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'''साड़ी''' भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों का प्रमुख बाह्य पहनावा है। | '''साड़ी''' भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों का प्रमुख बाह्य पहनावा है। [[भारत]] में साड़ी प्राचीन समय से ही स्त्रियों द्वारा पसन्द की जाती रही है। यह हमेशा अपनी विरासत को साथ लेकर चलती है। साड़ी किसी भी नारी की सादगी और शालीनता की परीचायक होती है। साड़ियों में जो कसीदाकारी की जाती है, उसका अपना एक [[इतिहास]] है। यह इतिहास 3,500 साल पुराना है। गाँव के गाँव पीढ़ियों से इस काम में जुटे हैं। एक-एक साड़ी को बनाने में बहुत वक्त लगता है। काम करने की बुनकरों की अपनी एक शैली है और उसी शैली के तहत डिज़ाइन बनाई जाती हैं। जिन देशों में यह शैली पहुँची, वहाँ की [[कला]] में साम्यता दिखाई देने लगती है। भले ही इन साड़ियों को पहनने वाली स्त्रियाँ [[धर्म]] और आस्था पर अपनी अलग राय रखती हों, किंतु साड़ियों में उकेरी गई कला आस्था का प्रमाण अवश्य देती है। | ||
==इतिहास== | |||
दूसरी [[शताब्दी]] ई.पू. की [[मूर्तिकला|मूर्तियों]] में पुरुषों और स्त्रियों के शरीर के ऊपरी भाग को अनावृत दर्शाया गया है। ये कमर के इर्द-गिर्द साड़ी इस प्रकार लपेटे हुए हैं कि पैरों के बीच सामने वाले भाग में चुन्नटें बन जाती हैं। इसमें 12वीं सदी तक कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ। [[भारत]] के उत्तरी और मध्य भाग को जीतने के बाद [[ | यदि साड़ियों के इतिहास के विषय में जानकारी की जाये तो [[यजुर्वेद]] में सबसे पहले साड़ी शब्द का उल्लेख मिलता है। [[ऋग्वेद]] की संहिता<ref>10.130.1</ref> के अनुसार [[यज्ञ]] या हवन के समय पत्नी को साड़ी पहनने का विधान है और विधान के क्रम से ही साड़ी जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बनती चली गई। यही वजह रही कि इसमें निरंतर कई प्रयोग हुए। पौराणिक ग्रंथ [[महाभारत]] में [[द्रौपदी]] के चीर हरण का प्रसंग है। जब क्रोध में आकर [[दुर्योधन]] ने द्यूत क्रीड़ा में द्रौपदी को जीतकर उसकी अस्मिता को सार्वजनिक रूप से चुनौती दी थी, तब भगवान [[श्रीकृष्ण]] ने साड़ी की लंबाई बढ़ाकर उसकी रक्षा की। इस कथा के माध्यम से यह संकेत जाता है कि साड़ी केवल पहनावा नहीं है, बल्कि यह आत्म कवच भी है। | ||
दूसरी [[शताब्दी]] ई. पू. की [[मूर्तिकला|मूर्तियों]] में पुरुषों और स्त्रियों के शरीर के ऊपरी भाग को अनावृत दर्शाया गया है। ये कमर के इर्द-गिर्द साड़ी इस प्रकार लपेटे हुए हैं कि पैरों के बीच सामने वाले भाग में चुन्नटें बन जाती हैं। इसमें 12वीं सदी तक कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ। [[भारत]] के उत्तरी और मध्य भाग को जीतने के बाद [[मुस्लिम|मुस्लिमों]] ने ज़ोर दिया कि शरीर को पूरी तरह से ढका जाए। | |||
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[[हिन्दू]] महिलाएँ साड़ी को एक छोटे से अंग वस्त्र, जिसे सामान्यत: ब्लाउज़ तथा लहंगे, जिसे बोलचाल की भाषा में पेटीकोट कहते हैं, के साथ पहनतीं हैं, जिसमें साड़ी को खोंसकर कमर से पैर तक एक लंबा घेरा बना लिया जाता है। [[महाराष्ट्र]] में अक्सर नौ गज़ की साड़ी लांघदार बांधी जाती है। साड़ी में प्रयोग होने वाले [[रंग|रंगों]] के माध्यम से स्त्री अपने मन के भावों को व्यक्त करती है। | |||
चूंकि साड़ी का धर्म के साथ विशेष जुड़ाव रहा है, इसलिए बहुत सारे धार्मिक संकेत चिह्न और धार्मिक परंपरागत कला का समावेश इसमें होता था। लोक कलाकार, जिन्होने समाज की रूढ़ियों की वजह से धर्म परिवर्तन किया था, उन्होंने कला का विस्तार करते हुए [[गंगा]]-[[यमुना]] संस्कृति का प्रयोग साड़ियों को डिज़ाइन करते समय किया और आज पीढ़ी दर पीढ़ी यह कला अपनी विरासत नई पीढ़ी को सौपती हुई आगे बढ़ रही है। इसीलिए साड़ियों में [[हिन्दू धर्म]], [[जैन धर्म]] तथा [[बौद्ध धर्म]] का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। जिन-जिन देशों में धर्मानुयायी गए, वहाँ की कला में कई धार्मिक चिंह्न दिखाई देने लगे। फिर चाहे वह इडोनेशिया हो, [[पाकिस्तान]] हो या फिर [[श्रीलंका]]। कलाकारी का अद्भुत साम्य यहाँ देखने को मिलता है। इंडोनेशिया में जो साड़ियाँ बनाई जाती हैं, उनके मोटिफ आध्यात्मिक हैं। | |||
