सूरजमल के निर्माणकार्य
सूरजमल के निर्माणकार्य
दिल्ली और आगरा के श्रेष्ठ मिस्तरी, झुंड बनाकर बदनसिंह और सूरजमल के दरबारों में रोज़गार ढूँढ़ने आते थे। इन दोनों ने ही अपने विपुल एवं नव-अर्जित धन का उपयोग कलाकृतियों के सृजन के लिए किया। भरतपुर राज्य में सुव्यवस्था और जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा थी, जो अन्यत्र दुर्लभ थीं, और जिसके लिए लोग तरसते थे। इसके विपरीत, दिल्ली और आगरा में अशान्ति और अव्यवस्था थी। इस समय बदनसिंह के पास जन, धन और साधन-सभी कुछ था। अपने भवन-निर्माण-कार्यक्रम के लिए उसने जीवनराम बनचारी को अपना निर्माण-मन्त्री नियुक्त किया। बनचारी बहुत योग्य और सुरुचि सम्पन्न व्यक्ति था। अपने लिए उसने एक बड़ा लाल पत्थर का मकान बनवाया था, जो आजकल स्थानीय चिकित्सा अधिकारियों के क़ब्ज़े में है।
- इन क़िलों, बग़ीचों, झीलों, महलों और मन्दिरों का काव्यात्मक वर्णन सूरजमल के 'राजकवि सोमनाथ' द्वारा लिखित 'सुजान-विलास' में मिलता है।
- बाँसी पहाड़पुर से संगमरमर और बरेठा से लाल पत्थर डीग, भरतपुर, कुम्हेर और वैर तक पहुँचाने के लिए 1000 बैलगाड़ियों, 200 घोड़ो-गाड़ियों, 1500 ऊँट-गाड़ियों और 500 खच्चरों को लगाया गया था। इन चार स्थानों पर भवनों तथा वृन्दावन गोवर्धन और बल्लभगढ़ में छोटे-मोटे निर्माण-कार्यों को पूरा करने में बीस हज़ार स्त्री-पुरुष लगभग एक-चौथाई शताब्दी तक दिन-रात जुटे रहे।
- वृन्दावन में सूरजमल की दो बड़ी रानियों–रानी किशोरी और रानी लक्ष्मी–के लिए दो सुन्दर हवेलियाँ बनवाई गईं। दो अन्य रानियों–गंगा और मोहिनी ने पानीगाँव में सुन्दर मन्दिर बनवाए।
- अलीगढ़ का क़िला सूरजमल ने बनवाया।
- डीग से पन्द्रह मील पूर्व की ओर, सहर में बदनसिंह ने एक सुन्दर भवन बनवाया, जो बाद में उसका निवास स्थान बन गया।
- एक पीढ़ी में ही भरतपुर और डींग के प्राकृतिक दृश्य बदल गए थे। पहले डीग एक छोटा-सा क़स्बा था; अब वह बहुत सुन्दर तथा समृद्ध उद्यान-नगर बन गया था, जहाँ पहले बदनसिंह और उसके बाद सूरजमल के आगरा और दिल्ली से होड़ करने वाले शानदार दरबार लगा करते थे। डीग से बीस मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित सोघर के जंगल काट दिए गए और दलदलें पाट दी गईं और वहाँ विशाल एवं भव्य भरतपुर का क़िला बना।
डीग का मुख्य महल
- 'गोपाल भवन' सन् 1745 तक पूरा बन चुका था। ' इसमें शाहजहाँ के महलों के लालित्य और राजपूत वास्तुकला के अपेक्षाकृत दृढ़तर स्वरूप का मेल है, जो आधुनिक जीवन की सुविधाओं के लिए राजपूताना के इसके पूर्ववर्ती दुर्ग-प्रसादों की अपेक्षा अधिक अनुकूल है।....कल्पना की विशालता और बारीकियों के सौन्दर्य की दृष्टि से इसका जोड़ मिलना मुश्किल है। 'गोपाल भवन' में एक विशाल दीवान-ए-आम है, जिसका मुख दक्षिण में स्थित उद्यान की ओर है। शाम की ठंडक में टहलने के लिए खुली छत को सामान्य से अधिक महत्त्व दिया गया है; इसीलिए कोई गुम्बद या छतरी नहीं बनाई गई और छत को चारों दिशाओं में भवन की दीवारों से आगे तक बढ़ाकर पत्थर की जालीदार मुँडेर बना दी गई है। इस मुँडेर के नीचे साधारण चौड़ा छज्जा है, जो दीवारों को वर्षा और धूप से बचाता है। इन दोनों के मेल से सारी इमारत का एक निराला ही कँगूरा बन गया है, जो इतावली पुनर्जागरण-काल के महलों के अनुपयोगी 'सोच-विचार कर बनाए गए' कँगूरों की अपेक्षा कहीं अधिक मौलिक और अधिक सुन्दर है; वे इतालवी कँगूरे तो बरसाती पानी के बहाब को इमारत के बाहर से भीतर की ओर मोड़ देते हैं और इस प्रकार नल लगाने वाले, पलस्तर करने वाले और दीवारों पर काग़ज़ मढ़ने वाले लोगों को लगातार रोज़गार जुटाते रहने का साधन हैं।'[1]
