी जो गिरनार पर्वत श्रेणी से निकल कर, हिरण्या साथ प्राची-सरस्वती से मिल कर पश्चिम समुद्र में गिरती है। वह प्रभासपाटन के पूर्व की ओर बहती है। (2) नर्मदा की प्रारंभिक धारा। यह अकरकंटक से निस्मृत होती है। (3) गोदावरी की सहायक नदी जो पंचवटी (नासिक के निकट) से डेढ़ मील दूर गोदावरी में मिल जाती है। संगम पर महर्षि गौतम की तप:स्थली बताई जाती है। यहीं महर्षि कपिल का आश्रम भी था। किंवदंती है कि शूर्पणखा से राम-लक्ष्मण और सीता की भेंट इसी स्थान पर हुई थी। (4) (मैसूर) कावेरी की सहायक नदी। कपिलाकावेरी संगम पर तिरुमकुल नरसीपुर नामक तीर्थ है। यहां गुंजानृसिंह का मंदिर है।
कमला
Sunday, June 06, 2010 10:46 AM
गंगा की सहायक नदी। इसे घुगरी भी कहते हैं। यह नेपाल के महाभारत पहाड़ से निकलकर करगोला (जिला पूर्णिया, बिहार) के पास गंगा में मिलती है।
इक्षुमती
Sunday, June 06, 2010 10:35 AM
(1)बाल्मीकि-रामायण में इस नदी का उल्लेख अयोध्या के दूतों की केकय देश की यात्रा के प्रसंग में हुआ है- 'आभिकालं तत: प्राप्य तेजोऽभिभवनाच्चयुता:, पितृपैतामहीं पुण्यां तेरुरिक्षुमतीं नदीम् 2,68,11 । इस नदी को दूतों ने जैसा कि संदर्भ से सूचित होता है- सतलज और बियास के बीच के प्रदेश में पार किया था। इसका ठीक-ठीक अभिज्ञान अनिश्चित है। संभव है यह सरस्वती नदी ही हो क्योंकि उपर्युक्त उद्धरण में इसे 'पितृ पैतामही पुण्या' कहा है। चक्षुष्मती भी इक्षुमती का ही एक नाम जान पड़ता है- दे0 वराहपुराण 85; मत्स्यपुराण 113 । (2)पाणिनि ने, अष्टाध्यायी 4,2,80 में सांकाश्य-नगर की स्थिति इस नदी के तट पर बताई है। महाभारत, भीष्म0में इसे इक्षुमालिनी कहा गया है। यह वर्तमान ईखन है जो संकिसा (जिला फर्रुखाबाद, उ0 प्र0) के निकट बहती है।
इन्द्राणी
Sunday, June 06, 2010 10:30 AM
पूना के निकट बहने वाली महाराष्ट्र की प्रसिद्ध नदी। अलदी आदि कई प्राचीन तीर्थ इस नदी के तट पर बसे हैं।
इन्द्रावती (जिला बस्तर, म0 प्र0)
Sunday, June 06, 2010 10:28 AM
जगदलपुर के निकट बहने वाली नदी जो उड़ीसा के कालहंदी पहाड़ से निकल कर भूपालपटनम् के पास गोदावरी में गिरती है। चित्रकोट नाम का 94 फुट ऊंचा जलप्रपात जगदलपुर के पास स्थित है। इसे पहले चक्रकूट क्षेत्र कहते थे।
इरावती
Sunday, June 06, 2010 10:27 AM
(1)पंजाब की प्रसिद्ध नदी रावी। रावी इरावती का ही अपभ्रंश है। इसका वैदिक नाम परुष्णी था। 'इरा' का अर्थ मदिरा या स्वादिष्ट पेय है। महाभाष्य 2,1,2 में इसका उल्लेख है। महाभारत भीष्म0 9,16 में इसको वितस्ता और अन्य नदियों के साथ परिगणित किया गया है- 'इरावतीं वितस्तां च पयोष्णीं देवकामपि'। सभा0 9,19 में भी इसी प्रकार उल्लेख है- 'इरावती वितस्ता च सिंधुर्देवनदी तथा।' ग्रीक लेखकों ने इरावती को हियारावटाज (Hyaraotis) लिखा है।
(2)पूर्व-उत्तर प्रदेश की राप्ती का भी प्राचीन नाम इरावती था। यह नदी कुशीनगर के निकट बहती थी जैसा कि बुद्धचरित 25,53 के उल्लेख से सूचित होता है- 'इस तरह कुशीनगर आते समय चुंद के साथ तथागत ने इरावती नदी पार की और स्वयं उस नगर के एक उपवन में ठहरे जहां कमलों से सुशोभित एक प्रशान्त सरोवर स्थित था'। अचिरावती या अजिरावती इरावती के वैकल्पिक रूप हो सकते हैं। बुद्धचरित के चीनी-अनुवाद में इस नदी के लिए कुकु शब्द है जो पाली के कुकुत्था का चीनी रूप है। बुद्धचरित 25,54 में वर्णन है कि निर्वाण के पूर्व गौतम बुद्ध ने हिरण्यवती नदी में स्थान किया था जो कुशीनगर के उपवन के समीप बहती थी। यह इरावती या राप्ती की ही एक शाखा जान पड़ती है। स्मिथ के विचार में यह गंडक है जो ठीक नहीं जान पड़ता। बुद्धचरित 27, 70 के अनुसार बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् मल्लों ने उनके शरीर के दाहसंस्कार के लिए हिरण्यवती नदी को पार करके मुकुटचैत्य (दे0 मृकुटचैत्यवंधन) के नीचे चिता बनाई थी। संभव है महाभारत सभा0 9, 22 का वारवत्या भी राप्ती ही हो।
(3)ब्रह्मदेश की इरावदी। यह नाम प्राचीन भारतीय औपनिवेशिकों का दिया हुआ है।
एरण्डी
Sunday, June 06, 2010 10:23 AM
नर्मदा की सहायक नदी जो बड़ौदा के क्षेत्र में बहती है। दे0 पद्मपुराण, स्वर्गखण्ड, 9।
अयक
Friday, June 04, 2010 4:56 PM
स्यालकोट (प0 पाकिस्तान) के निकट बहने वाली छोटी नदी जिसका अभिज्ञान प्राचीन साहित्य की आपगा नामक नदी से किया गया है।
आत्रेयी
Friday, June 04, 2010 4:55 PM
(1)'करतोया तथात्रेयी लोहित्यश्च महानदी, 'महा0 2,9,221 । इस उल्लेख के अनुसार आत्रेयी गोदावरी की एक छोटी शाखा का नाम है। यह पंचवटी के निकट गोदावरी में मिलती है। गोदावरी की सात शाखाए मानी गई हैं। दे0 गोदावरी। (2)जिला राजशाही- बंगाल-की एक नदी जो गंगा में मिलती है
अतिवती
Friday, June 04, 2010 4:49 PM
बौद्ध साहित्य में उल्लिखित नदी जो कसिया या प्राचीन कुशीनगर के निकट बहती थी। बुद्ध का दाहसंस्कार इसी नदी के तट पर हुआ था। यह गंडक की सहायक नदी है जो अब प्राय: सूखी रहती है। बौद्ध साहित्य में इस नदी को हरिण्या भी कहा गया है। संभव है अतितवती और अचिरवती में केवल नाम-भेद हो।
असी
Friday, June 04, 2010 4:45 PM
वाराणसी के निकट गंगा नदी में मिलने वाली एक प्रसिद्ध छोटी शाखानदी। कहते हैं इस नगरी का नाम असी और वरुणा नदियों के बीच में स्थित होने के कारण ही वाराणसी हुआ था। असी को असीगंगा भी कहते हैं- 'संवत् सोलह सौ असी असी गंग के तीर, सावन शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यौ शरीर'- इस प्रचलित दोहे से यह भी ज्ञात होता है कि महाकवि तुलसी ने इसी नदी के तट पर संभवत: वर्तमान अस्सी घाट के पास अपनी इहलीला समाप्त की थी।
असिक्नी
Friday, June 04, 2010 4:39 PM
वर्तमान चिनाब नदी (पाकिस्तान) का वैदिक नाम। ऋग्वेद 10, 75, 5-6 में नदीसूक्त के अंतर्गत इसका उल्लेख इस प्रकार है- 'इमं में गंगे यमुने सरस्वति शतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या। असिक्न्या मरुद्वृधे वितिस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया'। यह नदी अथर्ववेद में वर्णित त्रिककुद् (त्रिकूट)- पर्वत की घाटी में बहती है। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि पूर्व-वैदिक काल में सिंधु और असिक्नी नदियों के निकट क्रिवि लोगों का निवास था जो कालांतर में वर्तमान पश्चिमी पंजाब और मध्यउत्तरप्रदेश में पहुंच कर पांचाल कहलाए। पश्चवर्ती साहित्य में असिक्नी को चन्द्रभागा कहा गया है किंतु कई स्थानों पर असिक्नी नाम भी उपलब्ध है, यथा- श्रीमद्भागवत, 5, 19 18 में- 'मरुद्वृधा वितस्ता असिक्नी विश्वेति महानद्य:' दे0 चंद्रभागा।
अपरनंदा
Friday, June 04, 2010 4:16 PM
'तत: प्रयात: कौन्तेय: क्रमेण भरतर्षभ, नन्दामपरनन्दां च नद्यौ पापभयापहे' महा0 वन0 110,1 पांडवों की तीर्थयात्रा के प्रसंग में नंदा और अपरनंदा नामक नदियों का उल्लेख है जो संदर्भानुसार पूर्वबिहार या बंगाल की नदियां जान पड़ती हैं। अभिज्ञान अनिश्चित है।
अंध
Friday, June 04, 2010 4:09 PM
श्रीमद्भागवत में उल्लिखित एक नदी... 'नर्मदा चर्मण्वती सिंधुरधशोणश्च' 5,19,18। सिंधु, यमुना की सहायक सिंध है और शोण वर्तमान सोन। इन्हीं के समीप बहने वाली किसी नदी का नाम अंध हो सकता है। संभव है, यह वर्तमान केन या शुक्तिमती ही का नाम हो। इसका संबंध अंधक से भी हो सकता है जो श्री डे के अनुसार भागलपुर के निकट गंगा में गिरने वाली चंदन नदी है।
अनोमा बौद्ध साहित्य में प्रसिद्ध नदी। बुद्ध की जीवन-कथाओं में वर्णित है कि सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु को छोड़ने के पश्चात् इस नदी को अपने घोड़े कंथक पर पार किया था और यहीं से अपने परिचारक छंदक को विदा कर दिया था इस स्थान पर उन्होंने राजसी वस्त्र उतार कर अपने केशों को काट कर फेंक दिया था। किंवदंती के अनुसार जिला बस्ती, उ0 प्र0 में खलीलाबाद रेलस्टेशन से लगभग 6 मील दक्षिण की ओर जो कुदवा नाम का एक छोटा-सा नाला बहता है वही प्राचीन अनोमा है और क्योंकि सिद्धार्थ के घोड़े ने यह नदी कूद कर पार की थी इसलिए कालांतर में इसका नाम 'कुदवा' हो गया। कुदवा से एक मील दक्षिण-पूर्व की ओर एक मील लम्बे चौड़े क्षेत्र में खण्डहर हैं जहाँ तामेश्वरनाथ का वर्तमान मंदिर है। युवानच्वांग के वर्णन के अनुसार इस स्थान के निकट अशोक के तीन स्तूप थे जिनसे बुद्ध के जीवन की इस स्थान पर घटने वाली उपर्युक्त घटनाओं का बोध होता था। इन स्तूपों के अवशेष शायद तामेश्वरनाथ मंदिर कमे तीन मील उत्तर पश्चिम की ओर बसे हुए महायानडीह नामक ग्राम के आसपास तीन ढूहों के रूप में आज भी देखे जा सकते हैं। यह ढूह मगहर स्टेशन से दो मील दक्षिण-पश्चिम में हैं। श्री बी0 सी0 लॉ के मत में जिला गोरखपुर की ओमी नदी ही प्राचीन अनोमा है।
आमू
Friday, June 04, 2010 3:42 PM
दक्षिण-पश्चिमी एशिया में अफगानिस्तान तथा दक्षिणी रूस की सीमा पर बहने वाली नदी जिसे प्राचीन भारतीय साहित्य में वंक्षु और विष्णुपुराण में चक्ष कहा गया है। ग्रीक लोग इसे आक्सस कहते थे।
अजकूला
Friday, June 04, 2010 3:18 PM
वाल्मीकि-रामायण (अयोध्याकांड) में उल्लिखित नदी जिसका अभिज्ञान स्यालकोट (पाकिस्तान) के पास बहने वाली आजी नदी से किया गया है।
अलकनंदा
Friday, June 04, 2010 3:15 PM
अलकनंदा कैलास और बद्रीनाथ के निकट बहने वाली गंगा की एक शाखा। कालिदास ने मेघदूत में जिस अलकापुरी का वर्णन किया है वह कैलास पर्वत के निकट अलकंनदा के तट पर ही बसी होगी जैसा कि नाम-साम्य से प्रकट भी होता है। कालिदास ने अलका की स्थिति गंगा की गोदी में मानी है और गंगा से यहां अलकनंदा का ही निर्देश माना जा सकता है। संभवत: प्राचीन काल में पौराणिक परंपरा में अलकनंदा को ही गंगा का मूलस्त्रोत माना जाता था क्योंकि गंगा को स्वर्ग से गिरने के पश्चात् सर्वप्रथम शिव ने अपनी अलकों अर्थात् जटाजूट में बांध लिया था जिसके कारण नदी को शायद अलकनंदा कहा गया। अलकनंदा का वर्णन महाभारत वन0 के अंतर्गत तीर्थयात्रा प्रसंग में है जहां इसे भागीरथी नाम से भी अभिहित किया गया है और इसका उद्गम बदरिकाश्रम के निकट ही बताया गया है- 'नर नारायणस्थानं भागीरथ्योपशोभितम्'- वन0 145, 41 । यह भागीरथी अलकनंदा ही है क्योंकि नर नारायण-आश्रम अलकनंदा के तट पर ही है। वास्तव में महाभारत ने इस स्थान पर गंगा की दोनों शाखाओं- भागीरथी जो गंगोत्री से सीधी देवप्रयास आती है। और अलकनंदा जो कैलास और बदरिकाश्रम होती हुई देवप्रयाग में आकर भागीरथी से मिल जाती है- को अभिन्न ही माना है। विष्णु0 2,2,35 में भी अलकनंदा का उल्लेख है- 'तथैवालकनंदापि दक्षिणेनैत्यभारतम्'। अलकनंदा और नंदा के संगम पर नंदप्रयास स्थित है।
अजय (प0 बंगाल)
Friday, June 04, 2010 3:11 PM
गीतगोविंद के विश्रुत कवि जयदेव के निवास-स्थान केंदुबिल्व या वर्तमान केंदुली के निकट बहने वाली नदी।
अचिरवती=अचिरावती अविरावती=अजिरावती
Friday, June 04, 2010 2:16 PM
बौद्ध साहित्य में विख्यात नदी है। इस नदी के तट पर बौद्धकाल की प्रसिद्ध नगरी श्रावस्ती बसी हुई थी। इसका अभिज्ञान छोटी राप्ती से किया गया है जो गंडक में मिलती है। संगमस्थान नेपाल में स्थित है (दे0 विंसेंट स्मिथ-अर्ली हिस्ट्री आव इंडिया, पृ0 167) बौद्ध-साहित्य में नदी का नाम अचिरवती भी मिलता है। शायद अतितवती भी अचिरवती का ही अपभ्रष्ट रूप है। जैन-ग्रंथ कल्पसूत्र (पृ0 12) में इस नदी को इरावइ या इरावती कहा गया है। श्री बी0 सी0 लॉ के अनुसार यह सरयू की सहायक राप्ती नदी है। (दे0 हिस्टॉरिकल ज्योग्रेफी आव एंशेंट इंडिया, पृ0 61)।
आर्यकुल्या
Friday, June 04, 2010 2:07 PM
आर्यकुल्या विष्णुपुराण 2,3,13 में वर्णित एक नदी जो महेंद्रपर्वत (उड़ीसा) से उद्भूत मानी गई है- 'त्रिसामा चार्यकुल्याद्यामहेंद्रप्रभवा: स्मृता:'। यह नदी पास ही बहने वाली दूसरी नदी ऋषिकुल्या से भिन्न है क्योंकि ऋषिकुल्या का उल्लेख विष्णु0 2, 3, 14 में पृथक् रूप से है।
आपगा (1)पंजाब की एक नदी- 'शाकलं नाम नगरमापगा नाम निम्नगा, अर्तिकानाम वाहीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम्' महा0 कर्ण0 44, 10 अर्थात् वाहीक या आरट्ट देश में शाकल- वर्तमान स्यालकोट- नाम का नगर और आपगा नाम की नदी है जहां जर्तिक नाम के वाहीक रहते हैं, उनका चरित्र अत्यंत निंदित है। इससे स्पष्ट है कि आपगा स्यालकोट (पाकिस्तान) के पास बहने वाली नदी थी। इसका अभिज्ञान स्यालकोट की 'ऐक' नाम की छोटी-सी नदी से किया गया है। यह चिनाब की सहायक नदी है। (2)वामन-पुराण में (39, 6-8) आपगा नदी का उल्लेख है जो कुरुक्षेत्र की सात पुण्य नदियों में से है- 'सरस्वती नदी पुण्या तथा वैतरणी नदी, आपगा च महापुण्या गंगा मंदाकिनी नदी। मधुश्रुवा अम्लुनदी कौशिकी पापनाशिनी, दृशद्वती महापुण्या तथा हिरण्यवती नदी'। कहा जाता है यह नदी जो अब अधिकांश में विलुप्त हो गई है कुरुक्षेत्र के ब्रह्मसर से एक मील दूर आपगा-सरोवर के रूप में आज भी दृश्यमान है। संभव है, महाभारत और वामनपुराण की नदियां एक ही हों, यदि ऐसा है तो नदी के गुणों में जो दोनों ग्रन्थों में वैषम्य वर्णित है वह आश्चर्यजनक है। नदियां भिन्न भी हो सकती हैं।
आकाशगंगा
Friday, June 04, 2010 1:50 PM
आकाशगंगा 'आकाशगंगा प्रयता: पांडवास्तेऽभ्यवादयन्' महा0, वन0 142,11 । इस नदी का बदरिकाश्रम के निकट उल्लेख है। जिससे यह गंगा की अलकनंदा नाम की शाखा जाने पड़ती है। पौराणिक किंवदंती में गंगा को आकाश मार्ग से जाने वाली नदी माना जाता था (दे0 त्रिपथगा)। बदरिकाश्रम के निकट, महाभारत में, जिस वैहायसह्रद का उल्लेख है वह आकाशगंगा या अलकंनदा का ही स्रोत जान पड़ता है- 'यत्र साबदरी रम्या ह्रदोवैहायसस्तथा' शांति0, 127, 3 ।
दशार्ण (धसान ) नदी
