"मोरारजी देसाई": अवतरणों में अंतर
No edit summary |
No edit summary |
||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
==व्यावसायिक जीवन== | ==व्यावसायिक जीवन== | ||
जब मोरारजी देसाई को लगा कि उनकी प्रतिभा आई.सी.एस. (ईंडियन सिविल सर्विस) में चयन होने लायक नहीं है तो उन्होंने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई [[1917]] में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफसर बन गए। मई [[1918]] में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश [[अहमदाबाद]] पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया। | जब मोरारजी देसाई को लगा कि उनकी प्रतिभा आई.सी.एस. (ईंडियन सिविल सर्विस) में चयन होने लायक नहीं है तो उन्होंने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई [[1917]] में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफसर बन गए। मई [[1918]] में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश [[अहमदाबाद]] पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया। | ||
मोरारजी 11 वर्षों तक अपने अहंकारी स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे। अंग्रेज़ों के साथ इनके जो विवाद होते थे, वह प्राय: व्यक्तिगत स्तर के होते थे। वह राजनीति अथवा देशभक्ति के कारण नहीं होते थे। उन्होंने स्वीकार किया कि जब वह मार्च [[1930]] में कस्टम कलेक्टर से मिलने के लिए गए तो एक नागरिक ने कहा था कि वह गाँधीजी को मार डालना चाहता है। इस पर मोरारजी ने कुछ नहीं कहा लेकिन सुनकर उन्हें काफी दु:ख पहुँचा। गोधरा के सांप्रदायिक दंगों में मोरारजी देसाई हिंदुओं की ओर से लिप्त पाए गए। इसके लिए इन्हें वरिष्ठता क्रम में चार सीढ़ियाँ नीचे पदावनत कर दिया गया। | |||
==राजनीतिक जीवन== | |||
इसके बाद आत्ममंथन का दौर चला। मोरारजी देसाई ने [[1930]] में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। [[1931]] में वह [[गुजरात]] प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और [[सरदार पटेल]] के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। [[1932]] में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी [[1937]] तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह [[बंबई]] राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे। मोरारजी को ऐसा कहा जाना पसंद भी आता था। गुजरात के समाचार पत्रों में प्राय: उनके इस व्यक्तित्व को लेकर व्यंग्य भी प्रकाशित होते थे। कार्टूनों में इनके चित्र एक लंबी छड़ी के साथ होते थे जिसमें इन्हें गाँधी टोपी भी पहने हुए दिखाया जाता था। इसमें व्यंग्य यह होता था कि गाँधीजी के व्यक्तित्व से प्रभावित लेकिन अपनी बात पर अड़ा रहने वाला एक ज़िद्दी व्यक्ति। | |||
बहरहाल [[स्वतंत्रता संग्राम]] में भागीदारी के कारण मोरारजी देसाई के कई वर्ष ज़ेलों में ही गुज़रे। देश की आज़ादी के समय राष्ट्रीय राजनीति में इनका नाम वज़नदार हो चुका था। लेकिन मोरारजी की प्राथमिक रुचि राज्य की राजनीति में ही थी। यही कारण है कि [[1952]] में इन्हें बंबई का मुख्यमंत्री बानाया गया। इस समय तक गुजरात तथा [[महाराष्ट्र]] बंबई प्रोविंस के नाम से जाने जाते थे और दोनों राज्यों का पृथक गठन नहीं हुआ था। [[1967]] में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर मोरारजी को [[उप प्रधानमंत्री]] और [[गृह मंत्री]] बनाया गया। लेकिन वह इस बात को लेकर कुंठित थे कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता होने पर भी उनके बजाय [[इंदिरा गाँधी]] को प्रधानमंत्री बनाया गया। यही कारण है कि इंदिरा गाँधी द्वारा किए जाने वाले क्रांतिकारी उपायों में मोरारजी निरंतर बाधा डालते रहे। दरअसल जिस समय श्री कामराज ने सिंडीकेट की सलाह पर इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की घोषणा की थी तब मोरारजी भी प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल थे। जब वह किसी भी तरह नहीं माने तो पार्टी ने इस मुद्दे पर चुनाव कराया और इंदिरा गाँधी ने भारी मतांतर से बाजी मार ली। यह इंदिरा गाँधी का ही बड़प्पन था कि उन्होंने मोरारजी के अहं की तुष्टि के लिए इन्हें उप प्रधानमंत्री का पद दिया। | |||