- 'गोपाल भवन' लाल पत्थर का बना है और उसकी बेल-बूटेदार हिन्दू मेहराबों से पता चलता है कि सूरजमल ने उन कारीगरों को काम दिया था, जो औरंगजेब के समय से मुग़ल दरबार में काम करना छोड़ चुके थे। 'सब ओर फैलते हुए बढ़े डाट-पत्थरों के बजाय, दो प्रस्तर-खंडों से बन्धनी (ब्रैकेट) सिद्धान्त पर इन चौड़े द्वारों के निर्माण की आलोचना करते हुए पश्चिमी आलोचक आम तौर से कहा करते हैं कि यह पश्चिम देशीय मेहराब को न अपनाने के लिए हिन्दू-शिल्पियों का दुराग्रह मात्र था। वास्तविकता यह है कि जहाँ उपयुक्त आकार और अच्छी क़िस्म का पत्थर मिल सकता हो, वहाँ इस प्रकार का रूप मढ़ने का सबसे सरल, सबसे व्यावहारिक और सबसे कलापूर्ण तरीक़ा यही है।....'गोपाल भवन' के अन्तरंग कक्ष इस इमारत के उत्तरी, पूर्वी तथा पश्चिमी भागों में हैं। उत्तरी पुरोभाग एक बड़े नहाने के तालाब के सामने पड़ता है और बहुत-से छज्जों और ठेठ बंगाली छतवाले दो विशाल खुले मंडपों के कारण बहुत आकर्षक तथा अद्भुत बन गया है। यदि वह वेनिस की विशाल नहर के पास ले जाकर खड़ा किया जा सकता, तो इसे वेनिस का सबसे आनन्ददायक महल माना जाता।'[2]
- 'गोपाल भवन' के सामने एक अत्यन्त सुन्दर संगमरमर का झूला है; चतुर प्रेक्षक हावेल ने इसका उल्लेख नहीं किया। इसकी संगमरमर की चौकी पर पत्थर की पच्चीकारी की गई है और उस पर सन् 1630-31 का एक फ़ारसी लेख है । अपने महलों की शोभा बढ़ाने के लिए इतनी सुकुमार, चटकदार और परिमार्जित वस्तु की इच्छा केवल शाहजहाँ जैसे किसी महान् भवन-निर्माता की ही हो सकती थी। इस हिंडोले को सूरजमल दिल्ली से बैलगाड़ियों पर लदवाकर लाया था। इसके संगमरमर का कहीं से एक टुकड़ा भी नहीं टूटा-यहाँ तक कि जिस चौकी पर यह झूला बना है, उसके चारों ओर लगा बहुत ही नाज़ुक संगमरमर का परदा भी कहीं से नहीं टूटने पाया।
- उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में इन इमारतों की देख-रेख जे.एच देवनिश करते रहे थे, उन्होंने इनकी कारीगरी की सराहना करते हुए लिखा है - 'प्रत्येक इमारत की योजना बिल्कुल सही समरूपता के हिसाब से बनी है, प्रत्येक अंग का ठीक वैसा ही प्रतिरूप अवश्य बनाया गया है।....दीवारों में बने आलों की इस ख़ूबसूरती से नक़्क़ाशी की गई है कि उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि मानो वे किसी उद्यान की सुन्दर छतरियों का लघु रूप हों। दीवार के आरपार खोला गया छेद गुम्बददार छतों से, जिनमें दीवार के धरातल पर उभारदार नक़्क़ाशी की गई है, मिलते-जुलते ढंग से सजाया गया है।.........उनकी नक़्क़ाशीदार और नुकीली ओलतियाँ पत्थर की नाज़ुक नक़्क़ाशी के अद्भुत नमूने हैं।' आगरा और दिल्ली के महलों से उनकी तुलना करते हुए देवनिश कहता है -'दूसरी ओर डीग में जड़त का काम आगरा और दिल्ली से भिन्न प्रकार का है और सम्भवतः अधिक कलात्मक भी।' उनकी मौलिकता पर उसकी टिप्पणी है – 'डीग में जो संगमरमर का एकमात्र भवन है, वह बारीकियों की दृष्टि से मुसलमानी कलाकृतियों से स्पष्टः भिन्न है। इसकी सारी भावना हिन्दू है। डीग के महलों के निर्माताओं को इस बात की आवश्यकता बिलकुल नहीं थी कि वे मौलिकता के अभाव के कारण अन्य इमारतों की नक़ल करें या उन्हें और कहीं से लाकर यहाँ खड़ा करें।'[3]
- भारत के 'गज़ेटियर' में थौर्नटन ने लिखा है –'अपने चरम उत्कर्ष के दिनों में सूरजमल ने वे निर्झर–प्रासाद बनवाए, जिन्हें, 'भवन' कहा जाता है, भारत में सौन्दर्य तथा कारीगरी की दृष्टि से केवल आगरा का ताजमहल ही इनसे बढ़कर है...।'