Friday, May 21, 2010 6:05 PM
बेतवा की सहायक नदी धसान नदी के नाम में अवशिष्ट है। कुछ विद्वान इसका नामाकरण दशार्ण (धसान ) नदी के कारण मानते हैं, जो दस छोटी- बड़ी नदियों के समवाय- रुप में बहती थी।
चंबल नदी ( चर्मण्वती)
Wednesday, May 05, 2010 3:20 PM
महाभारत के अनुसार राजा रंतिदेव के यज्ञों में जो आर्द्र चर्मराशि इकट्ठा हो गई थी उसी से यह नदी उदभुत हुई थी - 'महानदी चर्मराशेरूत्क्लेदात् ससृजेयतःततश्चर्मण्वतीत्येवं विख्याता स महानदी' शान्ति0 29,123। कालीदास ने भी मेघदूत-पूर्वमेघ 47 में चर्मण्वती को रतिदेव की कीर्ति का मूर्तस्वरूप कहा गया है-आराध्यैनं शदवनभवं देवमुल्लघिताध्वा, सिद्धद्वन्द्वैर्जलकण भयाद्वीणिभिदैत्त मार्गः व्यालम्बेथास्सुरभितनयालंभजां मानयिष्यन्, स्रोतो मूत्यभुवि परिणतां रंतिदेवस्य कीर्तिः'। इन उल्लेखों से यह जान पड़ता है कि रंतिदेव ने चर्मवती के तट पर अनेक यज्ञ किए थे। महाभारत 2, 31, 7 में भी चर्मवती का उल्लेख है - 'ततश्चर्मणवती कूले जंभकस्यात्मजं नृपं ददर्श वासुदेवेन शेषितं पूर्ववैरिणा' – अर्थात इसके पश्चात सहदेव ने (दक्षिण दिशा की विजय यात्रा के प्रसंग में) चर्मण्वती के तट पर जंभक के पुत्र को देखा जिसे उसके पूर्व शत्रु वासुदेव ने जीवित छोड़ दिया था। सहदेव इसे युद्ध में हराकर दक्षिण की ओर अग्रसर हुए थे। चर्मण्वती नदी को वनपर्व के तीर्थ यात्रा अनुपर्व में पुण्य नदी माना गया है - 'चर्मण्वती समासाद्य नियतों नियताशनः रंतिदेवाभ्यनुज्ञातमग्निष्टोमफलं लभेत्'। श्रीमदभागवत् 5, 19, 18 में चर्मवती का नर्मदा के साथ उल्लेख है - 'सुरसानर्मदा चर्मण्वती सिंधुरंधः'- इस नदी का उदगम जनपव की पहाड़ियों से हुआ है। यहीं से गंभीरा नदी भी निकलती है। यह यमुना की सहायक नदी है। महाभारत वन0 308, 25-26 में अश्वनदी का चर्मण्वती में, चर्मण्वती का यमुना में और यमुना का गंगा में मिलने का उल्लेख है – मंजूषात्वश्वनद्याः सा ययौ चर्मण्वती नदीम्, चर्मण्वत्याश्व यमुना ततो गंगा जगामह। गंगायाः सूतविषये चंपामनुययौपुरीम्'।
चंबल नदी
Tuesday, May 04, 2010 4:29 PM
नदी, उत्तर भारत, चंबल यमुना नदी की मुख्य सहायक नदी है और मध्य प्रदेश राज्य के पश्चिम में विंध्य पर्वतमाला के ठीक दक्षिण में महू से निकलती है, अपने उद्गम से उत्तर में यह राजस्थान राज्य के दक्षिण- पूर्वी भाग में बहती है। पूर्वोत्तर में मुड़कर यह कोटा के पृष्ठ भाग तथा राजस्थान मध्य प्रदेश की सीमा के समानांतर बहती है; पूर्व-दक्षिण पूर्व में सरककर यह उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश सीमा के एक हिस्से का निर्माण करती है और उत्तर प्रदेश में बहते हुए 900 किमी की दूरी तय करके यमुना नदी में मिल जाती है। बनास, काली सिंध, शिप्रा और पार्वती इसकी मुख्य सहायक नदियां हैं। चंबल के निचले क्षेत्र में 16 किमी लंबी पट्टी, बीहड़ क्षेत्र है, जो त्वरित मृदा अपरदन का परिणाम है और मृदा संरक्षण का एक प्रमुख परियोजना स्थल है।
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कावेरी नदी
Wednesday, May 05, 2010 3:07 PM
दक्षिण भारत की प्रसिद्ध नदी। इसका उद्गम कुर्ग में ताल कावेरी या ब्रह्मगिरी नामक स्थान है। कावेरी का शाब्दिक अर्थ हरिद्रा के रंगवाली नदी है। रामायण किष्किंधाकांड 41,21,25 में इसका उल्लेख है। महाभारत सभा0 9,20 में कावेरी का इस प्रकार वर्णन है-'गोदावरी कृष्णवेणा कावेरी च सरिद्वारा किंपुना च विशल्या च तथा वैतरणी नदी'। भीष्म0 9,20 में नदियों की विशाल सूची में कावेरी का नाम आया है-शरावतीं पयोष्णीं चवेणां भीमरथीमपि, कावेरी चुलुकां चापिवाणीं शतबलमपि'। श्रीमदभागवत् 5,19,18 में भी कावेरी का नाम नदियों के प्रसंग में है। चंद्रवसा ताभ्रपर्णी अवटोदा मृतमाला वैहायसी कावेरी वेणी। कालिदास ने रघु की दिग्विजय यात्रा में कावेरी का श्रृंगारिक वर्णन इस प्रकार किया है-'स सैन्य परिभोगेन मजदान सुगंधिना, कावेरी सरितां पत्युः शंकनीयामिवाकरोत्' रघु0 4,45 । दक्षिण भारत के इतिहास में कावेरी का पल्लवनरेशों की प्रिय नदी के रूप में उल्लेख है। कावेरी पांडिचेरी के दक्षिण में बंगाल की खाड़ी में गिरती है। नर्मदा की उपधारा का नाम। मांधाता नामक तीर्थ और कावेरी से घिरे हुए एक द्वीप पर बसा है। कावेरी वास्तव में नर्मदा की एक धारा है, जो मांधाता के अंत में पहुंच कर पुनः मुख्य धारा में मिल जाती है।
कावेरी
Tuesday, May 04, 2010 5:00 PM
दक्षिण की गंगा कहलाने वाली कावेरी का वर्णन कई पुराणों में बार-बार आया है । इसे बहुत पवित्र नदी माना गया है। कवि त्यागराज ने इसका वर्णन अपनी कविताओं में कई जगह किया है। भक्तगण इसे अपनी मां के समान मानते हैं । इसके उद्गमस्थल कावेरी कुंड में हर साल देवी कावेरी का जन्मोत्सव मनाया जाता है । दक्षिण की प्रमुख नदी कावेरी का विस्तृत विवरण विष्णुपुराण में दिया गया है । यह सह्याद्रि पर्वत के दक्षिणी छोर से निकल कर दक्षिण-पूर्व की दिशा में कर्नाटक तथा तमिलनाडु से बहती हुई करीब 800 किमी मार्ग तय कर कावेरीपट्टनम के पास बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है । कावेरी में मिलने के वाली मुख्य सरिताओं में हरंगी, हेमवती, नोयिल, अमरावती, सिमसा , लक्ष्मणतीर्थ, भवानी , काबिनी उल्लेखनीय हैं । कावेरी तट पर अनेक प्राचीन तीर्थ तथा ऐतिहासिक नगर बसे हैं । यह नदी तीन स्थानों पर दो शाखाओं में बंट कर फिर एक हो जाती है । इससे तीन द्वीप बन गए हैं, जिन पर क्रमश: आदिरंगम , शिवसमुद्रम तथा श्रीरंगम् नाम से श्री विष्णु भगवान के भव्य मंदिर हैं । महान् शैवतीर्थ चिदम्बरम् तथा जंबुकेश्वरम् भी श्रीरंगम के पास स्थित हैं । इनके अलावा प्राचीन तथा गौरवमय तीर्थ नगर तंजौर , कुंभकोणम तथा त्रिचिरापल्ली इसी पवित्र नदी के निकट स्थित हैं, जिनसे कावेरी की महत्ता बढ़ गई है । मैसूर के पास कृष्णराजसागर पर दर्शनीय ‘वृंदावन गार्डन’ इसी नदी के किनारे पर निर्मित है।
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गंगा
Wednesday, May 05, 2010 3:05 PM
उत्तरी भारत की सर्वप्रसिद्ध नदी जो गंगोत्री पहाड़ से निकलकर उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल से बहती हुई गंगासागर नामक स्थान पर समुद्र में मिल जाती है। कालिदास ने पूर्वमेघ (मेघदूत) 65 में गंगा का कैलासपर्वत (मानसरोवर के पास, तिब्ब्त) की गोद में अवस्थित बतलाया है। जिससे पौराणिक परंपरा में गंगा का, भारत की कई अन्य नदियां (सिंधु, पंजाब की पांचों नदियां, सरयू तथा ब्रह्मपुत्र आदि) के समान मानसरोवर से उद्गम होना सूचित होता है। गंगा का एक मूल स्रोत वास्तव में मानसरोवर ही है। कालिदास ने अलका की स्थिति गंगा के निकट ही मानी है। तथ्य यह है कि हिमालय में गंगा की कई शाखाएं हैं। सीधी धारा तो गंगोत्री से देवप्रयाग होती हुई हरिद्वार आती है और अन्य कई धाराएं जैसे भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी, नंदाकिनी आदि विभिन्न पर्वत-श्रृगों से निकल कर पहाड़ों में ही मुख्य धारा से मिल जाती हैं। गंगा की जो धारा कैलाश और बदरिकाश्रम मार्ग से बहती आई है उसे अलकनंदा कहते हैं। कालिदास की अलका इसी अलकनंदा-गंगा के किनारे स्थित रही होगी जैसा कि नाम-साम्य से भी सूचित होता है। गंगा का सर्वप्राचीन साहित्य उललेख ऋग्वेद के नदी-सूक्त 10,75 में है। 'इमे मे गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रिस्तोमं सचता परूष्णया असिक्न्या मरूदवृघे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया। गंगा का नाम किसी अन्य वेद में नहीं मिलता। वैदिक काल में गंगा कि महिमा इतनी नहीं थी जितनी सरस्वती या पंजाब की अन्य नदियों की, क्योंकि वैदिक सभ्यता का मुख्य केद्र उस समय तक पंजाब में ही था। रामायण के समय गंगा का महत्व पूरी तरह से स्थापित हो गया था। वाल्मीकि ने राम के वन जाते समय उनके गंगा को पार करने के प्रसंग में गंगा का सुंदर वर्णन किया है। गंगा को रामायण के समय में ही शिव के जटाजूट से निस्सृत, देवताओं और ऋषियों से सेवित, तीनों लोकों में प्रवाहित होने वाली (त्रिपथगा) पवित्र नदी माना जाने लगा था। अयोध्या0 52,86-87-88-89-90 में कुशलतापूर्वक वन से लौट आने के लिए सीता ने गंगा जी की जो प्रार्थना की है उससे भी स्पष्ट है कि गंगा को उसी काल में पवित्र तथा फलप्रदायिनी नदी समझा जाने लगा था। उपर्युक्त 52,80 में गंगा नदी के तट पर तीर्थों का भी उललेख है-'यानित्वत्तीरवासीनि दैवतानि च सन्ति हि, तानि सर्वाणि यायामि तीर्थान्यायतनानि च'। बाल0 अध्याय 35 में गंगा की उत्पत्ति की कक्षा भी वर्णित है। महाभारत काल में गंगा नदी सभी नदियों में प्रमुख समझी जाती थी। भीष्म 9,14 तथा अनुवर्ती श्लोकों में भारत की लगभग सभी प्रसिद्ध नदियों की नामावली है। इनमें गंगा का नाम सर्वप्रथम है। 'नदी पिबन्ति विपुलां गंगा सिंधु सरस्वतिम्, गोदावरी नर्मदा च बाहुदां च महानदीम्'-'एषा शिवजला पुण्या याति सौम्य महानदी, बदरीप्रभवाराजन् देवर्षिगणसेविताय। महा0 वन0 142-4 में गंगा को बदरीनाथ के पास से उदभुत माना गया है। पुराणों में तो गंगा की महिमा भरी पड़ी है और असंख्य बार इस पवित्र नदी का उल्लेख है। विष्णुपुराण 2,2,32 में गंगा को विष्णुपादोदभवा कहा है-'विष्णुपाद विनिष्क्रान्तां प्लावयित्वेन्दुमंडलम्, समन्ताद्ब ब्रह्मणः पुर्या गंगा पतति वै-दिवः'। श्रीमदभागवत् 5,19,18 में गंगा को मंदाकिनी कहा गया है-'कौशिकी मंदाकिनी यमुना सरस्वती दृषद्वती-'। स्कंदपुराण का तो एक अंग ही गंगा तथा उसके तटवर्ती तीर्थों से भरा हुआ है। बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में भी गंगा के अनेक उल्लेख हैं-'उत्तीर्य गंगा प्रचलत्तरंगा श्रीमदगृहं राजगृहं जगाम'। जैन ग्रंथ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में गंगा को, चुल्लहिमवत् के एक विशाल सरोवर के पूर्व की ओर से और सिंधु को पश्चिम की ओर से निस्सृत माना गया है। यह सरोवर अवश्य ही मानसरोवर है। परवर्तीकाल में (शाहजहां के समय) पंडितराज जगन्नाथ ने गंगालहरी लिखकर गंगा की महिमा पाई है। गंगा-यमुना के संगम का उल्लेख रामायण अयाध्या0 54,8 तथा रघुवंश 13,54-55-56-57 में है-गंगा के भागीरथी, जाह्नवी, त्रिपथगा, मंदाकिनी, सुरनदी, सुरसरी आदि अनेक नाम साहित्य में आए हैं। वाल्मीकि-रामायण तथा परवर्ती काव्यों तथा पुराणों में चक्षु या वंक्षु और सीता (तरिम) को गंगा की ही शाखाएं माना जाता है। गंगाद्वार गंगा के पहाड़ों से नीचे आकर मैदान में प्रवाहित होने का स्थान था हरिद्वार। इसका उल्लेख महाभारत में अनेक बार आया है। आदि0 213,6 में अर्जुन का अपने द्वादशवर्षीय वनवासकाल में यहां कुछ समय तक ठहरने का वर्णन है-'सगंगाद्वारभाश्रित्य निवेशमकरोत् प्रभूः'। गंगाद्वार से ही अर्जुन ने पाताल में प्रवेश कर उस देश की राजकन्या उलूपी से विवाह किया था। 'एतस्याः सलिलं मूघ्नि वृषांकः पर्यधारयत् गंगाद्वारे महाभाग येन लोकस्थितिर्भवेत्'-महा0 वन0 142,9 अर्थात शिव ने गंगाद्वार में इसी नदी का पावन जल लोकरक्षणार्थ अपने सिर पर धारण किया था। महाभारत वन0 97,11 में गंगाद्वार में अगस्त्य की तपस्या का उल्लेख है-'गंगाद्वारमथागम्य भगवानृषि-सत्तमः, उग्रमातिष्ठत तपः सह पत्न्यानुकूलया'।
पतितपावनी गंगा
Tuesday, May 04, 2010 5:02 PM
धातु: कमण्डलुजलं तदुरुक्रमस्य पादावनेजन पवित्रतया नरेन्द्र । अर्थात् ‘साक्षात् भगवान त्रिविक्रम विष्णु के तीन पगों (पृथ्वी, स्वर्ग आदि) की लांघते हुए वामपाद के अंगुष्ठ से निकलकर उनके चरण कमल को धोती हुई, भगवती गंगा जगत् के पापों का नाश करती हुई, स्वर्ग से हिमालय के ब्रह्मसदन में अवतीर्ण हुई ।’ भारत ही नहीं, बल्कि संसार भर में गंगा नदी को पवित्रतम नदी की मान्यता है । सूर्यवंशी सम्राट् भगीरथ के अथक प्रयासों से देवलोक की यह पावनधारा भारतभूमि पर लायी गई थी। उत्तरांचल में हिमालय के गंगोत्री नामक हिमनद में स्थित गोमुख में इसका उद्-गम है । गंगा की श्रेष्ठता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है की वर्षों तक रखे रहने पर भी गंगा जल दूषित नहीं होता है । गंगा के तट पर अनेक प्रसिद्ध नगर और तीर्थस्थल हैं । इनमें देवप्रयाग, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, प्रयागराज, वाराणसी, बक्सर, पटना , भागलपुर, कोलकाता मुख्य हैं । पावन नदी गंगा को वेद और पुराणों में अनेक नामों से संबोधित किया गया है, यथा- देवसरिता, भागीरथी, जाह्नवी, त्रिपथगा आदि । उत्तर-भारत की प्रमुख जलधारा गंगा में स्थान-स्थान पर कई सरिताएं मिलती हैं । इस मिलन स्थल को संगम कहा जाता है । प्रयागराज में गंगा, यमुना तथा सरस्वती का संगम है। त्रिवेणी नाम से सुप्रसिद्ध इस स्थान को परम पवित्र माना जाता है । यहीं पर बारह वर्षों पर कुंभ का आयोजन होता है । हिंदु-परंपरा में त्रिवेणी-संगम पर स्नान और ध्यान का विशेष महत्त्व है। यमुना के अलावा गंगा की अनेक सहायक नदियां हैं , जिनमें अलकनंदा , रामगंगा , टोंस , गोमती , घाघरा, सोन, गंडक, पुनपुन, किऊल, कोसी और महानंदा मुख्य हैं । शाखा के रूप में हुगली , प्रवाहपथ में मिलने वाली सरिताओं में अजय, दामोदर, द्वारकेश्वरी और रूपनारायण सरिताएं मुख्य हैं । अपने उद्-गम स्थल गंगोत्री से लेकर बंगाल की खाड़ी में गंगासागर तक गंगा की जलधारा की कुल लंबाई 2525 किमी है । गंगोत्री समुद्र-स्तर से 10,020 फीट की ऊंचाई पर स्थित है । यहां गंगा चालीस फीट चौड़ी और तीन फीट गहरी है । इसकी एक शाखा बिहार और पश्चिम बंगाल की सीमा से बाहर निकलकर बांग्लादेश में चली जाती हैं, जहां इसका नाम पद्मा हो गया है । अनेक सहायक नदियों का जल तथा भारी मात्रा में रेत गाद लेकर गंगानदी सागर में मिलने के पहले कई शाखाओं और उपशाखाओं में बंट जाती है । ये शाखाएं बंगाल में ब्रह्मपुत्र के साथ मिलकर एक विशाल डेल्टा (पंकिल वनाच्छादित इलाका) बनाती हैं, जिसका नाम सुंदरवन है। दो विशाल नदियों की जलधाराओं द्वारा निर्मित यह सुंदरवन डेल्टा संसार का सबसे बड़ा डेल्टा माना जाता है। गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक पावन गंगा के तटों पर अनेक महत्त्वपूर्ण तीर्थ हैं । धार्मिक ग्रंथों में गंगा-दर्शन, पूजन और स्नान का बहुत महत्त्व बताया गया है । गंगातट तथा संगमस्थल पर श्रद्धालुओं द्वारा कल्पवास से प्रभु प्रसन्न होते हैं तथा भक्तों को अक्षयपुण्य प्राप्त होता है । अन्य दर्शनीय स्थल गंगाजी का मंदिर:- यह गंगोत्री का मुख्य मंदिर है । यहां शंकराचार्य ने गंगा की मूर्ति प्रतिष्ठित की । यहां भगीरथ, यमुना, सरस्वती एवं शंकराचार्य की मूर्ति भी प्रतिष्ठित हैं । भागीरथ शिला:- इस शिला पर भगीरथ ने तप किया । यहां गंगा मैया को तुलसी चढ़ाई जाती है। इस शिला पर पिंडदान भी किया जाता है । मार्कण्डेय क्षेत्र:- मार्कण्डेय ॠषि की तपस्थली है । शीतकाल में गंगोत्री के हिमाच्छादित होने पर चल मूर्ति यहां लाई जाती है और यहीं उनकी पूजा-अर्चना होती है । गौरी कुंड:- यहां कुंड में स्थित शिवलिंग पर बहुत ऊंचाई से गंगा गिरती है ।