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06:50, 20 नवम्बर 2012 का अवतरण

साड़ी भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों का प्रमुख बाह्य पहनावा है। भारत में साड़ी प्राचीन समय से ही स्त्रियों द्वारा पसन्द की जाती रही है। यह हमेशा अपनी विरासत को साथ लेकर चलती है। साड़ी किसी भी नारी की सादगी और शालीनता की परीचायक होती है। साड़ियों में जो कसीदाकारी की जाती है, उसका अपना एक इतिहास है। यह इतिहास 3,500 साल पुराना है। गाँव के गाँव पीढ़ियों से इस काम में जुटे हैं। एक-एक साड़ी को बनाने में बहुत वक्त लगता है। काम करने की बुनकरों की अपनी एक शैली है और उसी शैली के तहत डिज़ाइन बनाई जाती हैं। जिन देशों में यह शैली पहुँची, वहाँ की कला में साम्यता दिखाई देने लगती है। भले ही इन साड़ियों को पहनने वाली स्त्रियाँ धर्म और आस्था पर अपनी अलग राय रखती हों, किंतु साड़ियों में उकेरी गई कला आस्था का प्रमाण अवश्य देती है।
इतिहास
यदि साड़ियों के इतिहास के विषय में जानकारी की जाये तो यजुर्वेद में सबसे पहले साड़ी शब्द का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद की संहिता[1] के अनुसार यज्ञ या हवन के समय पत्नी को साड़ी पहनने का विधान है और विधान के क्रम से ही साड़ी जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बनती चली गई। यही वजह रही कि इसमें निरंतर कई प्रयोग हुए। पौराणिक ग्रंथ महाभारत में द्रौपदी के चीर हरण का प्रसंग है। जब क्रोध में आकर दुर्योधन ने द्यूत क्रीड़ा में द्रौपदी को जीतकर उसकी अस्मिता को सार्वजनिक रूप से चुनौती दी थी, तब भगवान श्रीकृष्ण ने साड़ी की लंबाई बढ़ाकर उसकी रक्षा की। इस कथा के माध्यम से यह संकेत जाता है कि साड़ी केवल पहनावा नहीं है, बल्कि यह आत्म कवच भी है।
दूसरी शताब्दी ई. पू. की मूर्तियों में पुरुषों और स्त्रियों के शरीर के ऊपरी भाग को अनावृत दर्शाया गया है। ये कमर के इर्द-गिर्द साड़ी इस प्रकार लपेटे हुए हैं कि पैरों के बीच सामने वाले भाग में चुन्नटें बन जाती हैं। इसमें 12वीं सदी तक कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ। भारत के उत्तरी और मध्य भाग को जीतने के बाद मुस्लिमों ने ज़ोर दिया कि शरीर को पूरी तरह से ढका जाए।
धर्म से जुड़ाव
हिन्दू महिलाएँ साड़ी को एक छोटे से अंग वस्त्र, जिसे सामान्यत: ब्लाउज़ तथा लहंगे, जिसे बोलचाल की भाषा में पेटीकोट कहते हैं, के साथ पहनतीं हैं, जिसमें साड़ी को खोंसकर कमर से पैर तक एक लंबा घेरा बना लिया जाता है। महाराष्ट्र में अक्सर नौ गज़ की साड़ी लांघदार बांधी जाती है। साड़ी में प्रयोग होने वाले रंगों के माध्यम से स्त्री अपने मन के भावों को व्यक्त करती है।
चूंकि साड़ी का धर्म के साथ विशेष जुड़ाव रहा है, इसलिए बहुत सारे धार्मिक संकेत चिह्न और धार्मिक परंपरागत कला का समावेश इसमें होता था। लोक कलाकार, जिन्होने समाज की रूढ़ियों की वजह से धर्म परिवर्तन किया था, उन्होंने कला का विस्तार करते हुए गंगा-यमुना संस्कृति का प्रयोग साड़ियों को डिज़ाइन करते समय किया और आज पीढ़ी दर पीढ़ी यह कला अपनी विरासत नई पीढ़ी को सौपती हुई आगे बढ़ रही है। इसीलिए साड़ियों में हिन्दू धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। जिन-जिन देशों में धर्मानुयायी गए, वहाँ की कला में कई धार्मिक चिंह्न दिखाई देने लगे। फिर चाहे वह इडोनेशिया हो, पाकिस्तान हो या फिर श्रीलंका। कलाकारी का अद्भुत साम्य यहाँ देखने को मिलता है। इंडोनेशिया में जो साड़ियाँ बनाई जाती हैं, उनके मोटिफ आध्यात्मिक हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.130.1
बाहरी कड़ियाँ
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