{{लेख प्रगति | {{लेख प्रगति |
10:44, 18 अक्टूबर 2010 का अवतरण
मोरारजी का पूरा नाम मोरारजी रणछोड़जी देसाई था। (जन्म- 29 फरवरी 1896, गुजरात) उन्हें भारत के चौथे प्रधानमंत्री के रूप में जाना जाता है। वह 81 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री बने थे। इसके पूर्व कई बार उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की परंतु असफल रहे। लेकिन ऐसा नहीं हैं कि मोरारजी प्रधानमंत्री बनने के क़ाबिल नहीं थे। वस्तुत: वह दुर्भाग्यशाली रहे कि वरिष्ठतम नेता होने के बावज़ूद उन्हें पंडित नेहरू और लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद भी प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री पद के लिए अति महत्वाकांक्षी थे। उनकी यह आकांक्षा मार्च 1977 में पूर्ण हुई लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में इनका कार्यकाल पूर्ण नहीं हो पाया। चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा के कारण उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा।
जन्म एवं
श्री मोरारजी देसाई का जन्म 29 फरवरी 1896 को गुजरात के भदेली नामक स्थान पर हुआ था। उनका संबंध एक ब्राह्मण परिवार से था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई भावनगर (सौराष्ट्र) में एक स्कूल अध्यापक थे। वह अवसाद (निराशा एवं खिन्नता) से ग्रस्त रहते थे, अत: उन्होंने कुएं में कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मोरारजी देसाई की शादी हुई थी। पिता को लेकर उनके ह्रदय में काफी सम्मान था। इस विषय में मोरारजी देसाई ने कहा था-
"मेरे पिता ने मुझे जीवन के मूल्यवान पाठ पढ़ाए थे। मु्झे उनसे कर्तव्यों का पालन करने की प्रेरणा प्राप्त हुई थी। उन्होंने धर्म पर विश्वास रखने और सभी स्थितियों में समान बने रहने की शिक्षा भी मुझे दी थी।"
मोरारजी देसाई की माता मणिबेन क्रोधी स्वभाव की महिला थीं। वह अपने घर की समर्पित मुखिया थीं। रणछोड़जी की मृत्यु के बाद वह अपने नाना के घर अपना परिवार ले गईं। लेकिन इनकी नानी ने इन्हें वहाँ नहीं रहने दिया। वह पुन: अपने पिता के घर पहुँच गईं।
विद्यार्थी जीवन
मोरारजी देसाई की शिक्षा-दीक्षा मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई जो उस समय काफी महंगा और खर्चीला माना जाता था। मुंबई में मोरारजी देसाई नि:शुल्क आवास गृह में रहे जो गोकुलदास तेजपाल के नाम से प्रसिद्ध था। एक समय में वहाँ 40 शिक्षार्थी रह सकते थे। विद्यार्थी जीवन में मोरारजी देसाई औसत बुद्धि के विवेकशील छात्र थे। इन्हें कॉलेज की वाद-विवाद टीम का सचिव भी बनाया गया था लेकिन स्वयं मोरारजी ने मुश्किल से ही किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होगा। मोरारजी देसाई ने अपने कॉलेज जीवन में ही महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक और अन्य कांग्रेसी नेताओं के संभाषणों को सुना था। कॉलेज जीवन के पाँच वर्षों में इन्होंने बहुत सी फ़िल्में देखीं लेकिन स्वयं के पैसों से नहीं। इनका कहना था- "मैं अपने पैसों से फ़िल्म देखना या मनोरंजन करना पसंद नहीं करता। मुझमें कभी ऐसी ख़्वाहिश ही नहीं उठती थी।" मोरारजी देसाई को क्रिकेट देखने का भी शौक था लेकिन क्रिकेट खेलने का नहीं। क्रिकेट मैचों को देखने के लिए वह सही वक्त का इंतजार करते थे और सुरक्षा प्रहरी की नज़र बचाकर दर्शक दीर्घा में प्रविष्ट हो जाते थे।