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गंगा-2
Sunday, November 29, 2009 6:34 PM
हिन्दू धर्मकोश गंगा— (पेज नम्बर-220 पर देखें) गंगा-भारत की सर्वाधिक पवित्र पुण्यसलिला नदी। राजा भगीरथ तपस्या करके गंगा को पृथ्वी पर लाये थे। यह कथा भागवत पुराण में विस्तार से हैं। आदित्य पुराण के अनुसार पृथ्वी पर गंगावतरण वैशाख शुक्ल तृतीया को तथा हिमालय से गंगानिर्गमन ज्येष्ठ शुक्ल दशमी (गंगादशहरा) को हुआ था। इसको दशहरा इसलिए कहते है कि इस दिन का गंगास्नान दस पांपों को हरता है। कई प्रमुख तीर्थस्थान-हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, सोरों, प्रयाग, काशी आदि इसी के तट पर स्थित है। ऋग्वेद के नदीसूक्त (10.75.5-6) के अनुसार गंगा भारत की कई प्रसिद्ध नदियों में से सर्वप्रथम है। महाभारत तथा पद्मपुराणादि में गंगा की महिमा तथा पवित्र करनेवाली शक्तियों की विस्तारपूर्वक प्रशंसा की गयी है। स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (अध्याय 29) में इसके सहस्त्र नामों का उल्लेख है। इसके भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों रूपों की ओर विद्वानों ने संकेत किये है। अत: गंगा का भौतिक रूप के साथ एक पारमार्थिक रूप भी है। वनपर्व के अनुसार यद्यपि कुरूक्षेत्र में स्नान करके मनुष्य पुण्य को प्राप्त कर सकता हहै, पर कनखल और प्रयाग के स्नान में अपेक्षाकृत अधिक विशेषता है। प्रयाग के स्नान को सबसे अधिक पवित्र माना गया है। यदि कोई व्यक्ति सैकड़ों पाप करके भी गंगा (प्रयाग) में स्नान कर ले तो उसके सभी पाप धुल जाते है। इसमें स्नान करने या इसका जल पीने से पूर्वजों की सातवीं पीढ़ी तक पवित्र हो जाती है। गंगाजल मनुष्य की अस्थियों को जितनी ही देर तक स्पर्श करता है उसे उतनी ही अधिक स्वर्ग में प्रसन्नता या प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। जिन-जिन स्थानों से होकर गंगा बहती है उन स्थानों को इससे संबद्ध होने के कारण पूर्ण पवित्र माना गया है। गीता (10.31) में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने को नदियों में गंगा कहा है। मनुस्मृति (8.92) में गंगा और कुरूक्षेत्र को सबसे अधिक पवित्र स्थान माना गया है। कुछ पुराणों में गंगा की तीन धाराओं का उल्लेख हैं—स्वर्गगंगा (मन्दाकिनी), भूगंगा (भागीरथी) और पातालगंगा (भोगवती)। पुराणों में भगवान् विष्णु के बायें चरण के अँगूठे के रख से गंगा का जन्म और भगवान् शंकर की जटाओं में उसका विलयन बताया गया है। विष्णुपुराण (2.8.120-121) में लिखा है कि गंगा का नाम लेने, सुनने, उसे देखने, उसका जल पीने, स्पर्श करने, उसमें स्नान करने ता सौ योजन से भी 'गंगा' नाम का उच्चारण करने मात्र से मनुष्य के तीन जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते है। भविष्यपुराण (पृष्ठ 9,12 तथा 198) में भी यही कहा है। मत्स्य, गरूड और पद्मपुराणों के अनुसार हरिद्वार, प्रयाग और गंगा के समुद्रसंगम में स्नान करने से मनुष्य करने पर स्वर्ग पहुँच जाता है और फिर कभी उत्पन्न नहीं होता। उसे निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। मनुष्य गंगा के महत्त्व को मानता हो या न मानता हो यदि वह गंगा के समीप लाया जाय और वहीं मृत्यु को प्राप्त हो तो भी वह स्वर्ग को जात है और नरक नहीं देखता। वराहपुराण (अध्याय 82) में गंगा के नाम को 'गाम् गता' (जो पृथ्वी को चली गयी है) के रूप में विवेचित किया गया है। पद्मपुराण (सृष्टिखंड, 60.35) के अनुसार गंगा सभी प्रकार के पतितों का उद्धार कर देती है। कहा जाता है कि गंगा में स्नान करते समय व्यक्ति को गंगा के सभी नामों का उच्चारण करना चाहिए। उसे जल तथा मिट्टी लेकर गंगा से याचना करनी चाहिए कि आप मेरे पापों को दूर कर तीनों लोकों का उत्तम मार्ग प्रशस्त करें। बुद्धिमान् व्यक्ति हाथ में दर्भ लेकर पितरों की सन्तुष्टि के लिए गंगा से प्रार्थना करे। इसके बाद उसे श्रद्धा के साथ सूर्य भगवान् कोक कमल के फूल तथा अक्षत इत्यादि समर्पण करना चाहिए। उसे यह भी कहना चाहिए कि वे उसके दोषों को दूर करें। काशीखण्ड (27.80) में कहा गया है कि जो लोग गंगा के तट पर खड़े होकर दूसरे तीर्थों की प्रशंसा करते है और अपने मन में उच्च विचार नहीं रखते, वे नरक में जाते हैं। काशीखण्ड (27.129-131) में यह भी कहा गया है कि शुक्ल प्रतिपदा को गंगास्नान नित्यस्नान से सौगुना, संक्रान्ति का स्नान सहस्त्रगुना, चन्द्र-सूर्यग्रहण का स्नान लाखगुना लाभदायक है। चन्द्रग्रहण सोमवार को तथा सूर्यग्रहण रविवार को पड़ने पर उस दिन का गंगास्नान असंख्यगुना पुण्यकारक है। भविष्यपुराण में गंगा के निम्नांकित रूप का ध्यान करने का विधान है: सितमकरनिषण्णां शुक्लवर्णां त्रिनेत्राम् करधृतकमलोद्यत्सूत्पलाऽभीत्यभीष्टाम् । विधिहरिहररूपां सेन्दुकोटीरचूडाम् कलितसितदुकूलां जाह्नवीं तां नमामि ॥ गंगा के स्मरण और दर्शन का बहुत बड़ा फल बतलाया गया है: दृष्टा तु हरते पापं स्पृष्टा तु त्रिदिवं नयेत्। प्रसगेंनापि या गंगा मोक्षदा त्ववगाहिता ॥ मिथक कोश गंगा— (पेज नम्बर-83 से 84 तक देखें) गंगा- पार्वती के विवाह के समय उसके पांव के अंगूठे को देखने मात्र से ब्रह्मा काम-विमोहित हो उठा। लज्जावश उसने अपने पतित वीर्य को चूर्ण कर दिया जिससे बालखिल्य उत्पन्न हुए। देवताओं ने देखकर हाहाकार मचाया। ब्रह्मा बाहर चले गये। शिव ने नंदी को भेजकर उन्हें बुलवाया। शिव ने कहा-"जल तथा पृथ्वी सबके पापों का नाश करते हैं।" शिव ने दोनों का सार तत्त्व जल के रूप में निकालकर पृथ्वी-रूपी कमंडलु में रखा। उसमें तीनों लोकों को पवित्र करने की शक्ति का आवाहन करके ब्रह्मा को थमा दिया। विष्णु ने जब 'वामन' अवतार लिया और 'पग' से धरती नापने लगे तब उनका दूसरा चरण ब्रह्मा के लोक तक पहुंचा। उनकी अर्चना के निमित्त ब्रह्मा ने शिव का दिया पावनजल युक्त कमंडलु वामन के चरण पर अर्पित कर दिया। वह जल विष्णु के चरण का प्राक्षालन करके मेरू पर्वत पर गिरा। वह चार भागों में विभक्त हो गया तथा चारों दिशाओं में पृथ्वी पर गिर पड़ा। दक्षिण में गिरनेवाली धारा को शिव ने अपनी जटाओं में धारण किया। पश्चिम में गिरा जल ब्रह्मा के कमंडलु में आ गया, उत्तर दिशा में गिरनेवाली जलधारा विष्णु ने स्वयं ग्रहण की। पूर्व से गिरनेवाली धारा को ऋषिदेव पितर और लोकपालों आदि ने ले लिया। शिव ने ब्रह्मा के दोष के निवारण के लिए गंगा को जुटाया था। किंतु स्वयं उस पर मोहित हो गये। शिव उसे निरंतर अपनी जटाओं में छिपाकर रखते थे। पार्वती अत्यंत क्षुब्ध थी तथा उसे सौतवत् मानती थी। पार्वती ने अपने दोनों पुत्रों तथा एक कन्या (गणेश, स्कंद तथा जया) को बुलाकर इस विषय में बताया। गणेश ने एक उपायश सोचा। उन दिनों समस्त भूमंडल पर अकाल का प्रकोप था। एकमात्र गौतम ऋषि के आश्रम में खाद्य पदार्थ थे क्योंकि उस आश्रम की स्थापना उस पहाड़ पर की गयी थी जहां पहले शिव तपस्या कर चुके थे। अनेक ब्राह्मण उनकी शरण में पहुंचे हुए थे। गणेश ने स्वयं ब्राह्मणवेश धारण किया ता जया को गाय का रूप धारण करने को कहा, साथ ही उसे आदेश दिया कि वह आश्रम में जाकर गेहूं के पौधे खाना आरंभ करे, रोकने पर बेहोश होकर गिर जाये। वहां पहुंचकर उन दोनों ने वैसा ही किया। मुनि ने तिनके से गाय को हटाने का प्रयास किया तो वह जड़वत् गिर गयी। ब्राह्मणों के साथ गणेश ने गौतम के पाप-कर्म की ओर संकेत कर तुरंत आश्रम छोड़ने की इच्छा प्रकट की। गोहत्या के पाप से दुखी गौतम ने पूछा कि पाप का निराकरण कैसे किया जाये। गणेश ने कहा-" शिव की जटाओं में गंगा का पुनीत जल है, तपस्या करके उन्हें प्रसन्न करो। गंगा को पर्वत पर लाओ और इस गऊ पर छिड़को। इस प्रकार पाप-शमन होने पर ही हम सब यहां रह सकेंगे।" गौतम तपस्यारत हो गये। उससे प्रसन्न होकर शिव अपनी जटाओं में समेटी हुई गंगा का एक अंश उसे प्रदान कर दिया। गौतम ने यह भी वर मांगा कि वह धरती पर सागर से मिलने से पूर्व अत्यंत पावन रहेगी तथा सबके पापों का नाश करनेवाली होगी। गौतम गंगा को लेकर ब्रह्म गिरि पहुंचे। वहां सबने गंगा की पूजा-अर्चना की। गंगा ने गौतम से पूछा-"मैं देवलोक जाऊं? कमंडलु में अथवा रसातल में?" गौतम ने कहा-"मैंने शिव से तीनों लोकों के उपकार के लिए तुम्हें मांगा था। गंगा ने पंद्रह आकृतियां धारण कीं जिनमें से चार स्वर्गलोक, सात मृत्युलोक तथा चार रूपों में रसातल में प्रवेश किया। हर लोक की गंगा का रूप उस लोक में ही दृष्टिगत होता है अन्यत्र नहीं। ब्र0 पु0, अ0 72 से 78 तक गंगा का बचा हुआ दूसरा अंश भगीरथ को तप के फलस्वरूप अपने पितरों के उद्धार के निमित्त शिव से प्राप्त हुआ। गंगा ने पहले सगर के पुत्रों का त्राण किय फिर उसकी प्रार्थना से हिमालय पहुंचकर भारत में प्रवाहित होते हुए वह बंगसागर की ओर चली गयी। ब्र0पु0, अध्याय 76,77,175 (दे0 सरस्वती) भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर कृष्ण ने उसे दर्शन दिये। उन्होंने गंगा को आज्ञा दी कि वह शीध्र भारत में अवतीर्ण होकर सगर-पुत्रों का उद्धार करे।गंगा के पूछने पर उन्होंने कहा-"वहां मेरे अंश से बना लवणोदधि तुम्हारा पति होगा। भारती के शापवश तुम्हें पांच हजार वर्ष तक भारत में रहना पड़ेगा। भारत में पापियों का पाप तुम्हारे जल में घुल जायेगा किंतु भक्तों के स्पर्श से तुममें समाहित समस्त पाप नष्ट हो जायेंगे (त्रिपथगा : दे0 राधा)" श्रीकृष्ण ने राधा की पूजा करके रास में उनकी स्थापना की। सरस्वती तथा समस्त देवता प्रसन्न होकर संगीत में खो गये। चैतन्य होने पर उन्होंने देखा कि राधा और कृष्ण उनके मध्य नहीं हैं। सब ओर जल ही जल है। सर्वात्म, सर्वव्यापी राधा-कृष्ण ने ही संसारवासियों के उद्धार के लिए जलमयी मूर्ति धारण की थी, वही गोलोक में स्थित गंगा है। एक बार गंगा श्रीकृष्ण के पार्श्व में बैठी उनके सौंदर्य-दर्शन में मग्न थी। राधा उसे देखकर रूष्ट हो गयी थी। लज्जावश उसने श्रीकृष्ण के चरणों में आश्रय लिया था (दे0 राधा)। फलत: पशु, पक्षी, पौधे, मनुष्य अपने कष्ट की दुहाई देते हुए ब्रह्मा की शरण में पहुंचे। ब्रह्मा, विष्णु, महेश कृष्ण के पास गये। कृष्ण की प्रेरणा से उन्होंने राधा से गंगा के निमित्त अभयदान लिया। फिर श्रीकृष्ण के पांव के अंगूठे से गंगा निकली। उसका वेग थामने के लिए पहले ब्रह्मा ने उसे अपने कमंडलु में ग्रहण किया, फिर शिव ने अपनी जटाओं में, फिर वह पृथ्वी पर पहुंची। जब समस्त संसार जल से आपूरित हो गया तब ब्रह्मा उसे नारायण के पास बैंकुंठधाम में ले गये जहां ब्रह्मा ने समस्त घटनाएं सुनाकर उसे नारायण को सौंप दिया। नारायण ने स्वयं गांधर्व-विधान द्वारा गंगा से पाणिग्रहण किया। दे0 भा0, 9 ।