- जेम्स फ़र्ग्युग्सन भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचा है कि महल 'अप्सरा–लोक की कृतियाँ हैं ।'[4]
भरतपुर का क़िला
इस क़िले को बनाने का काम सन् 1732 में आरम्भ हुआ। सैकड़ों ब्राह्मणों को भोजन कराया गया; गोवर्धन में श्री गिरिराज महाराज से आशीर्वाद लिया गया। लगभग एक पूरा सप्ताह तो पूजा ही में लग गया होगा। एक बार शुरू हो जाने के बाद निर्माण-कार्य साठ वर्ष तक रूका ही नहीं। मुख्य क़िलेबन्दियाँ आठ वर्षों में पूरी हो गई; इनमें दो खाइयाँ भी सम्मिलित थीं– एक तो शहर की बाहरवाली चारदीवारी के पास थी और दूसरी कम चौड़ी, पर ज़्यादा गहरी खाई क़िले को घेरे हुए हुई थी। बाढ़ के पानी को रोकने और अकाल के समय सहायता पहुँचाने के लिए दो बाँध और जलाशय (ताल) बनाए गये। यहाँ बहुधा अकाल पड़ते रहते थे और यही हाल मलेरिया, चेचक, हैजा, तथा अन्य अनेक बीमारियों का था। विस्तार का कार्य सूरजमल के पौत्र के प्रपौत्र महाराज जसवन्तसिंह (सन 1853-93) के राज्य-काल तक चलता रहा।
- जब यह क़िला बनकर तैयार हुआ, तब यह हिन्दुस्तान का सबसे अजेय क़िला था। विमान के आविष्कार से पहले इसे जीतना असम्भव था। लॉर्ड का असफल घेरा सन् 1805 में जनवरी से अप्रैल तक, चार महीने पड़ा रहा। भरतपुर में अंग्रेजो की जो अपमानजनक हार हुई, वैसी हिन्दुस्तान में अन्यत्र कहीं नहीं हुई।
- यह क़िला कई दृष्टिकोणों से असाधारण रचना थी। बाहरवाली खाई लगभग 250 फुट चौड़ी और 20 फुट गहरी थी। इस खाई की खुदाई से जो मलवा निकला, वह उस 25 फुट ऊँची और 30 फुट मोटी दीवार को बनाने में लगा, जिसने शहर को पूरी तरह घेरा हुआ था । इसमें दस बड़े-बड़े दरवाज़े थे, जिनसे आवागमन पर नियन्त्रण रहता था। उनके नाम हैं– मथुरा पोल (दरवाज़ा), वीरनारायण पोल, अटलबन्द पोल, नीम पोल, अनाह पोल, कुम्हेर पोल, चाँद पोल, गोवर्धन पोल, जघीना पोल और सूरज पोल। आज मिट्टी की चहारदीवारी जगह-जगह से टूट गई है और गन्दे अनाधिकृत मकानों ने उसे विरूप कर दिया है, फिर भी ये दरवाज़े इस समय भी काम कर रहे हैं।
- किसी भी दरवाज़े से घुसने पर रास्ता एक पक्की सड़क पर जा पहुँचता था, जिसके परे भीतरी खाई थी, जो 175 फुट चौड़ी और 40 फुट गहरी थी। इस खाई में पत्थर और चूने का फ़र्श किया गया था। दोनों ओर दो पुल थे, जिन पर होकर क़िले के मुख्य द्वारों तक पहुँचना होता था। पूर्वी दरवाज़े के किवाड़ आठ धातुओं के मिश्रण से बने थे, इसीलिए इसे 'अष्टधातु द्वार' कहा जाता है। महाराजा जवाहर सिंह इसे दिल्ली से विजय-चिह्न के रूप में लाए थे। मुख्य क़िले की दीवारें 100 फुट ऊँची थीं और उनकी चौड़ाई 30 फुट थी। इनका मोहरा (सामनेवाला भाग) पत्थर, ईंट और चूने का बना था, बाक़ी हिस्सा केवल मिट्टी का था, जिस पर तोपों की गोलाबारी का कोई असर नहीं होता था। क़िले के अन्दर की इमारतें दोनों प्रकार की थीं– शोभा की भी और काम आनेवाली भी। आठ बुर्ज थे। इनमें सबसे ऊँचा था जवाहर बुर्ज। इस पर चढ़कर, आकाश साफ़ हो तो, फ़तेहपुर सीकरी का बुलन्द दरवाज़ा देखा जा सकता था। सभी बुर्जों पर बड़ी-बड़ी तोपें लगी थीं।
- सर जदुनाथ सरकार लिखते हैं– 'सूरजमल का मुख्य लक्ष्य यह था कि भरतपुर की ऐसी मज़बूत क़िलेबन्दी कर दी जाए कि वह बिलकुल अजेय हो और उसके राज्य की उपयुक्त राजधानी बन सके।....इन सभी क़िलों में रक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था की गई थीं। इनमें लूटकर या ख़रीदकर प्राप्त की गई अनगिनत छोटी तोपें लगी थीं, बड़ी तोपें उसने स्वयं ढलवाई थी।'[5]