व्यावसायिक जीवन
जब मोरारजी देसाई को लगा कि उनकी प्रतिभा आई.सी.एस. (ईंडियन सिविल सर्विस) में चयन होने लायक नहीं है तो उन्होंने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई 1917 में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफसर बन गए। मई 1918 में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश अहमदाबाद पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया।
मोरारजी 11 वर्षों तक अपने अहंकारी स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे। अंग्रेज़ों के साथ इनके जो विवाद होते थे, वह प्राय: व्यक्तिगत स्तर के होते थे। वह राजनीति अथवा देशभक्ति के कारण नहीं होते थे। उन्होंने स्वीकार किया कि जब वह मार्च 1930 में कस्टम कलेक्टर से मिलने के लिए गए तो एक नागरिक ने कहा था कि वह गाँधीजी को मार डालना चाहता है। इस पर मोरारजी ने कुछ नहीं कहा लेकिन सुनकर उन्हें काफी दु:ख पहुँचा। गोधरा के सांप्रदायिक दंगों में मोरारजी देसाई हिंदुओं की ओर से लिप्त पाए गए। इसके लिए इन्हें वरिष्ठता क्रम में चार सीढ़ियाँ नीचे पदावनत कर दिया गया।
राजनीतिक जीवन
इसके बाद आत्ममंथन का दौर चला। मोरारजी देसाई ने 1930 में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। 1931 में वह गुजरात प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और सरदार पटेल के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। 1932 में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी 1937 तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह बंबई राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे। मोरारजी को ऐसा कहा जाना पसंद भी आता था। गुजरात के समाचार पत्रों में प्राय: उनके इस व्यक्तित्व को लेकर व्यंग्य भी प्रकाशित होते थे। कार्टूनों में इनके चित्र एक लंबी छड़ी के साथ होते थे जिसमें इन्हें गाँधी टोपी भी पहने हुए दिखाया जाता था। इसमें व्यंग्य यह होता था कि गाँधीजी के व्यक्तित्व से प्रभावित लेकिन अपनी बात पर अड़ा रहने वाला एक ज़िद्दी व्यक्ति।
बहरहाल स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के कारण मोरारजी देसाई के कई वर्ष ज़ेलों में ही गुज़रे। देश की आज़ादी के समय राष्ट्रीय राजनीति में इनका नाम वज़नदार हो चुका था। लेकिन मोरारजी की प्राथमिक रुचि राज्य की राजनीति में ही थी। यही कारण है कि 1952 में इन्हें बंबई का मुख्यमंत्री बानाया गया। इस समय तक गुजरात तथा महाराष्ट्र बंबई प्रोविंस के नाम से जाने जाते थे और दोनों राज्यों का पृथक गठन नहीं हुआ था। 1967 में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर मोरारजी को उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री बनाया गया। लेकिन वह इस बात को लेकर कुंठित थे कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता होने पर भी उनके बजाय इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाया गया। यही कारण है कि इंदिरा गाँधी द्वारा किए जाने वाले क्रांतिकारी उपायों में मोरारजी निरंतर बाधा डालते रहे। दरअसल जिस समय श्री कामराज ने सिंडीकेट की सलाह पर इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की घोषणा की थी तब मोरारजी भी प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल थे। जब वह किसी भी तरह नहीं माने तो पार्टी ने इस मुद्दे पर चुनाव कराया और इंदिरा गाँधी ने भारी मतांतर से बाजी मार ली। यह इंदिरा गाँधी का ही बड़प्पन था कि उन्होंने मोरारजी के अहं की तुष्टि के लिए इन्हें उप प्रधानमंत्री का पद दिया।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