11-14 भरतीय संस्कृति कोश गंगा – (पेज नम्बर-261 से 262 पर देखें) भारत की नदियों में सर्वाधिक पवित्र माने जानेवाली गंगा हिमालय के गोमुख नामक स्थान से निकलकर गंगासागर के पास बंगाल में समुद्र में मिलती है। भागवत पुराण की कथा के अनुसार कपिल मुनि के शाप से भस्म राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के उद्धार के लिए राजा भगीरथ घोर तपस्या करके गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में समर्थ हुए थे। इसीलिए इसका एक नाम 'भागीरथी' पड़ा। गंगा के वेग से पृथ्वी न वह जाए इसलिए सर्वप्रथम शंकर ने इसे अपनी जटाओं में धारण किया। गंगासागर की और प्रवाह के समय जहनु ऋषि ने इसका पान कर लिया था । किंन्तु जब भगीरथ ने बड़ी प्रार्थना की तो उन्होंने इसे अपनी जंघा से बाहर निकाल दिया। इसी से गंगा 'जाह्नवी' भी कहलाती है। इस विश्वास के अनुसार इसकी सृष्टि विष्णु के चरणनख से हुई थी। इसलिए इसका एक नाम 'विष्णुपदी' भी है। गंगा को 'त्रिपथगा' भी कहते हैं क्योंकि कुछ पुराणों के अनुसार इसकी तीन धारायें हैं-स्वर्गगंगा (मंदाकिनी), भूगंगा (भागीरथी) और पातालगंगा (भोगवती)। वर्तमान में गंगा अपने उद्गम स्थल पर भागीरथी ही कहलाती हैं। देवप्रयाग में बदरीनाथ की ओर से आनेवाली अलकनंदा इससे मिलती है। वहीं से गंगा नाम पड़ता है। हरिद्वार के निकट यह मैदान में उतरती है। प्रयाग में यमुना से इसका संगम होता है। गाजीपुर के निकट गोमती और छपरा के निकट घाघरा गंगा में मिलती है। पटना के पास सोनका और उसके आगे गंडक और कोसी का भी इससे संगम होता है। बंगाल की खाड़ी में समुद्र में मिलने से पूर्व यह कई धाराओं में बंट जाती है। जिनमें पद्मा , हुगली और भागीरथी मुख्य हैं। समुद्र में मिलने से पहले गंगा नदी 97 कि0 मी0 चौड़ा मुहाना बनाती है। गंगा नदी की कुल लम्बाई 2071 कि0मी0 है। इसके किनारे हरिद्वार, प्रयाग वाराणसी आदि अनेक तीर्थ हैं। गंगा का जल बड़ा पवित्र माना जाता है और धार्मिक लोग गंगास्नान को बड़ा महत्व देते हैं। वर्तमान समय में गंगा के किनारे घनी आबादी वाले नगरों के बसने तथा कल कारखानों की स्थापना से इसके जल के प्रदूषण की बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई है। ऐतिहासिक स्थानावली गंगा— (पेज नम्बर-261 से 263 तक देखें) उत्तरी भारत की सर्वप्रसिद्ध नदी जो गंगोत्री पहाड़ से निकल कर उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में बहती हुई गंगासागर नामक स्थान पर समुद्र में मिल जाती है। कालिदास ने पूर्वमेघ (मेघदूत) 65 में गंगा का कैलासपर्वत (मानसरोवर के पास, तिब्बत) की गोद में अवस्थित बतलाया है। जिससे पौराणिक परंपरा में गंगा का, भारत की कई अन्य नदियों (सिंधु, पंजाब की पांचों नदियां, सरयू, तथा ब्रह्मपुत्र आदि) के समान मानसरोवर से उदभुत होना सुचित होता है। गंगा का एक मूल स्त्रोत वास्तव में मानसरोवर ही है। कालिदास ने अलका की स्थिति गंगा के निकट ही मानी है। तथ्य यह है कि हिमालय में गंगा की कई शाखाएं हैं। सीधी धारा तो गंगोत्री से देवप्रयाग होती हुई हरद्वार आती है और अन्य कई धाराएं जैसे भागीरथी, अलकंनदा, मंदाकिनी, नंदाकिनी आदि विभिन्न पर्वत-श्रृंगों से निकल कर पहाड़ों में ही मुख्य धारा से मिल जाती हैं। गंगा की जो धारा कैलाश और बदरिकाश्रम मार्ग से बहती आई है उसे अलकनंदा कहते हैं। कालिदास की अलका इसी अलकनंदा-गंगा के किनारे स्थित रही होगी जैसा कि नाम-साम्य सी भी सूचित होता है। गंगा का सर्वप्राचनी साहित्यिक उल्लेख ऋग्वेद के नदी-सूक्त 10,75 में है। 'इसे में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रिस्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरूद्वृधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया।' गंगा का नाम किसी अन्य वेद में नहीं मिलता। वैदिक काल में गंगा की महिमा इतनी नहीं थी जितनी सरस्वती या पंजाब की अन्य नदियों की, क्योंकि वैदिक सभ्यता का मुख्य केन्द्र उस समय तक पंजाब ही में था। रामायण के समय गंगा का महत्व पूरी तरह से स्थापित हो गया था। वाल्मीकि ने राम के वन जाते समय उनके गंगा को पार करने के प्रसंग में गंगा का सुंदर वर्णन किया है जिसका एक अंश निम्नलिखित है— 'तत्र त्रिपथगां दिव्यां शीततोयामशैवलाम्, ददर्श राघवों गंगां रम्यामृषि निषेविताम्। देवदानवगंधर्वे: किन्नरैरूपशोभितां नागगंधर्वपत्नीभि: सेवितां सततं शिवाम्। जलाघाताट्टहासोग्रां फेननिर्मलहासिनीं क्वचिद्वेणीकृतजलां क्वचिदावर्तशोभिताम्'- अयोध्या 50, 12-14-16 । 'शिशुमारैश्चनकैश्च भुजंगैश्च समन्वितां शंकरस्य जटाजूटाद्भ्रष्टांसागरतेजसा। समुद्रमहिषीं गंगां सारसकौंच नादिताम् आसाद महाबाहु: श्रृगवेरपुरं प्रति'- अयोध्या0 50, 25-26। इस वर्णन से स्पष्ट है कि गंगा को रामायण के समय में ही शिव के जटाजूट से निस्सृत, देवताओं और ऋषियों से सेवित, तीनों लोकों में प्रवाहित होने वाली (त्रिपथगा) पवित्र नदी माना जाने लगा था। अयोध्या0 52, 86-87-88-89-90 में कुशलपूर्वक वन से लौट आने के लिए सीता ने गंगा की जो प्रार्थना की है उससे भी स्पष्ट है कि गंगा को उसी काल में पवित्र तथा फलप्रदायिनी नदी समझा जाने लगा था। उपर्युक्त 52,80 में गंगा के तट पर तीर्थों का भी उल्लेख है-'यानित्वत्तीरवासीनि दैवतानि च सन्ति हि, तानि सर्वाणि यक्ष्यामि तीर्थान्यायतनानि च'। बाल0 अध्याय 35 में गंगा की उत्पत्ति की कथा भी वर्णित है। महाभारतकाल में गंगा सभी नदियों में प्रमुख समझी जाती थी। भीष्म0 9,14 तथा अनुवर्ती श्लोकों में भारत की लगभग सभी प्रसिद्ध नदियों की नामावली है। - इनमें गंगा का नाम सर्वप्रथम है-'नदीं पिबन्ति विपुलां गंगां सिंधु सरस्वतीम्, गोदावरीं नर्मदा च बाहुदां च महानदीम्'-- 'एषा शिवजला पुण्या याति सौम्य महानदी, बदरीप्रभवाराजन् देवर्षिगणसेविता' । महा0 वन0 142-4 में गंगा को बदरीनाथ के पास से उद्भूत माना गया है। पुराणों में तो गंगा की महिमा भरी पड़ी है और अंसख्य बार इस पवित्र नदी का उल्लेख है- विष्णुपुराणं 2,2,32 में गंगा को विष्णुपादोद्भवा कहा है-'विष्णु-पाद विनिष्कान्तां प्लावयित्वेन्दुमंडलम् , समन्ताद् ब्रह्मण: पुर्यां गंगा पतति वै-दिव:। श्रीमद्भागवत 5,19,18 में गंगा को मंदाकिनी कहा गया है-'कौशिकी मंदाकिनी यमुना सरस्वती दृषद्वती --'। स्कंदपुराण का तो एक अंश ही गंगा तथा उसके तटवर्ती तीर्थों के वर्णन से भरा हुआ है। बौद्ध तथा जैनग्रंथनों में भी गंगा के अनेक उल्लेख हैं-बुद्ध चरित 10, 1 में गौतम बुद्ध के गंगा को पार करके राजगृह जाने का उल्लेख है-'उत्तीर्ण गंगां प्रचलत्तरंगां श्रीमद् गृहं राजगृहं जगाम'। जैन ग्रंथ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में गंगा को, चुल्लहिमवत् के एक विशाल सरोवर के पूर्व की ओर से और सिंधु को पश्चिम की ओर से निस्सृत माना गया है। यह सरोवर अवश्य ही मानसरोवर है। परवर्तीकाल में (शाहजहां के समय) पंडितराज जगन्नाथ ने गंगालहरी लिखकर गंगा की महिमा गाई है। गंगा-यमुना के संगम का उल्लेख रामायण अयोध्या0 54,8 तथा रघुवंश 13, 54-55-56-57 में है- (दे0 प्रयाग) गंगा के भागीरथी, जाह् नवी, त्रिपथगा, मंदाकिनी, सुरनदी, सुरसरि आदि अनेक नाम साहित्य में आए हैं। वाल्मीकि-रामायण तथा परवर्ती काव्यों तथा पुराणों में चक्षु या वंक्षु और सीता (तरिम) को गंगा की ही शाखांए माना गया है।
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गंगा गंगा पुनीततम नदी है और इसके तटों पर हरिद्वार, कनखल, एवं काशी जैसे परम प्रसिद्ध तीर्थ अवस्थित हैं, अत: गंगा से ही आरम्भ करके विभिन्न तीर्थों का पृथक्-पृथक् वर्णन उपस्थित किया जा रहा है। हमने यह देख लिया है (गत अध्याय में) कि प्रसिद्ध नदीसूक्त (ऋ0 10।75।5-6) में सर्वप्रथम गंगा का ही आह्वान किया गया है। ऋ0 (6।45।31) में 'गांगाच' शब्द आया हे जिसका सम्भवत: अर्थ है 'गंगा पर वृद्धि प्राप्त करता हुआ। (1) शतपथ ब्राह्मण (13।5।4।11 एवं 13) एवं ऐतरेय ब्राह्मण (39।9) में गंगा एवं यमुना के किनारे पर भरत दौष्यन्ति की विजयों एवं यज्ञों का उल्लेख हुआ है। शतपथ ब्राह्मण (13।5।4।11 एवं 13) में एक प्राचीन गाथा का उल्लेख है- 'नाडपित् पर अप्सरा शकुन्तला ने भरत को गर्भ में धारण किया, जिसने सम्पूर्ण पृथिवी को जीतने के उपरान्त इन्द्र के पास यज्ञ के लिए एक सहस्त्र से अधिक अश्व भेजे।' महाभारत (अनुशासन0 26।26-103) एवं पुराणों (नारदीय, उत्तरार्ध, अध्याय 38-45 एवं 51।1-48; पद्म0 5।60।1-127; अग्नि0 अध्याय 110; मत्स्य0, अध्याय 180-185; पद्म0 आदिखण्ड, अध्याय 33-37) में गंगा की महत्ता एवं पवित्रीकरण के विषय में सैकड़ों प्रशस्तिजनक श्लोक हैं। स्कन्द0 (काशीखण्ड, अध्याय 29।17-168) में गंगा के एक सहस्त्र नामों का उल्लेख है। यहाँ पर उपर्युक्त ग्रन्थों में दिये गये वर्णयों का थोड़ा अंश भी देना संभव नहीं है। अधिकांश भारतीयों के मन में गंगा जैसी नदियों एवं हिमालय जैसे पर्वतों के दो स्वरूप घर कर बैठे हैं- भौतिक एवं आध्यात्मिक। विशाल नदियों के साथ दैवी जीवन की प्रगाढ़ता संलग्न हो ही जाती है। टेलर ने अपने ग्रन्थ 'प्रिमिटिव कल्चर' (द्वितीय संस्करण, पृ0 477) में लिखा है- 'जिन्हें हम निर्जीव पदार्थ कहते हैं, यथा नदियाँ, पत्थर, वृक्ष, अस्त्र-शस्त्र आदि, वे जीवित, बृद्धिशाली हो उठते हैं, उनसे बातें की जाती हैं, उन्हें प्रसन्न किया जाता है और यदि वे हानि पहुँचाते हैं तो उन्हें दण्डित भी किया जाता है।' गंगा के माहात्म्य एवं उसकी तीर्थयात्रा के विषय में पृथक्-पृथक् ग्रन्थ प्रणीत हुए हैं। यथा गणेश्वर (1350 ई0) का गंगापत्तलक, मिथिला के राजा पद्मसिंह की रानी विश्वासदेवी की गंगावाक्यावली, गणपति की गंगाभक्ति-तरंगिणी एवं वर्धमान का गंगाकृत्यविवेक। इन ग्रन्थों की तिथियाँ इस महाग्रन्थ के अन्त में दी हुई हैं। वनपर्व (अध्याय 85) ने गंगा की प्रशस्ति में कई श्लोक (88-97) दिये हैं, जिनमें कुछ का अनुवाद यों है- "जहाँ भी कहीं स्नान किया जाय, गंगा कुरूक्षेत्र के बराबर है। किन्तु कनखल की अपनी विशेषता है और प्रयाग में इसकी परम महत्ता है। यदि कोई सैकड़ों पापकर्म करके गंगा-जल का अवसिंचन करता है तो गंगा-जल उन दृष्कृत्यों को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार अग्नि ईंधन को। कृत युग में सभी स्थल पवित्र थे, त्रेता में पुष्कर सबसे अधिक पवित्र था, द्वापर में कुरूक्षेत्र एवं कलियुग में गंगा। नाम लेने पर गंगा पापी को पवित्र कर देती है, इसे देखने (1) अधि वृबु:पणीनां वर्षिष्ठे मूर्धत्रस्थात्। उरू: कक्षो न गाडग्य:॥ ऋ0 (6।45।31)। अन्तिम पाद का अर्थ है 'गंगा के तटों पर उगी हुई घास या झाड़ी के समान।' से सौभाग्य प्राप्त होता है, जब इसमें स्नान किया जाता है या इसका जल ग्रहण किया जाता है तो सात पीढ़ियों तक कुल पवित्र हो जाता है। जब तक किसी मनुष्य की अस्थि गंगा-जल को स्पर्श करती रहती है तब तक वह स्वर्गलोक में प्रसन्न रहता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है और न केशव के सदृश कोई देव। वह देश, जहाँ गंगा बहती है और वह तपोवन जहाँ गंगा पायी जाती है, उसे सिद्धिक्षेत्र कहना चाहिए, क्योंकि वह गंगातीर को छूता रहता है।" अनुशासनपर्व (36।26,30-31) में आया है कि वे जनपद एवं देश, वे पर्वत एवं आश्रम, जिन से होकर गंगा बहती है, पुण्य का फल देने मे महान् हैं। वे लोग, जो जीवन के प्रथम भाग में पापकर्म करते हैं, यदि गंगा की ओर जाते हैं तो परम पद प्राप्त करते हैं। जो लोग गंगा में स्नान करते हैं। उनका फल बढ़ता जाता है, वे पवित्रात्मा हो जाते हैं और ऐसा पुण्यफल पाते हैं जो सैकड़ों वैदिक यज्ञों के सम्पादन से भी नहीं प्राप्त होता। और देखिए नारदीय0 (39।30-31 एवं 40।64)। भगवद्गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है कि धाराओं में मैं गंगा हूं (स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी, 10।31)। मनु (8।92) ने साक्षी को सत्योच्चारण के लिए जो कहा है उससे प्रकट होता है कि मनुस्मृति के काल में गंगा एवं कुरूक्षेत्र सर्वोच्च पुनीत स्थल थे।(2) कुछ पुराणों ने गंगा को मन्दाकिनी के रूप में स्वर्ग में, गंगा के रूप में पृथिवी पर और भोगवती के रूप में पाताल में प्रवाहित होते हुए वर्णित किया है (पद्म0 6।267।47)। विष्णु आदि पुराणों ने गंगा को विष्णु के बायें पैर के अँगूठे के नख से प्रवाहित माना है।(3) कुछ पुराणों में ऐसा आया है कि शिव ने अपनी जटा से गंगा को सात धाराओं में परिवर्तित कर दिया, जिनमें तीन (नलिनी, ह्लादिनी एवं पावनी) पूर्व की ओर, तीन (सीता, चक्षुस् एवं सिन्धु) पश्चिम की ओर प्रवाहित हुई और सातवीं धारा भागीरथी हुई (मत्स्य0 121।38-41; ब्रह्माण्ड0 2।18।39-41 एवं पद्म0 1।3।65-66)। कूर्म0 (1।46।30-31) एवं वराह0 (अध्याय 82, गद्य में) का कथन है कि गंगा सर्वप्रथम सीता, अलकंनदा, सुचक्षु एवं भद्रा नामक चार विभिन्न धाराओं में बहती है; अलकनन्दा दक्षिण की ओर बहती है, भारतवर्ष की ओर आती है और सप्त मुखों में होकर समुद्र में गिरती है।(4) ब्रह्म0 (73।68-69) में गंगा को विष्णु के पाँव से प्रवाहित एवं शिव के जटाजूट में स्थापित माना गया है। विष्णुपुराण (2।8।120-121) ने गंगा की प्रशस्ति यों की है- जब इसका नाम श्रवण किया जाता है, जब कोई दर्शन की अभिलाषा करता है, जब यह देखी जाती है या इसका स्पर्श किया जाता है या जब इसका जल ग्रहण किया जाता है या जब कोई इसमें डुबकी लगाता है या जब इसका नाम लिया जाता है (या इसकी स्तुति की जाती है) तो गंगा दिन-प्रति-दिन प्राणियों को पवित्र करती है; जब सहस्त्रों योजन दूर रहनेवाले लोग 'गंगा' नाम का उच्चारण करते हैं तो तीन जन्मों के एकत्र पाप नष्ट हो जाते हैं।' भविष्य पुराण में भी ऐसा ही आया (2) यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैष हृदि स्थित:। तेन चेदविवादस्ते मा गंगां मा कुरून्गम:॥ मनु (8।92)। (3) वामपादाम्बुजांगुष्ठनखस्त्रोतोविनिर्गताम्। विष्णोर्बिभर्ति यां भक्त्या शिरसाहर्निशं ध्रुव:॥ विष्णुपुराण (2।8।109); कल्पतरू (तीर्थ, पृ0 161) ने 'शिव:'पाठान्तर दिया है। 'नदी सा वैष्णवी प्रोक्ता विष्णुपादसमुद्भवा।' पद्म0 (5।24।188)। (4) तथैवालकनन्दा च दक्षिणादेत्य भारतम्। प्रयाति सागरंभित्त्वा सप्तभेदा द्विजोत्तमा:॥ कूर्म0 (1।46।31)। (5) श्रुताभिलषिता दृष्टा स्पृष्टा पीतावगाहिता। या पावयति भूतानि कीर्तिता च दिने दिने॥ गंगा गंगेति यैर्नाम योजनानां शतेष्वपि। स्थितैरूच्चारितं हन्ति पाप जन्मत्रयार्जितम्॥ विष्णु पु0 (2।8।120-121); गंगा वाक्यावली (पृ0 110), तीर्थचि0 (पृ0 202), गंगाभक्ति0 (पृ0 9)। दूसरा श्लोक पद्म0 (6।21।8 एवं 23।12) एवं ब्रह्म0 (175।82) में कई प्रकार से पढ़ा गया है, यथा—गंगा.... यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि। मुच्यते सर्वपापैभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति॥ पद्म0 (1।31।77) में आया है.... शतैरपि। नरो न नरकं याति किं तथा सदृशं भवेत्॥ है।(6) मत्स्य0, कूर्म0, गरूड़ं0 एवं पद्म0 का कहना है कि गंगा में पहुँचना सब स्थानों में सरल है, केवल गंगाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग एवं वहाँ यह समुद्र में मिलती है, पहुँचना कठिन है, जो लोग यहाँ स्नान करते हैं, स्वर्ग जाते हैं और जो लोग यहाँ मर जाते हैं वे पुन: जनम नहीं पाते। (7) नारदीयपुराण का कथन है कि गंगा सभी स्थानों में दुर्लभ है, किन्तु तीन स्थानों पर अत्यधिक दुर्लभ है। वह व्यक्ति, जो चाहे या अनचाहे गंगा के पास पहुँच जाता है और मर जाता है, स्वर्ग जाता है और नरक नहीं देखता (मत्स्य0 107।4)। कूर्म0 का कथन है कि गंगा वायुपुराण द्वारा घोषित स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथिवी में स्थित 35 करोड़ पवित्र स्थलों के बराबर है और वह उनका प्रतिनिधित्वि करती है।(8) पद्मपुराण ने प्रश्न किया है- 'बहुत धन के व्यय वाले यज्ञों एवं कठिन तपों से क्या लाभ, जब कि सुलभ रूप से प्राप्त होनेवाली एवं स्वर्ग-मोक्ष देनेवाली गंगा उपस्थित है! नारदीय पुराण में भी आया है- आठ अंगों वाले योग, तपों एवं यज्ञों से क्या लाभ? गंगा का निवास इन सभी से उत्तम है। (9) मत्स्य0 (104।14-15) के दो श्लोक यहाँ वर्णन के योग्य हैं- 'पाप करनेवाला व्यक्ति भी सहस्त्रों योजन दूर रहता हुआ गंगा-स्मरण से परम पद प्राप्त कर लेता है। गंगा के नाम-स्मरण एवं उसके दर्शन से व्यक्ति कम से पापमुक्त हो जाता है एवं सुख पाता है, उसमें स्नान करने एवं जल के पान से वह सात पीढ़ियों तक अपने कुल को पवित्र कर देता है।' काशीखण्ड (26।69) में ऐसा आया है कि गंगा के तट पर सभी काल शुभ हैं, सभी देश शुभ हैं और सभी लोग दान ग्रहण के योग्य हैं। वराहपुराण (अध्याय 82) में गंगा की व्युत्पत्ति 'गां गता' (जो पृथिवी की ओर गयी हो) है। पद्म0 (सृष्टि खंड, 60।64-65) ने गंगा के विषय में निम्न मूलमन्त्र दिया है- 'ओं नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नम:। (6) दर्शनात्स्पर्शनात्पानात् तथा गंगेति कीर्तनात्। स्मरणादेव गंगाया: सद्य: पापै: प्रमुच्यते॥ भविष्य0 (तीर्थचि0 पृ0 198; गंगावा0, पृ0 12 एवं गंगाभक्ति0, पृ0 9)। प्रथम पाद अनुशासन0 (26।64) एवं अग्नि0 (110।6) में आया है। गच्छंस्तिष्ठञ् जपन्ध्यायन् भुञ्जञ् जाग्रत् स्पपन् वदन्। य: स्मरेत् सततं गंगां सोऽपि मुच्येत बन्धनात्॥ स्कन्द0 (काशीखण्ड, पूर्वार्ध 27।37) एवं नारदीय0 (उत्तर, 39।16-17)। (7) सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा। गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे॥ तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवा:॥ मत्स्य0 (106।54); कूर्म0 (1।37।34); गरूड़0 (पूर्वार्ध, 81।1-2); पद्म0 (5।60।120)। नारदीय0 (40।26-27) में ऐसा पाठान्तर है- 'सर्वत्र दुर्लभा गंगा त्रिषु स्थानेषु चाधिका। गंगाद्वारे... संगमे॥ एषु स्नाता दिवं..... र्भवा:॥ (8) तिस्त्र: कोट्योर्धकोटी च तीर्थानां वायु रब्रवीत्। दिवि भुव्यन्तरिक्षे च तत्सर्व जाह्नवी स्मृता॥ कूर्म0 (1।39।8); पद्म0 (1।47।7 एवं 5।60।49); मत्स्य0 (102।5, तानि ते सन्ति जाह्नवि)। (9) किं यज्ञैर्बहुवित्ताढ्यै: किं तपोभि: सुदुष्करै:। स्वर्गमोक्षप्रदा गंगा सुखसौभाग्यपूजिता॥ पद्म0 (5।60।39); किमष्टांगेन योगेन किं तपोभि: किमध्वरै:। वास एव हि गंगायां सर्वतोपि विशिष्यते॥ नारदीय0 (उत्तर, 38।38); तीर्थचि0 (पृ0 194, गंगायां ब्रह्मज्ञानस्य कारणम्); प्रायश्चित्ततत्त्व (पृ0 494)। पद्म0 (सृष्टि0 60।35) में आया है कि विष्णु सभी देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं और गंगा विष्णु का। इसमें गंगा की प्रशस्ति इस प्रकार की गयी है- पिताओं, पतियों, मित्रों एवं सम्बन्धियों के व्यभिचारी, पतित, दुष्ट, चाण्डाल एवं गुरूघाती हो जाने पर या सभी प्रकार के पापों एवं द्रोहों से संयुक्त होने पर क्रम से पुत्र, पत्नियाँ, मित्र एवं सम्बन्धी उनका त्याग कर देते हैं, किन्तु गंगा उन्हें नहीं परित्यक्त करती (पद्म पुराण, सृष्टिखण्ड, 60।25-26)। कुछ पुराणों में गंगा के पुनीत स्थल के विस्तार के विषय में व्यवस्था दी हुई है। नारदीय0 (उत्तर, 43।119-120) में आया है- गंगा के तीर से एक गव्यूति तक क्षेत्र कहलाता है, इसी क्षेत्र-सीमा के भीतर रहना चाहिए, किन्तु तीर पर नहीं, गंगातीर का वास ठीक नहीं है। क्षेत्र-सीमा दोनों तीरों से एक योजन की होती है अर्थात् प्रत्येक तीर से दो कोस तक क्षेत्र का विस्तार होता है।(10) यम ने एक सामान्य नियम यह दिया है कि वनों, पर्वतों, पवित्र नदियों एवं तीर्थों के स्वामी नहीं होत, इन पर किसी का प्रभुत्व (स्वामी रूप से) नहीं हो सकता। ब्रह्मपुराण का कथन है कि नदियों से चार-हाथ की दूरी तक नारायण का स्वामित्व होता है और मरते समय भी (कण्ठगत प्राण होने पर भी) किसी को उस क्षेत्र में दान नहीं लेना चाहिए। गंगाक्षेत्र के गर्भ (अन्तर्वृत्त), तीर एवं क्षेत्र में अन्तर प्रकट किया गया है। गर्भ वहाँ तक विस्तृत हो जाता है जहाँ तक भाद्रपद के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तक धारा पहुँच जाती है और उसके आगे तीर होता है, जो गर्भ से 150 हाथ तक फैला हुआ रहता है तथा प्रत्येक तीर से दो कोस तक क्षेत्र विस्तृत रहता है। अब गंगा के पास पहुँचने पर स्नान करने की पद्धति पर विचार किया जायगा। गंगा-स्नान के लिए संकल्प करने के विषय में निबन्धों ने कई विकल्प दिये हैं। प्रायश्चित्ततत्त्व (पृ0 497-498) में विस्तृत संकल्प दिया हुआ है। गंगावाक्यावली के संकल्प के लिए देखिए नीचे की टिप्पणी।(11) मत्स्य0 (102) के वर्णन का निष्कर्ष यों है- बिना स्नान के शरीर की शुद्धि एवं शुद्ध विचारों का अस्तित्व नहीं होता, इसी से मन को शुद्ध करने के लिए सर्वप्रथम (10) तीराद् गव्यूतिमात्रं तु परित: क्षेत्रमुच्यते। तीरं त्यक्त्वा वसेत्क्षेत्रे तीरे वासो न चेष्यते॥ एकयोजन विस्तीर्णा क्षेत्रसीमा तटद्वयात्। नारदीय0 (उत्तर, 43।119-120)। प्रथम को तीर्थचि0 (पृ0 266) ने स्कन्दपुराण से उद्धृत किया है और व्याक्ष्या की है- 'उभयतटे प्रत्येकं कोशद्वयं क्षेत्रम्।' अन्तिम पाद को तीर्थचि0 (पृ0 267) एवं गंगावा0 (पृ0 136) ने भविष्य0 से उद्धृत किया है। 'गव्यूति' दूरी या लम्बाई का माप है जो सामान्यत: दो कोश (कोस) के बराबर है। लम्बाई के मापों के विषय में कुछ अन्तर है। अमरकोश के अनुसार 'गव्यूति' दो कोश के बराबर है, यथा-'गव्यूति: स्त्री कोशयुगम्।' वायु0 (8।105 एवं 101।122-126) एवं ब्रह्माण्ड0 (2।7।96-101) के अनुसार 24 अंगुल=एक हस्त, 96 अंगुल=एक धनु (अर्थात् 'दण्ड', 'युग' या 'नाली'); 2000 धनु (या दण्ड या युग या नालिका)=गव्यूति एवं 8000 धनु=योजन। मार्कण्डेय0 (46।37-40) के अनुसार 4 हस्त=धनु या दण्ड या युग या नालिका; 2000 धनु= कोश, 4 कोश= गव्यूति (जो योजन के बराबर है)। और देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 3, अध्याय 5। (11) अद्यामुके मासि अमुकपक्षे अमुकतिथौ सद्य:पापप्रणाशपूर्वकं सर्वपुण्यप्राप्तिकामो गंगायां स्नानमहं करिष्ये। गंगावा0 (पृ0 141)। और देखिए तीर्थचि0 (पृ0 206-207), जहाँ गंगास्नान के पूर्वकालिक संकल्पों के कई विकल्प दिये हुए हैं। स्नान की व्यवस्था होती है। कोई किसी कूप या धारा से पात्र में जल लेकर स्नान कर सकता है या बिना इस विधि से भी स्नान कर सकता है। 'नमो नारायणाय' मन्त्र के साथ बुद्धिमान् लोगों को तीर्थस्थल का ध्यान करना चाहिए। हाथ में दर्भ (कुश) लेकर, पवित्र एवं शुद्ध होकर आचमन करना चाहिए। चार वर्गहस्त स्थल को चुनना चाहिए और निम्न मन्त्र के साथ गंगा का आवाहन करना चाहिए; 'तुम विष्णु के चरण से उत्पन्न हुई हो, तुम विष्णु से भक्ति रखती हो, तुम विष्णु की पूजा करती हो, अत: जन्म से मरण तक किये गये पापों से मेरी रक्षा करो। स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथिवी में 35 करोड़ तीर्थ हैं; हे जाह्नवी गंगा, ये सभी-तुम्हारे हैं। देवों में तुम्हारा नाम नन्दिनी (आनन्द देने वाली) और नलिनी भी है तथा तुम्हारे अन्य नाम भी हैं, यथा दक्षा, पृथ्वी, विहगा, विश्वकाया, अमृता, शिवा, विद्याधरी, सुप्रशान्ता शान्तिप्रदायिनी।(12) स्नान करते समय इन नामों का उच्चारण करना चाहिए, तब तीनों लोकों में बहनेवाली गंगा पास में चली आयेगी (भले ही व्यक्ति घर पर ही स्नान कर रहा हो)। व्यक्ति को उस जल को, जिस पर सात बार मन्त्र पढ़ा गया हो, तीन या चार या पाँच या सात बार सिर पर छिड़कना चाहिए। नदी के नीचे की मिट्टी का मन्त्र-पाठ के साथ लेप करना चाहिए। इस प्रकार स्नान एवं आचमन करके व्यक्ति को बाहर आना चाहिए और दो श्वेत एवं पवित्र वस्त्र धारण करने चाहिए। इसके उपरान्त उसे तीन लोकों के सन्तोष के लिए देवों, ऋषियों एवं पितरों का यथाविधि तर्पण करना चाहिए।(13) पश्चात् सूर्य को नमस्कार एवं तीर बार प्रदक्षिणा कर तथा किसी-ब्राह्मण, सोना एवं गाय का स्पर्श कर स्नानकर्ता को विष्णु मन्दिर (या अपने घर, पाठान्तर के अनुसार) में जाना चाहिए।(14) (12) स्मृतिचन्द्रिका (1,पृ0 182) ने मत्स्य0 (102) के श्लोक (1-8) उद्धृत किये हैं। स्मृतिचन्द्रिका ने वहीं गंगा के 12 विभिन्न नाम दिये हैं। पद्म0 (4।89।17-19) में मत्स्य0 के नाम पाये जाते हैं। इस अध्याय के आरम्भ में गंगा के सहस्त्र नामों की ओर संकेत किया जा चुका है। (13) तर्पण के दो प्रकार हैं- प्रधान एवं गौण। प्रथम विद्याध्ययन समाप्त किये हुए द्विजों द्वारा देवों, ऋषियों एवं पितरों के लिए प्रति दिन किया जाता है। दूसरा स्नान के अंग के रूप में किया जाता है। नित्य नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं स्नानमुच्यते। तर्पणं तु भवेत्तस्य अगंत्वेन प्रकीर्तितम्॥ ब्रह्म0 (गंगाभक्ति0, पृ0 162)। तर्पण स्नान एवं ब्रह्मयज्ञ दोनों का अंग है। इस विषय में देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 2, अध्याय 17। तर्पण अपनी वेद-शाखा के अनुसार होता है। दूसरा नियम यह है कि तर्पण तिलयुक्त जल से किसी तीर्थ-स्थल, गया में, पितृपक्ष (आश्विन के कृष्णपक्ष) में किया जाता है। विधवा भी किसी तीर्थ में अपने पति या सम्बन्धी के लिए तर्पण कर सकती है। संन्यासी ऐसा नहीं करता। पिता वाला व्यक्ति भी तर्पण नहीं करता, किन्तु विष्णुपुराण के मत से वह तीन अंजलि देवों, तीन ऋषियों को एवं एक प्रजापति ('देवास्तृप्यन्ताम्' के रूप में) को देता है। एक अन्य नियम यह है कि एक हाथ (दाहिने) से श्राद्ध में या अग्नि में आहुति दी जाती है, किन्तु तर्पण में जल दोनों हाथों से स्नान करने वाली नदी में डाला जाता है या भूमि पर छोड़ा जाता है- श्राद्धे हवनकाले च पाणिनैकेन दीयते। तर्पणे तूभयं कुर्यादेष एव विधि: स्मृत:॥ नारदीय0 (उत्तर, 57।62-63)। यदि कोई विस्तृत विधि से तर्पण न कर सके तो वह निम्न मन्त्रों के साथ (जो वायुपुराण, 110।21-22) में दिये हुए हैं) तिल एवं कुश से मिश्रित जल की तीन अंजलियाँ दे सकता है- 'आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवा:। तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय:॥ अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम्। आब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम्॥' (14) तर्पण के लिए देखिए 'आह्निकसूत्रावली' या नित्यकर्म विधि संबन्धी कोई भी पुस्तक। 'धर्मराज', 'चित्रगुप्त' के लिए देखिए वराहपुराण (अध्याय 203-205) यहाँ यह ज्ञातव्य है कि मत्स्य0 (102 । 2-31) के श्लोक, जिनका निष्कर्ष ऊपर दिया गया है, कुछ अन्तरों के साथ पद्म0 (पातालखण्ड) 89 । 12-42 एवं सृष्टिखण्ड 20 । 145-176) में भी पाये जाते हैं। प्रायश्चित्ततत्त्व (पृ0 502) में गंगा-स्नान के समय के मन्त्र दिये हुए हैं।(15) हमने इस ग्रन्थ के इस खण्ड के अध्याय 7 में देख लिया है कि विष्णुधर्मसूत्र आदि ग्रन्थों ने अस्थि-भस्म या जली हुई अस्थियों का प्रयाग या काशी या अन्य तीर्थों में प्रवाह करने की व्यवस्था दी है। हमने अस्थि-प्रवाह की विधि का वर्णन वहाँ कर दिया है, दो-एक बातें यहाँ जोड़ दी जा रही हैं। इस विषय में एक ही श्लोक कुछ अन्तरों के साथ कई ग्रन्थों में आया है।(16) अग्निपुराण में आया है- 'मृत व्यक्ति का कल्याण होता है जब कि उसकी अस्थियाँ गंगा में डाली जाती हैं; जब तक गंगा के जल में अस्थियों का एक टुकड़ा भी रहता है तब व्यक्ति स्वर्ग में निवास करता है।' आत्मधातियों एवं पतितों की अन्त्येष्टि-किया नहीं की जाती, किन्तु यदि उनकी अस्थियाँ भी गंगा में रहती हैं तो उनका कल्याण होता है। तीर्थचि0 एवं तीर्थप्र0 ने ब्रह्म0 के ढाई श्लोक उद्धृत किये हैं जो अस्थि-प्रवाह कृत्य को निर्णय सिन्धु की अपेक्षा संक्षेप में देते हैं।(17) श्लोकों का अर्थ यह है- 'अस्थियाँ ले जानेवाले को स्नान करना चाहिए; अस्थियों पर पंचगव्य छिड़कना चाहिए, उन पर सोने का एक टुकड़ा, मधु एवं तिल रख्ना चाहिए, उन्हें किसी मिट्टी के पात्र में रखना चाहिए। और इसे उपरान्त दक्षिण दिशा में देखना चाहिए तथा यह कहना चाहिए कि 'धर्म को नमस्कार।' इसके उपरान्त गंगा में प्रवेश कर यह कहना चाहिए 'धर्म (या विष्णु) मुझसे प्रसन्न हो' और अस्थियों को जल में बहा देना चाहिए। इसके उपरान्त उसे स्नान करना चाहिए; बाहर निकलकर सूर्य को देखना चाहिए और किसी ब्राह्मण को दक्षिणा देनी चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो मृत की स्थिति इन्द्र के समान हो जाती है।' और देखिए स्कन्द0 (काशीखण्ड, 30।42-46) जहाँ यह विधि कुछ विशद रूप में वर्णित है। गंगा में अस्थि-प्रवाह की (15) विष्णुपादाब्जसम्भूते गंगे त्रिपथगामिनि। धर्मव्रतेति विख्याते पापं मे हर जाह्नवि॥ श्रद्धया भक्तिसम्पन्ने (न्नँ?) श्रीमातर्देवि जाह्नवि। अमृतेनाम्बुना देवि भागीरथि पुनीहि माम्॥ स्मृतिच0 (1 ।131); प्राय0 तत्त्व0 (502); त्वं देव सरितां नाथ त्वं देवि सरितां वरे। उभयो: संगमे स्नात्वा मुञ्चामि दुरितानि वै॥ वही। और देखिए पद्म0 (सृष्टिखण्ड, 60।60)। (16) यावदस्थि मनुष्यस्य गंगाया:स्पृशते जलम्। तावत्स पुरूषो राजन् स्वर्गलोके महीयते॥ वनपर्व (85 । 94=पद्म0 1।39।87); अनुशासनपर्व (36।32) में आया है- 'यावदस्थीनि गंगायां तिष्ठन्ति हि शरीरिण:। तावद्वर्षसहस्त्राणि... महीयते॥' यही बात मत्स0 (106।52) में भी है। कूर्म0 (1।37।32) ने 'पुरूषस्य तु' पढ़ा है। नारद0 (उत्तर, 43।109) में आया है- 'यावन्त्यस्थीनि गंगायां तिष्ठन्ति पुरूषस्य वै। तावद्वर्ष.... महीयते।' पुन: नारद0 (उत्तर, 62।59) में आया है- यावन्ति नखलोमानि गंगातोये पतन्ति वै। ताबद्वर्ष सहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते॥ नारदीय0 (पूर्वार्ध, 15।163)- केशास्थिनखदन्ताश्च भस्मापि नृपसत्तम। नयन्ति विष्णुसदनं स्पृष्टा गांगेन वारिणा॥ (17) स्नात्वा तत: पंचगवेन सिक्त्वा हिरव्यमध्वाज्यतिलेन योज्यम्। ततस्तु मृत्पिण्डपुटे निधाय पश्यन् दिशं प्रेतगणोपगूढाम्॥ नमोऽस्तु धर्माय वदन् प्रविश्य जलं स मे प्रीत इति क्षिपेच्च। स्नात्वा तथोत्तीर्य च भास्करं च दृष्ट्वा प्रबद्यादथ दक्षिणां तु॥ एवं कृते प्रेतपुरस्थितस्य स्वर्गे गति: स्यात्तु महेन्द्रतुल्या। ब्रह्म0 (तीर्थचि0, पृ0 265-266 एवं तीर्थप्र0,पृ0 374)। गंगावा0 (पृ0 272) ने कुछ अन्तर के साथ इसे ब्रह्माण्ड0 से उद्धृत किया है, यथा- 'यस्तु सर्वाहितो विष्णु: स में प्रीत इति क्षिपेत्।' और देखिए नारद0 (उत्तर, 43।113-115)। परम्परा सम्भवत: सगर के पुत्रों की गाथा से उत्पन्न हुई है। सगर के पुत्र कपिल ऋषि के क्रोध से भस्म हो गये थे और भगीरथ के प्रयत्न से स्वर्ग से नीचे लायी गयी गंगा के जल से उनकी भस्म बहा दी गयी तब उन्हें रक्षा मिली। इस कथा के लिए देखिए वनपर्व(अध्याय 107-109) एवं विष्णुपुराण (2।8-10) नारदीय0 के मत से न केवल भस्म हुई अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करने से मृत को कल्याण प्राप्त होता है, प्रत्युत नख एवं केश डाल देने से भी कल्याण होता है। स्कन्द0 (काशीखण्ड, 27।80) में आया है कि जो लोग गंगा के तटों पर खड़े होकर दूसरे तीर्थ की प्रशंसा करते हैं या गंगा की प्रशंसा करने या महत्ता गाने में नहीं संलग्न रहते वे नरक में जाते हैं।(18) काशीखण्ड ने आगे व्यवस्था दी है कि विशिष्ट दिनों में गंगास्नान से विशिष्ट एवं अधिक पुण्यफल प्राप्त होते हैं, यथा- साधारण दिनों की अपेक्षा अमावस पर स्नान करने से सौ गुना फल प्राप्त होता है, संक्रांति पर स्नान करने से सहस्त्र गुना, सूर्य या चन्द्र के ग्रहण पर स्नान करने से सौ लाख गुना और सोमवार के दिन चन्द्रग्रहण पर या रविवार के दिन सूर्य-ग्रहण पर स्नान करने से असंख्य फल प्राप्त होता है।(19) (18) तीर्थमन्यत्प्रशंसन्ति गंगातीरे स्थिताश्च ये। गंगां न बहु मन्यन्ते ते स्युर्निरयगामिन:॥ स्कन्द0 (काशीखण्ड, 27।80)। (19) दर्शे शतगुणं पुण्यं संक्रान्तौ च सहस्त्रकम्। चन्द्रसूर्यग्रह लक्षं व्यतीपाते ह्वनन्तकम्॥... सोमग्रह: सोमदिने रविवारे रवेर्ग्रह:। तच्चूडामणिपर्वाख्यं तत्र स्नानमसंख्यकम्॥ स्कन्द0 (काशीखण्ड, 27।129-131)।
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चिनाब नदी (चंद्रभागा)
Wednesday, May 05, 2010 3:03 PM
(1) पंजाब की प्रसिद्ध नदी चिनाब। इसको वैदिक साहित्य में असिक्नी कहा गया है। महाभारत काल में इसका नाम चंद्रभागा भी प्रचलित हो गया था-'शतद्रूं चंद्रभागा च यमुना च महानदीम्, दृषद्ववतीं विपाशां च विपापां स्थूलवालुकाम्'- भीष्म0 9, 15 । श्रीमदभागवत् 5, 19, 18 में चन्द्रभागा और असिक्नी दोनों का नाम एक ही स्थान में है - 'शतद्रूश्चंद्रभागा मरूदवृधा वितस्ता-असिक्नी विश्वेति महानद्यः'। यहां चंद्रभागा के ही दूसरे नाम असिक्नी का उल्लेख है। ग्रीक लेखकों ने इस नदी को अकेसिनीज लिखा है। जो असिक्नी का ही स्पष्ट रूपांतर है। चंद्रभागा नदी मानसरोवर (तिब्बत) के निकट चंद्रभाग नामक पर्वत से निस्सृत होती है और सिंधु नदी में गिर जाती है। श्रीमदभागवत् में शायद इसी नदी की ऊपरी धारा को चंद्रभागा कहकर, पुनः शेष नदी का प्राचीन वैदिक नाम असिक्नी कहा गया है। यह भी संभव है कि प्रस्तुत उल्लेख में चंद्रभागा से दक्षिण भारत की भीमा का अभिप्राय हो किंतु यहां दिए गए अन्य नामों के कारण यह संभावना कम जान पड़ती है। विष्णुपुराण 2, 3, 10 में भी चंद्रभागा का उल्लेख है - 'शतद्रू चंद्रभागाद्याः हिमवत् पादनिर्गताः' ; यहां इस नदी को हिमाचल से उदभुत माना है। विष्णुपुराण 4, 24, 69 (' सिंधु दार्विकोर्वी चंद्रभागाकाश्मीर विषयांश्चव्रात्यम्लेच्छशूद्रादयो भोक्ष्यन्ति') से ज्ञात होता है कि चंद्रभागा नदी का तटवर्ती प्रदेश पूर्वगुप्तकाल में म्लेच्छों तथा यवन-शकादि द्वारा शासित था। (2) =भीमा। चंद्रभागा के तट पर महाराष्ट्र का प्रसिद्ध तीर्थ पंढरीपुर बसा है। यह नदी भीमशंकर नामक पर्वत (पश्चिमी घाट में स्थित) से निकलकर लगभग 200 मील बहने के बाद कृष्णा नदी में ( जिला रायपुर में) मिल जाती है। भीमा इसका दूसरा प्रसिद्ध नाम है। (3) (उड़ीसा) कोणार्क के समीप बहने वाली एक नदी। कोणार्क का पौराणिक नाम पद्मक्षेत्र है। (4) सौराष्ट्र (कठियावाड़, गुजरात) के उत्तर-पश्चिम भाग-हालार-में बहने वाली नदी। (5) चंद्रभागा नदी (1) का तटवर्ती प्रदेश जिसका उल्लेख विषणुपुराण 4, 14, 69 में है।
तुंगभद्रा नदी
Wednesday, May 05, 2010 2:13 PM
दक्षिण भारत की प्रसिद्ध नदी। मैसूर राज्य में स्थित तुंग और भद्र नामक दो पर्वतों से निस्सृत दो श्रोतों से मिलकर तुंगभद्रा नदी की धारा बनती है। उद्गम का स्थान गंगामूल कहलाता है। तुंग और भद्र श्रृंगेरी, श्रृंगगिरी या वराहपर्वत के अंतर्गत हैं और ये ही तुंगभद्रा के नाम के कारण हैं। श्रीमदभागवत् (5,19,18) में तुंगभद्रा का उल्लेख है '-चंद्रवसा ताम्रपर्णी अवटोदा कृतमाला वैहायसी कावेरी वेणी पयस्विनी शर्करावर्ता तुंगभद्रा कृष्णा-' महाभारत में सम्भवतः इसे तुंगवेणा कहा गया है। पद्मपुराण (178,3) में हरिहरपुर को तुंगभद्रा के तट पर स्थित बताया गया है। भारतीय इतिहास कोश दक्षिण की एक नदी। यह पश्चिम घाट से निकलती है और रायपुर के निकट कृष्णा में मिलती है। इसका प्रसिद्ध दोआब दीर्घकाल तक विजयनगर के हिंदू राज्य व मुस्लिम बहमनी राज्य और उसके परवर्ती राज्यों के बीच विवाद का विषय रहा।
पलार नदी
Tuesday, May 04, 2010 6:32 PM
दक्षिण भारतीय नदी। यह कर्नाटक राज्य में चिंतामणि के दक्षिण-पश्चिम में पोन्नैयार नदी के पास से निकलती है और दक्षिण-पूर्व दिशा में 295 किमी तक बहकर तमिलनाडु राज्य में चेन्नई के दक्षिण में बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। पोन्नै और चेय्यार इसकी प्रमुख सहायक नदियां हैं। पलार का बहाव अनियमित है और हर साल इसमें परिवर्तन होता रहता है। हालांकि इसमें आमतौर पर बाढ़ नहीं आती, लेकिन भारी वर्षा के कारण इसमें छ्ह महीने तक बाढ़ की स्थिती बनी रहती है। सिंचाई के लिए इस नदी पर बांध बनाया गया है, विशेषकर तमिलनाडु में। वेल्लूर, ऑर्काट और चेंगलपट्ड इसके तट बसे हुए मुख्य शहर हैं।
बनास नदी
Tuesday, May 04, 2010 5:45 PM
नदी, राजस्थान राज्य, पश्चिमोत्तर भारत। इसका उद्गम कुंभलगढ़ के निकट है और यह अरावली पर्वतमाला को चीरकर अपना रास्ता बनाती है। इसके बाद पूर्वोत्तर की ओर बढ़ते हुए यह मैदानों तक पहुंचती है और 500 किमी बहने के बाद शिवपुर के उत्तर में चंबल नदी से मिलती है। बनास एक मौसमी नदी है, जो गर्मी के समय अक्सर सूखी रहती है, लेकिन इसके बावजूद यह सिचाई का स्त्रोत है। बरेच और कोटरी इसकी सहायक नदियां हैं। समूची घाटि में मिट्टि के बहाव से कई स्थानों में अनुपजाऊ भूमि का निर्माण हो गया।
गोदावरी
Tuesday, May 04, 2010 5:17 PM
भारत की पवित्रतम नदियों में गोदावरी का प्रमुख स्थान है । ब्रह्मपुराण में गौतमी नदी पर 106 दीर्घ पूर्ण अध्याय है । इनमें इसकी महिमा वर्णित है । महर्षि गौतम ने शंकर की कृपा से किस प्रकार पृथ्वी पर गोदावरी को अवतरित किया, साथ ही आसपास के तीर्थ-स्थलों का भी वर्णन हैं । ब्रह्मवैवर्त पुराण में एक कथा है तदानुसार एक ब्राह्मणी ही तप-योग करते- करते गोदावरी बन गई । पौराणिक समय में इसके मुहाने बड़े समृद्ध थे, जिनके अवशेष आज भी देखने को मिलते हैं । हिंदु और मुस्लिम ही नहीं, वरन् कई अन्य पाश्चात्य संप्रदाय इसके मुहानों पर पनपे हैं । इसका उद्-गम सह्याद्रि (पश्चिमी घाट ) से है । यह स्थल महाराष्ट्र के नासिक में त्र्यंबक के ब्रह्मगिरि कुंड में है । ‘हलालयुधकोश’ में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है—‘गां जलं स्वर्ग वा ददातीति गोदा’ अर्थात् पृथ्वी पर जल देने वाली गोदावरी । कुछ विद्वानों के अनुसार , इसका नामकरण तेलुगू भाषा के शब्द ‘गोदे’ से हुआ है, जिसका अर्थ मर्यादा होता है । एक बार महर्षि गौतम ने घोर तप किया । इससे रुद्र प्रसन्न हो गए और उन्होंने एक बाल के प्रभाव से गंगा को प्रवाहित किया । गंगाजल के स्पर्श से एक मृत गाय पुनर्जीवित हो उठी । इसी कारण इसका नाम गोदावरी पड़ा । गौतम से संबंध जुड जाने के कारण इसे गौतमी भी कहा जाने लगा । इसमें नहाने से सारे पाप धुल जाते हैं । गोदावरी की सात धारा वसिष्ठा, कौशिकी, वृद्ध गौतमी, भारद्वाजी, आत्रेयी और तुल्या अतीव प्रसिद्ध है । पुराणों में इनका वर्णन मिलता है । इन्हें महापुण्यप्राप्ति कारक बताया गया है- सप्तगोदावरी स्नात्वा नियतो नियताशन: । महापुण्यमप्राप्नोति देवलोके च गच्छति ॥
गोदावरी नदी के तट पर ही त्र्यंबकेश्वर, नासिक, पैठन जैसे प्रसिद्ध तीर्थस्थल हैं । इसे पुराण दक्षिणीगंगा भी कहते हैं । इसका काफी भाग दक्षिण भारत में हैं । इसकी कुल लंबाई 1465 किमी है, जिसका 48.6 भाग महाराष्ट्र, 20.7 भाग मध्यप्रदेश, 14 कर्नाटक, 5.5 उड़ीसा, और 23.8 आंध्र प्रदेश में पड़ता है। इसमें मुख्य नादियां जो आकर मिलती हैं , वे हैं– पूर्णा, कदम, प्रांहिता, सबरी, इंद्रावती, मुजीरा, सिंधुकाना, मनेर, प्रवर आदि । इसके मुहानों में काफी खेती होती है और इस पर कई महत्त्वपूर्ण बांध भी बने हैं ।
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नर्मदा
Tuesday, May 04, 2010 5:16 PM
भारत के मध्यभाग में पूरब से पश्चिम की ओर बहने वाली नर्मदा गंगा के समान पूजनीय है । नर्मदा सर्वत्र पुण्यमयी नदी बताई गई है तथा इसके उद्भव से लेकर संगम तक दस करोड़ तीर्थ हैं । पुण्या कनखले गंगा कुरुक्षेत्रे सरस्वती । ग्रामे वा यदि वारण्ये पुण्या सर्वत्र नर्मदा ॥ (पद्म पुराण, आदिखण्ड 13-6-7) नर्मदा संगम यावद् यावच्चामरकण्टकम् । तत्रान्तरे महाराज तीर्थकोट्यो दश स्थिता: ॥ (पद्म पुराण, आदिखण्ड 21/42) इसका उद्गम विंध्याचल की मैकाल पहाड़ी श्रंखला में अमरकंटक नामक स्थान में है । मैकाल से निकलने के कारण नर्मदा को मैकाल कन्या भी कहते हैं । स्कंदपुराण में इस नदी का वर्णन रेवाखंड के अंतर्गत किया गया है । कालिदास के ‘मेघदूतम्’ में नर्मदा को रेवा का संबोधन मिला है , जिसका अर्थ है—पहाड़ी चट्टानों से कूदने वाली । वास्तव में नर्मदा की तेजधारा पहाड़ी चट्टानों पर और भेड़ाघाट में संगमरमर की चट्टानों के ऊपर से उछलती हुई बहती है । अमरकंटक में सुंदर सरोवर में स्थित शिवलिंग से निकलने वाली इस पावन धारा को रुद्र कन्या भी कहते हैं, जो आगे चलकर नर्मदा नदी का विशा रूप धारण कर लेती हैं । पवित्र नदी नर्मदा के तट पर अनेक तीर्थ हैं , जहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है । इनमें कपिलधारा, शुक्लतीर्थ, मांधाता , भेड़ाघाट, शूलपाणि, भड़ौंच उल्लेखनीय हैं । अमरकंटक की पहाड़ियों से निकल कर छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से होकर नर्मदा करीब 1057 किमी का प्रवाह पथ तय कर भरौंच के आगे खंभात की खाड़ी में विलीन हो जाती है । परंपरा के अनुसार नर्मदा की परिक्रमा का प्रावधान हैं, जिससे श्रद्धालुओं को पुण्य की प्राप्ति होती है । पुराणों में बताया गया है कि नर्मदा नदी के दर्शन मात्र से समस्त पापों का नाश होता है ।
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सरस्वती
Tuesday, May 04, 2010 5:16 PM
वेद पुराणों में गंगा और सिंधु से ज्यादा महत्त्व सरस्वती नदी को दिया गया है । इसका उद्-गम बाला ज़िला के सीमावर्ती क्षेत्र सिरपुर की शिवालिक पहाड़ियों में माना जाता है । वहां से बहती हुई यह जलधारा पटियाला में विनशन नामक स्थान में बालू में लुप्त हो जाती है । ‘सरस’ यानी जिसमें जल हो तथा ‘वती’ यानी वाली अर्थात जलवाली ; इस अर्थ में इसका नामकरण हुआ है । इसका अंत अप्रकट होने के कारण इसे अंत:सलिला की संज्ञा दी गई है । मैदानी क्षेत्र में इसका प्रवेश आद्यबदरी के पास होता है । भवानीपुर और बलछापर से गुजरती हुई यह बालू में लूप्त हो जाती है , फिर थोड़ी दूर पर करनाल से बहती है । घाघरा नदी जिसका उद्-गम भी इसी क्षेत्र से है, 175 किमी की दूरी पर जाकर रसूला के निकट इससे मिल जाती है । यह बीकानेर के पहले हनुमानगढ़ के पास बालुकामय राशि में लुप्त हो जाती है । अब भी बीकानेर से करीब दस किमी दूर रेतीले इलाके को सरस्वती कहकर पुकारते हैं । वेद और पुराणों में सरस्वती का वर्णन नदी के रूप में नहीं, बल्कि वाणी तथा विद्या की देवी के रूप में हुआ है । स्कंदपुराण और महाभारत में इसका विवरण बड़ी श्रद्धा-भक्ति से किया गया है । इनके अनुसार सरस्वती नदी हिमालय से निकलकर कुरुक्षेत्र , विराट, पुष्कर, सिद्धपुर, प्रभास आदि इलाकों से होती हुई गुजरात के कच्छ के रास्ते से सागर में मिलती थी । प्रयाग में गंगा और यमुना से सरस्वती का संगम हुआ ।
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सरस्वती
Monday, November 30, 2009 1:12 PM
ऐतिहासिक स्थानावली सरस्वती— (पेज नम्बर-939 से 942 तक देखें) (1)प्राचीन भारत की प्रसिद्ध नदी। वैदिक काल में सरस्वती की बड़ी महिमा थी और इसे परम पवित्र नदी माना जाता था। ऋग्वेद के नदी सूक्त में सरस्वती का उल्लेख है, 'इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया' 10,75,5 । सरस्वती ऋग्वेद में केवल 'नदी देवता' के रूप में वर्णित है (इसकी वंदना तीन सम्पूर्ण तथा अनेक प्रकीर्ण मंत्रों में की गई है), किंतु ब्राह्मण ग्रथों में इसे वाणी की देवी या वाच् के रूप में देखा गया और उत्तर वैदिक काल में सरस्वती को मुख्यत:, वाणी के अतिरिक्त बुद्धि या विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी माना गया है और ब्रह्मा की पत्नी के रूप में इसकी वंदना के गीत गाये गए है। ऋग्वेद में सरस्वती को एक विशाल नदी के रूप में वर्णित किया गया है और इसीलिए राथ आदि मनीषियों का विचार था कि ऋग्वेद में सरस्वती वस्तुत: मूलरूप में सिंधु का ही अभिधान है। किंतु मेकडानेल्ड के अनुसार सरस्वती ऋग्वेद में कई स्थानों पर सतलज और यमुना के बीच की छोटी नदी ही के रूप में वर्णित है। सरस्वती और दृषद्वती परवर्ती काल में ब्रह्मावर्त की पूर्वी सीमा की नदियां कही गई हैं। यह छोटी-सी नदी अब राजस्थान के मरूस्थल में पहुंचकर शुष्क हो जाती है, किंतु पंजाब की नदियों के प्राचीन मार्ग के अध्ययन से कुछ भूगोलविदों का विचार है कि सरस्वती पूर्वकाल में सतलज की सहायक नदी अवशृय रही होगी और इस प्रकार वैदिक काल में यह समुद्रगामिनी नदी थी। यह भी संभव है कि कालांतर में यह नदी दक्षिण की ओर प्रवाहित होने लगी और राजस्थान होती हुई कच्छ की खाड़ी में गिरने लगी। राजस्थान तथा गुजरात की यह नदी आज भी कई स्थानों पर दिखाई पड़ती है। सिद्धपुर इसके तट पर है। संभव है कि कुरूक्षेत्र का सन्निहत ताल और राजस्थान का प्रसिद्धताल पुष्कर इसी नदी के छोड़े हुए सरोवर हैं। यह नदी कई स्थानों पर लुप्त हो गई है। हापकिंस का मत है कि ऋग्वेद का अधिकांश भाग सरस्वती के तटवर्ती प्रदेश में (अंबाला के दक्षिण का भूभाग) रचित हुआ था। शायद यही कारण है कि सरस्वती नदी वैदिक काल में इतनी पवित्र समझी जाती थी और परवर्ती काल में तो इसको विद्या, बृद्धि तथा वाणी की देवी के रूप में माना गया। मेकडानल्ड का मत है कि यजुर्वेद तथा उसके ब्राह्मणग्रंथ सरस्वती और यमुना के बीच के प्रदेश में जिसे कुरूक्षेत्र भी कहते थे रचे गये थे। सामवेद के पंचविंश ब्राह्मण (प्रौढ या तांड्य ब्राह्मण) में सरस्वती और दृषद्वती नदियों के तट पर किए गए यज्ञों का सविस्तार वर्णन है जिससे ब्राह्मणकाल में सरस्वती के प्रदेश की पुण्यभूमि के रूप में मान्यता सिद्ध होती है। शतपथ ब्राह्मण में विदेघ (=विदेह) के राजा माठव का मूल स्थान सरस्वती नदी के तट पर बतया गया है और कालांतर में वैदिक सभ्यता का पूर्व की ओर प्रसार होने के साथ ही माठव के विदेह (बिहार) में जाकर बसने का वर्णन है। इस कथा से भी सरस्वती का तटवर्ती प्रदेश वैदिक काल की सभ्यता का मूल केंद्र प्रमाणित होता है। वाल्मीकि रामायण में भरत के केकय देश से अयोध्या आने के प्रसंग में सरस्वती और गंगा को पार करने का वर्णन है-'सरस्वतीं च गंगा च युग्मेन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारूण्डं प्राविशद्वनम्' अयो0 71,5 । सरस्वती नदी के तटवर्ती सभी तीर्थों का वर्णन महाभारत में शल्यपर्व के 35 वें से 54 वें अध्याय तक सविस्तार दिया गया है। इन स्थानों की यात्रा बलराम ने की थी। जिस स्थान पर मरूभूमि में सरस्वती लुप्त हो गई थी उसे विनशन कहते थे-'ततो विनशनं राजन् जगामाथ हलायुध: शूद्राभीरानृ प्रतिद्वेषाद् यत्र नष्टा सरस्वती' महा0 शल्य0 37,1 इस उल्लेख में सरस्वती के लुप्त होने के स्थान के पास आभीरों का उल्लेख है। यूनानी लेखकों ने अलक्षेंद्र के समय इनका राज्य सक्खर रोरी (सिंध, पाकि0) में लिखा है। इस स्थान पर प्राचीन ऐतिहासिक स्मृति के आधार पर सरस्वती को अंतर्हित भाव से बहती माना जाता था, 'ततो विनशनं गच्छेन्नियतो नियताशन: गच्छत्यन्तर्हिता यत्र मेरूपृष्ठे सरस्वती (दे0 विनशन)। महाभारतकाल में तत्कालीन विचारों के आधार पर यह किंवदंती प्रसिद्ध थी कि प्राचीन पवित्र नदी (सरस्वती) विनशन पहुंचकर निषाद नामक विजातियों के स्पर्श-दोष से बचने के लिए पृथ्वी में प्रवेश कर गई थी-'एतद् विनशनं नाम सरस्वत्या विशाम्पते द्वारं निषादराष्ट्रस्य येषां दोषात् सरस्वती। प्रविष्टा पृथिवीं वीर मा निषादा हि मां विदु:। सिद्धपुर (गुजरात) सरस्वती नदी के तट पर बसा हुआ है। पास ही बिंदुसर नामक सरोवर है जो महाभारत का विनशन हो सकता है। यह सरस्वती मुख्य सरस्वती ही की धारा जान पड़ती है। यह कच्छ में गिरती है किंतु मार्ग में कई स्थानों पर लुप्त हो जाती है। 'सरस्वती' का अर्थ है सरोवरों वाली नदी जो इसके छोड़े हुए सरोवरों से सिद्ध होता है। महाभारत में अनेक स्थानों पर सरस्वती का उल्लेख है। श्रीमद् भागवत में (5,19,18) यमुना तथा दृषद्वती के साथ सरस्वती का उल्लेख है- 'मंदाकिनीयमुनासरस्वतीदृषद्वदी गोमतीसरयु'। मेघदूत (पूर्वमेघ 51) में कालिदास ने सरस्वती का ब्रह्मावर्त के अंतर्गत वर्णन किया है 'कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य सारस्वतीनामन्त:शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्ण:'। सरस्वती का नाम कालांतर में इतना प्रसिद्ध हुआ कि भारत की अनेक नदियों को इसी के नाम पर सरस्वती कहा जाने लगा (दे0 नीचे)। पारसियों के धर्मग्रंथ जेंदावस्ता में सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है। (2) प्रयाग के निकट गंगा-यमुना संगम में मिलने वाली एक नदी जिसका रंग लाला माना जाता था। इस नदी का कोई उल्लेख मध्यकाल के पूर्व नहीं मिलता और त्रिवेणी की कल्पना काफी बाद की जान पड़ती है। जिस प्रकार पंजाब की प्रसिद्ध सरस्वती मरूभूमि में लुप्त हो गई थी उसी प्रकार प्रयाग की सरस्वती के विषय में भी कल्पना कर ली गई कि वह भी प्रयाग में अंतर्हित भाव से बहती है (दे0 प्रयाग)। गंगा-यमुना के संगम के संबंध में केवल इन्हीं दो नदियों के संगम का वृत्तांत रामायण, महाभारत, कालिदास तथा प्राचीन पुराणों में मिलता है। परवर्ती पुराणों तथा हिंदी आदि भाषाओं के साहित्य में त्रिवेणी का उल्लेख है ('भरत वचन सुनि भांझ त्रिवेनी, भई मृदुवानि सुमंगल देनी'-तुलसीदास) कुछ लोगों का मत है कि गंगा-यमुना की संयुक्तधारा का ही नाम सरस्वती है। अन्य लोगों को विचार है कि पहले प्रयाग में संगम स्थल पर एक छोटी-सी नदी आकर मिलती थी जो अब लुप्त हो गई है। 19 वीं शती में, इटली के निवासी मनूची ने प्रयाग के किले की चट्टान से नीले पानी की सरस्वती नदी की निकलते देखा था। यह नदी गंगा-यमुना के संगम में ही मिल जाती थी। (दे0मनूची, जिल्द 3,पृ0 75.) (3) (सौराष्ट्र) प्रभास पाटन के पूर्व की ओर बहने वाली छोटी नदी जो कपिला में मिलती है। कपिला हिरण्या की सहायक नदी है जो दोनों कर जल लेती हुई प्राची सरस्वती में मिलकर समुद्र में गिरती है। (4) (महाराष्ट्र) कृष्णा की सहायक पंचगंगा की एक शाखा। कृष्णा पंचगंगा संगम पर अमरपुर नामक प्राचीन तीर्थ है। (5) (जिला गढ़वाल, उ0प्र0) एक छोटी पहाड़ी नदी जो बदरीनारायण में वसुधारा जाते समय मिलती है। सरस्वती और अलकनंदा (गंगा) के संगम पर केशवप्रयाग स्थित है। (6) (बिहार) राजगीर, (राजगृह) के समीप बहने वाली नदी जो प्राचीन काल में तपोदा कहलाती थी। इस सरिता में उष्ण जल के स्त्रोत थे। इसी कारण यह तपोदा नाम से प्रसिद्ध थी। तपोद तीर्थ का, जो इस नदी के तट पर था, महाभारत वनपर्व में उल्लेख है। गौतमबुद्ध के समय तपोदाराम नामक उद्यान इसी नदी के तट पर स्थित था। मगध-सम्राट् बिंदुसार प्राय: इस नदी में स्नान करते थे। (दे0 तपोदा) (7) केरल की एक नदी जिसके तट पर होनावर स्थित है। (8) =प्राची सरस्वती। (9) (जिला परभणी, महाराष्ट्र) एक छोटी नदी जो पूर्णा की सहायक है। सरस्वती-पूर्णा संगम पर एक प्राचीन सुदंर मंदिर स्थित है।
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यमुना
Tuesday, May 04, 2010 5:03 PM
यमुना माहात्म्य: तपनस्य सुता देवी त्रिषु लोकेषुविभ्रुता । समागत महाभाग यमुना तत्र निभ्रगा ॥ अर्थात भगवान सूर्य की पुत्री यमुना तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं । ये भी प्राय: हिमालय के उसी भाग से स्थान से उद्भूत हुई हैं , जहां से गंगाजी निकली हैं । उत्तरांचल के टिहरी गढ़वाल क्षेत्र में यमुना का उद्गम यमोनीत्री ग्लेशियर से हुआ है । यमनोत्री से निकलने तथा यम की बहन मानने के कारण इसे ‘यमुना’ कहते हैं । कालिंद पर्वत से प्रवाहित होने के कारण इसे ‘कालिंदी’ भी कहा जाता है । समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 6330 मीटर है और इसमें कई धाराएं आकर मिलती हैं जैसे- टोंस , गिरि, आसन, ॠषि गंगा, उमा, हनुमान्-गंगा आदि । मसूरी की पहाड़ियों से निकलती हुई यह 280 किमी बहती हुई, दिल्ली पहुंचती है । मथुरा, आगरा होती हुई प्रयाग में यमुना अपनी बड़ी बहन गंगा से जा मिलती है । इसमें और कई सरिताएं आकर मिलती हैं जैसे- करन , सागर, रिंद, चंबल और बेतवा । इलाहाबाद तक इसकी लंबाई 1376 किमी है । त्रिवेणी-संगम के अलावा यमुना का सर्वाधिक महत्त्व मथुरा-वृंदावन स्थित ब्रजमंडल के कारण है, जो संपूर्ण संसार में मुरलीधर श्रीकृष्ण और राधा रानी की लीलाओं के लिए प्रसिद्ध रहा है । धार्मिक पृष्ठभूमि:- बहुत ऊंचाई पर कालिंदगिरि से हिम पिघल कर कई धाराओं में गिरता है । कालिंद पर्वत से गिरने के कारण यमुनाजी कालिंद-नंदिनी या कालिंदी कही जाती है । वहां इतनी अधिक ठंड होती है कि बार बार झरनों का जल जमता-पिघलता है । कहा जाता है कि महर्षि असित का यहां आश्रम था । वे नित्य स्नान करने गंगाजी जाते और यहीं निवास करते । वृद्धावस्था में दुर्गम पर्वतीय मार्ग नित्य पार करना कठिन हो गया, तब गंगाजी ने अपना एक छोटा-सा झरना ॠषि के आश्रम पर प्रकट कर दिया । वह उज्जवल जल का झरना आज भी वहां है। हिमालय में गंगा और यमुना की धाराएं एक हो गई होती, यदि मध्य में दंड पर्वत न आ जाता । देहरादून के समीप भी दोनों धाराएं बहुत पास आ जाती हैं । तीर्थस्थल का दर्शनीय विवरण:- सूर्य-पुत्री, यमराज-सहोदरा, कृष्ण-प्रिया कालिंदी का यह उद्गम स्थान अत्यंत भव्य तथा आकर्षक है । इस स्थान की शोभा अद्भुत है । यहीं पर पंडे धार्मिक कृत्य, तर्पण आदि कराते हैं ।
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यमुना
Monday, November 30, 2009 11:56 AM
भारतीय संस्कृति कोश यमुना— (पेज नम्बर-741 से 742 तक देखें) 1.यम की बहन यमी जिसकी माता विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा और पिता सूर्य था। पुराण के अनुसार संज्ञा अपने पति सूर्य का तेज न सह सकी और उसने आंखें बंद कर लीं। इस पर कुद्ध होकर सूर्य ने शाप दिया जिसके कारण संज्ञा का पुत्र यम लोगों के जन्म-मरण का नियमन करनेवाला बना। शापग्रस्त संज्ञा ने इस बार सूर्य की ओर चंचल दृष्टि से देखा। उसका यह रूप भी सूर्य को न भाया। उसने फिर शाप दिया कि तुम्हारीयह पुत्री यमी चंचलतापूर्वक यमुना नदी के नाम से बहा करेगी। तभी से वह यमुना नदी के रूप में बह रही है। इसका नाम कृष्ण और कालिंदी भी है। 2.प्रसिद्ध यमुना नदी। इसका उद्गम हिमालय में बंदर-पूंछ पर्वत के पश्चिमी ढाल पर स्थित यमुनोत्तरी हिमनद से होता है। मैदानों में उतरने से पहले यह टोंल, गिरि और आसन नदियों को भी अपने में समा लेती है। मैदान में यह दिल्ली, मथुरा, आगरा और इटावा जिलों में बहती हुइ तथा चंबल, बेतवा, केन आदि का पानी लेती हुई प्रयाग में गंगा में समा जाती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार अदृश्य सरस्वती भी यहीं पर आ मिलती है जिससे यह स्थान त्रिवेणी संगम कहलाता है। कृष्ण की सब बाललीलाएं यमुना के किनारे ही हुई थीं। ऐतिहासिक स्थानावली यमुना— (पेज नम्बर-768 से 769 तक देखें) गंगा की प्रमुख सहायक नदी जो हिमालय-पर्वतमाला में स्थित यमुनोत्री (कुरसोली से 8 मील) से निकल कर प्रयाग (उत्तर प्रदेश) में गंगा में मिल जाती हैं। यमुना का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद 10-75,5 (नदीं-सूक्त) में है- 'इमं में गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्णया असकिनया मरूद्वृधे वितस्तयार्जीकीये श्रुष्णुह्या सुषोमया'-इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में अन्य दो स्थानों पर भी यमुना का नाम है तथा यह ऐतिरेय ब्राह्मण 8,14,8 में भी उल्लिखित है। वाल्मीकि-रामायण में यमुना का कई स्थानों पर वर्णन है- 'वेगिनी च कुलिंगाख्यां ह्लादिनीं पर्वतावृताम्, यमुनां प्राप्य संतीर्णों बलमाश्वासयत्तदा' अयो0 11,6; 'तत: प्लवेनांशुमतीं शीघ्रगामूर्मिमालिनीम् तीरजैर्बहुभिवृक्षै: सतेरू यमुनां नदीम्'- अयो0 55,22;। 'नगरं यमुनाजुष्टं तथा जनपदाञ्शुभान् योहि वंशं समुत्पाद्य पार्थिवस्य निवेशने,' उत्तर0 62,18 आदि। महाभारत में यमुनातटवर्ती अनेक तीर्थों का वर्णन है, यथा यमुना-प्रभवं गत्वा समुपस्पृश्य यामुनम् अश्वमेधफलं लब्धवा स्वर्गलो के महीयते' वन 84,44 । कौरव-पांडवों के पितामाह भीष्म के पिता शांतनु ने यमुनातटवर्ती ग्राम में रहने वाले धीवर की पुत्री सत्यवती से विवाह किया था। यहां वे शिकार खेलते हुए आ पहुँचे थे, 'स कदाचिद् वनं यातो यमुनामभितो नदीम्' आदि 100 45 । कृष्णद्वैपायन व्यास का जन्म सत्यवती के गर्भ से यमुना के द्वीप पर हुआ था-'आजगाम तरीं धीमांस्तरिष्यन् यमुनां नदीम्' 'ततो मामाह से मुनिर्गर्भमुत्सृज्य मामकम् द्वीपेऽस्या एव सरित: कन्यैवविष्यसि' आदि0 104,8,13 । इस घटना का उल्लेख अश्वघोष ने बुद्धचरित 4,76 में भी किया है-'कालीं चैव पुराकन्यां जल प्रभवसंभवाम् जगाम यमुनातीरे जातराग: पराशर:'। कालिदास ने मथुरा के निकट कालिदकन्या या यमुना का सुंदर वर्णन किया है।-'यस्या वरोधस्तनचंदनानां प्रक्षालनाद्वारिविहार काले, कालिदकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मिसंसक्त जलेवभाति' रघु0 6,48 , तथा प्रयाग में गंगा यमुना-संगम का उल्लेखी बहुत मनोहर है--'पश्यानवद्यांगि विभातिगंगा, भिन्नप्रवाहा यमुना तरंगै: रघु0 13-57 आदि। श्रीमद् भागवत , दशम स्कंध में श्रीकृष्ण के जन्म तथा उन की विविधलीलाओं के संबंध में तो यमुना का अनेक बार उल्लेख है जिसमें से सर्वप्रथम यहां उद्धृत किया जाता है-'मघोनि वर्षत्यासकृद् यमानुजा गंभीरतोयौघजवोर्मिफेनिला भयानकावर्तशताकुला नदी मार्ग ददौ सिंधुरिव त्रिय: पते: 10,3,50 (यमानुजा=यमुना)। इसी प्रसंग के वर्णन में विष्णुपुराण का निम्न उल्लेख कितना सुंदर है- 'यमुनां चातिगंभीरांनाना वर्तशताकुलाम् वसुदेवो वहन्विष्णुं जानुमात्रवहां ययौ' विष्णु0 5,3,18 । अध्यात्म रामायण अयोध्या0 6,42 में श्रीराम-लक्ष्मण-सीता के यमुना पार करने का उल्लेख इस प्रकार है-'प्रातरूत्थाय यमुनामुर्त्तीय मुनिदारकै ; कृताप्लवेन मुनिना दृष्टमार्गेण राघव:' । महाभारत वन0, 324, 25-26 में अश्व नदी का चर्मण्वती में , चर्मण्वती का यमुना में और यमुना का गंगा में मिलने का उल्लेख है। यमुना के रवितनया, सूर्यकन्या, कलिंदकन्या आदि नाम साहित्य में मिलते हैं। इसे सूर्य की पुत्री तथा यम की बहिन माना गया है। कलिदपर्वत से निस्तृत होने से यह कालिंदी या कलिंदकन्या कहलाती है। (2) ब्रह्मपुत्र का एक नाम :- (हिस्टारिकल ज्योग्राफी ओव ऐंशेट इंडिया पृ034)
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सिंधु
Tuesday, May 04, 2010 5:01 PM
संसार की प्रमुख नदियों में से एक सिंधु का उद्गम तिब्बत में मानसरोवर के पास समुद्र तल से 5180 मीटर की ऊंचाई पर सिंगी खंबात झरनों से हुआ है । वैदिक संस्कृति में सिंधु नदी तथा मानसरोवर का उल्लेख अत्यंत श्रद्धा के साथ किया जाता रहा है। तिब्बत, भारत और पाकिस्तान से होकर बहने वाली इस नदी में कई अन्य नदियां आकर मिलती हैं , जिनमे काबुल नदी, स्वात, झेलम, चिनाब, रावी और सतलुज मुख्य हैं । हिमालय की दुर्गम कंदराओं से गुजरती हुई, कश्मीर और गिलगिट से होती यह पाकिस्तान में प्रवेश करती है और मैदानी इलाकों में बहती हुई 1610 किमी का रास्ता तय करती हुई कराची के दक्षिण में अरब सागर से मिलती है । इसकी पूरी लंबाई 2880 किमी है । इस नदी ने पूर्व में अपना रास्ता कई बार बदला है । 1245 ई. तक यह मुलतान के पश्चिमी इलाके में बहती थी । मुलतान में चिनाब के किनारे पर श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब की याद में एक सूर्य मंदिर बना है । इसका वर्णन महाभारत में भी है। इस मंदिर का स्वरूप कोणार्क के सूर्यमंदिर से मिलता जुलता है । सिंधु भारत से बहती हुई पाकिस्तान में 120 किमी लंबी सीमा तय करती हुई सुलेमान के निकट पाक-सीमा में प्रवेश करती है । भारत में भी इसके पानी से काफी सिंचाई होती है ।
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सिंधु
Monday, November 30, 2009 1:18 PM
ऐतिहासिक स्थानावली सिंधु— (पेज नम्बर-958 से 961 तक देखें) (1)सिंधु नदी हिमालय की पश्चिमी श्रेणियों से निकल कर कराची के निकट समुद्र में गिरती है। इस नदी की महिमा ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर वर्णित है- 'त्वंसिधो कुभया गोमतीं क्रुमुमेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे' 10,75,6 । ऋग्0 10,75,4 में सिंधु में अन्य नदियों के मिलने की समानता बछड़े से मिलने के लिए आतुर गायों से की गई है--'अभित्वा सिंधो शिशुभिन्नमातरों वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनव:'। सिंधु के नाद को आकाश तक पहुंचता हुआ कहा गया है। जिस प्रकार मेघों से पृथ्वी पर घोर निनाद के साथ वर्षा होती है उसी प्रकार सिंधु दहाड़ते हुए वृषभ की तरह अपने चमकदार जल को उछालती हुई आगे बढ़ती चली जाती है-'दिवि स्वनो यततेभूग्यो पर्यनन्तं शुष्ममुदियर्तिभानुना। अभ्रादिव प्रस्तनयन्ति वृष्टय: सिंधुर्यदेति वृषभो न रोरूवत्' ऋग्0 10,75,3 । सिंधु शब्द से प्राचीन फारसी का हिंदू शब्द बना है क्योंकि यह नदी भारत की पश्चिमी सीमा पर बहती थी और इस सीमा के उस पार से आने वाली जातियों के लिए सिंधु नदी को पार करने का अर्थ भारत में प्रवेश करना था। यूनानियों ने इसी आधार पर सिंध को इंडस और भारत को इंडिया नाम दिया था। अवेस्ता में हिंदू शब्द भारतवर्ष के लिए ही प्रयुक्त हुआ है (दे0 मेकडानेल्ड-ए हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर, पृ0 141)। ऋग्वेद में सप्तसिंधव: का उल्लेख है जिसे अवस्ता में हप्तहिंदू कहा गया है। यह सिंधु तथा उसकी पंजाब की छ: अन्य सहायक नदियों (वितस्ता, असिक्नी, परूष्णी, विपाशा, शुतुद्रि, तथा सरस्वती) का संयुक्त नाम है। सप्तसिंधु नाम रोमन सम्राट् आगस्टस के समकालीन रोमनों को भी ज्ञात था जैसा कि महाकवि वर्जिल के Aeneid, 9,30 के उल्लेख से स्पष्ट है- Ceu septum surgens, sedates omnibus altus per tacitum-Ganges. सिंधु की पश्चिम की ओर की सहायक नदियों-कुभा सुवास्तु, कुमु और गोमती का उल्लेख भी ऋग्वेद में है। सिंधु नदी की महानता के कारण उत्तरवैदिक काल में समुद्र का नाम भी सिंधु ही पड़ गया था। आज भी सिंधु नदी के प्रदेश के निवासी इस नदी को 'सिंध का समुद्र' कहते हैं (मेकडानेल्ड, पृ0 143) वाल्मीकि रामायण बाल0 43,13 में सिंधु को महा नदी की संज्ञा दी गई है, 'सुचक्षुशचैव सीता च, सिंधुश्चैव महानदी, तिस्त्रश्चैता दिशं जग्मु: प्रतीचीं सु दिशं शुभा:'। इस प्रसंग में सिंधु की सुचक्षु (=वंक्षु) तथा सीता (=तरिम) के साथ गंगा की पश्चिमी धारा माना गया है। महाभारत, भीष्म 9,14 में सिंधु का, गंगा और सरस्वती के साथ उल्लेख है, 'नदी पिवन्ति विपुलां गंगा सिंधु सरस्वतीम् गोदावरी नर्मदां च बाहुदां च महानदीम्'। सिंधु नदी के तटवर्ती ग्रामणीयों को नकुल ने अपनी पश्चिमी दिशा की दिग्विजय यात्रा में जीता था, 'गणानुत्सवसंकेतान् व्यजयत् पुरूषर्षभ: संधुकूलाश्रिता ये च ग्रामणीया महाबला:' सभा0 32,9 । ग्रामणीय या ग्रामणीय लोग वर्तमान यूसुफजाइयों आदि कबीलों के पूर्वपुरूष थे। उत्सेधजीवी ग्रामीणीयों (उत्सेधजीवी=लुटेरा) को पूगग्रामणीय भी कहा जाता था। ये कबीले अपने सरदारों के नाम से ही अभिहित किए जाते थे, जैसा कि पाणिनि के उल्लेख से स्पष्ट है 'स एषां ग्रामणी:'। श्रीमद् भागवत 5,19,18 में शायद सिंधु को सप्तवती कहा गया है, क्योंकि सिंधु सात नदियों की संयुक्त धारा के रूप में समुद्र में गिरती है। महारौली स्थित लौहस्तंभ पर चंद्र के अभिलेख में सिंधु के सप्तमुखीं का उल्लेख है (दे0 सप्तसिंधु)। रघुवंश 4,67 में कालिदास ने रघु की दिग्विजय के प्रसंग में सिंधु तीर पर सेना के घोड़ों के विश्राम करते समय भूमि पर लोटने के कारण अनेक कंधों से संलग्न केसरलवों के विकीर्ण हो जाने का मनोहर वर्णन किया है, 'विनीताध्वश्रमास्तस्य सिंधुतीरविचेष्टनै: दुधुवुर्वाजिन: स्कंधांल्लग्नकुंकुमकेसरान्' । इस वर्णन से यह सूचित होता है कि कालिदास के समय में केसर सिंधु नदी का दक्षिणी समुद्र तट है। जैनग्रंथ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में सिंधु नदी को चुल्लहिमवान् के एक विशाल सरोवर के पश्चिम की ओर से निस्सृत माना है और गंगा को पूर्व की ओर से। (2)सिंध नदी के सिंचित प्रदेश- वर्तमान सिंध (पाकि0) का प्रांत। रघुवंश 15,87 में सिंध नामक देश का रामचंद्रजी द्वारा भरत को दिए जाने का उल्लेख है, 'युधाजितश्च संदेशात्स देशं सिंधुनामकम् ददौ दत्तप्रभावाय भरताय भृतप्रज:'। इस प्रसंग में यह भी वर्णित है कि युधाजित् (भारत का मामा, केकय नरेश) से संदेश मिलने पर उन्होंने यह कार्य सम्पन्न किया था। संभव है कि सिंधु देश उस समय केकय देश के अधीन रहा हो। सिंधु पर अधिकार करने के लिए भरत ने गंधर्वों को हराया था-'भरतस्तत्र गंधर्वान्युधि निर्जित्य केवलम् आतोद्यग्राहयामास समत्याजयदायुधम्' रघु0 15,88 अर्थात् भरत ने युद्ध में (सिंधु देश के) गंधर्वों को हराकर उन्हें शस्त्र त्याग कर वीणा ग्रहण करने पर विवश किया। वाल्मीकि रामायण उत्तर0 100-101 में भी यही प्रसंग सविस्तर वर्णित है, 'सिंधोरूभय: पार्श्वेदेश: परमशोभनं तं च रक्षन्ति गंधर्वा: सायुधा युद्धकोविदा:' उत्तर 100,11)। इससे सूचित होता है कि सिंधुनदी के दोनों ओर के प्रदेश को ही सिंधु-देश कहा जाता था। इसमें गंधार का प्रदेश भी सम्मिलित रहा होगा। यह तथ्य इस प्रकार भी सिद्ध होता है। कि भरत ने इस देश को जीतकर अपने पुत्रों को तक्षशिला और पुष्कलावती (गंधार देश में स्थित नगर) का शासक नियुक्त किया था। तक्षशिला संधु नदी के पूर्व में और पुष्कलावती पश्चिम में स्थित थी। ये दोनों नगर इन दोनों भागों की राजधानी रहे होंगे। सिंध के निवासियों को विष्णु 2,3,17 में सैंधवा: कहा गया है-'सौवीरा सैंधवाहूणा: शाल्वा: कोसलवासिन:' । सिंधु देश में उत्पन्न लवण (सैंधव) का उल्लेख कालिदास ने रघु0 5,73 में इस प्रकार किया है-' वक्त्रोष्मणा मलिनयन्ति पुरोगतानि, लेह्यानि सैंधवशिलाशकलानि वाहा:' अर्थात् सामने रखे हुए सैंधव लवण के लेह्य शिलाखंडों को घोड़े अपने मुख की भाप से धुंधला कर रहे हैं। सौवीर सिंधु देश का ही एक भाग था। महरौली (दिल्ली) में स्थित चंद्र के लौहस्तंभ के अभिलेख में चंद्र द्वारा सिंधु नदी के सप्तमुखों को जीते जाने का उल्लेख है-'तीर्त्वा सप्तमुखानि येन समरे सिंधोर्जिता वाह्लिका: तथा इस प्रदेश में वाह्लिकों की स्थिति बताई गई है (दे0 दिल्ली)। यूनान के लेखकों ने अलक्षेंद्र के भारत-आक्रमण के संबंध में सिंधु-देश के नगरों का उल्लेख किया है। साइगरडिस (Sigerdis) नामक स्थान शायद सागर-द्वीप है जो संधु देश का समुद्रतअ या सिंधु नदी का मुहाना जान पड़ता है। अलक्षेंद्र की सेनाएं सिंधु नदी तथा इसके तटवर्ती प्रदेश में होकर ही वापस लौटी थीं। हर्षचरित, उतुर्थ उच्छ्वास में बाण ने प्रभाकरवर्धन को 'सिंधुराजज्वर:' कहा है जिससे सिंधु देश पर उसके आतंक का बोध होता है। अरबों के सिंध पर आक्रमण के समय वहां दाहिर नामक ब्राह्मण-नरेश का राज्य था। यह आक्रमणकारियों से बहुत ही वीरता के साथ लड़ता हुआ मारा गया था। इसकी वीरांगना पुत्रियों ने बाद में, अरब सेनापति मुहम्मद बिनकासिम से अपने पिता की मृत्यु का बदला लिया और स्वयं आत्महत्या करली। सिंध पर मुसलमानों का अधिकार 1845 ई0 तक रहा जब यहां के अमीरों को जनरल नेपियर ने मियानी के युद्ध में हराकर इस प्रांत को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। (3) सिंध नदी। यह नदी विन्ध्य श्रेणी से (सिंरौज (म0प्र0) के उत्तर से) निकलकर, इटावा और जालौन (उ0प्र0) के बीच यमुना में मिल जाती है। श्रीमद् भागवत में इसका नर्मदा , चर्मण्वती और शोण आदि के साथ उल्लेख है-'नर्मदा चर्मण्वती सिंधुरन्ध: शोणश्च नदी महानदी '। मेघदूत (पूर्वमेध, 31) में कालिदास ने सिंधु का इस प्रकार वर्णन किया है-'वेणीभूतप्रतनुसलिला सावतीतस्य सिंधु: पांडुच्छायातटरूहतरूभ्रंशिभि: जीर्णपर्णै:, सौभाग्य ते सुभग विराहावस्थया व्यंजयन्ती, कार्श्ययेन त्यजति विधिना से त्वयैवोपपाद्य:'। मेघ के यात्रा-क्रम के अनुसार यह यमुना की सहायक प्रसिद्ध सिंधु हो सकती है, किंतु मेघ को, विदिशा से उज्जयिनी के मार्ग में, इस सिंध के मिलने की संभावना अधिक नहीं जान पड़ती क्योंकि वर्तमान भीलसा (प्राचीन विदिशा) से उज्जै तक जाने वाली सीधी रेखा से यह नदी पर्याप्त उत्तर में छूट जाती है। यह अधिक संभव जान पड़ता है कि कालिदास ने इस स्थान पर सिंधु से कालीसिंध नामक नदी का निर्देश किया है। यह नदी भी विंध्याचल का पहाड़ियों से निकल कर उज्जैन से थोड़ी दूर पश्चिम की ओर बहती हुई कोटा के उत्तर में चंबल में मिल जाती है। सिंधु नदी के वर्णन के पश्चात् ही 32 वें पद में कालिदास ने अवंती या उज्जैन का उल्लेख किया है जो इस नदी के कालीसिंध के साथ अभिज्ञान से ही ठीक जंचता है। यमुना की सहायक सिंध तो उज्जैन से काफी दूर-150 मील के लगभग उत्तर-पश्चिम की ओर विदिशा-उज्जैन के सीधे मार्ग से बाहर छूट जाती है। काली सिंध ही उज्जैन से ठीक पूर्व की ओर इसी मार्ग पर पड़ती है। (4) काली सिंध। (दे0सिंधु 3)
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गंडक नदी
Tuesday, May 04, 2010 4:38 PM
नारायणी नदी भी कहलाती है, मध्य नेपाल और उत्तरी भारत में स्थित । यह काली और त्रिशूली नदियों के संगम से बनी है, जो नेपाल की उच्च हिमालय पर्वतश्रेणी से निकलती है । इनके संगम स्थल से भारतीय सीमा तक नदी को नारायणी के नाम से जाना जाता है । यह दक्षिण-पश्चिम दिशा में भारत की ओर बहती है और फिर उत्तर प्रदेश- बिहार राज्य सीमा के साथ व गंगा के मैदान में दक्षिण-पूर्व दिशा में बहती है । यह 765 किमी लंबे घुमावदार रास्ते से गुज़रकर पटना के सामने गंगा नदी में मिल जाती है । बुढ़ी गंडक नदी एक पुरानी जलधारा है, जो गंडक के पूर्व में इसमे समानांतर बहती है । यह मुंगेर के पूर्वोत्तर में गंगा से जा मिलती है।
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माही नदी
Wednesday, June 09, 2010 11:36 AM
जलधारा, पश्चिम भारत, पश्चिम विंध्य श्रेणी में उदगम, सरदारपुर के ठीक दक्षिण में, मध्य प्रदेश राज्य से उत्तर की ओर प्रवाहित। पश्चिमोत्तर दिशा में मुड़कर गुजरात राज्य से होकर बहती हुई खंभात के पास चौड़े मुहाने से होकर लगभग 580 किमी की दूरी तय करके समुद्र में मिल जाती है। माही द्वारा लाए गए गाद के कारण खंभात की खाड़ी छिछली हो गई है और इस तरह कभी समृद्ध रहे बंदरगाह को अब बंद कर दिया गया है। इस नदी का थाला भूमि स्तर से काफ़ी नीचे स्थित है और सिंचाई के लिए बहुत कम उपयोगी है।