सूरजमल और जवाहर सिंह
सूरजमल
कुम्हेर का घेरा उठ जाने से सूरजमल को कुछ चैन मिला जिसकी उसे बहुत आवश्यकता थी। उसके साधन लगभग समाप्ति की सीमा तक पहुँच गए थे। प्रशासनिक, वित्तीय तथा सैनिक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए उसे कुछ देर विश्राम की आवश्यकता थी। दिल्ली की दशा जितनी आम तौर पर हुआ करती थी, उससे भी अधिक बिगड़ी हुई थी। इससे सूरजमल को मराठों से समझौता करके छोटे-मोटे लाभ उठाने का मौक़ा मिल गया। वह इस बात के लिए राज़ी हो गया कि वह उत्तर भारत के मराठों के कार्यों का विरोध नहीं करेगा और उत्तर भारत में उनके बार-बार होने वाले धावों में बाधा नहीं डालेगा। रघुनाथ ने सूरजमल को छूट दे दी कि वह आगरा प्रान्त के अधिकांश प्रदेश पर क़ब्जा कर ले। यह प्रदेश अब तक मराठों के पास था सूरजमल और जवाहर सिंह ने पलवल पर अधिकार कर लिया, बल्लभगढ़ वापस ले लिया और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि मार्च, 1756 में अलवर को अपने नियन्त्रण में ले लिया। परन्तु अब सब काम निर्विघ्न, शान्ति से नहीं चल रहा था। अब एक नए व्यक्ति ने साम्राज्य के मामलों में प्रवेश किया, जो बाद में बहुत भयावह पुरुष सिद्ध हुआ। वह था-अफ़ग़ान रूहेला नजीब़ ख़ाँ। सूरजमल को इस नवागन्तुक की उपस्थिति का अनुभव तुरन्त ही करना पड़ गया। जून, 1755 में नजीब़ ख़ाँ नए वज़ीर–इमाद-उल-मुल्क के आदेश पर उन इलाक़ो को वापस लेने के लिए निकला, जिन पर गंगा–यमुना के दोआब में सूरजमल ने क़ब्जा कर लिया था। चूँकि दोनो पक्षों में से कोई भी लम्बे सैनिक संग्राम के लिए उत्सुक नहीं था, इसलिए राजकीय भूमि के दीवान नागरमल ने एक सन्धि की रूपरेखा तैयार की। यह दोनों में से किसी भी पक्ष के लिए पूरी तरह सन्तोषजनक नहीं था। इस 'डासना की सन्धि' की शर्तें निम्न थीं–
- अलीगढ़ ज़िले में सूरजमल ने जिन ज़मीनों पर दख़ल किया हुआ है, वे उसी के पास रहेंगी।
- इन ज़मीनों पर स्थायी राजस्व छब्बीस लाख रूपए तय हुआ, जिसमें से अठारह लाख रूपए उन जागीरों के नक़द मुआवज़े के कम किए जाने थे, जो अहमदशाह के शासन-काल में खोजा जाविद ख़ाँ ने सूरजमल के नाम कर दी थीं, परन्तु उन दिनों की निरन्तर अशान्ति के कारण जिन्हें बाक़ायदा हस्तान्तिरित नहीं किया जा सका था।
- सूरजमल सिकन्दराबाद के क़िले और ज़िले को ख़ाली कर देगा, जो मराठों ने उसे दे दिया था।
- बाक़ी आठ लाख रुपयों में से, जो शाही राजकोष को मिलने थे, सूरजमल दो लाख रूपए डासना-सन्धि पर हस्ताक्षर करते समय और बाक़ी छह लाख एक साल के अन्दर चुका देगा। 'डासना की सन्धि' बेलाग विजय तो नहीं थी, परन्तु इसे बड़ी पराजय भी नहीं कहा जा सकता। कहा जा सकता है कि जोड़ बराबरी पर छूटा, जिसमें सारे समय जाटों का पलड़ा भारी रहा।
ठाकुर बदनसिंह का निधन
भगवान की माया सचमुच विचित्र है। अब तक सूरजमल का भाग्य-नक्षत्र ज़ोरों से दमकता रहा था और जाटों के आकाश को अपनी दीप्ति से जगमगाता रहा था। अचानक ही दो दुखद घटनाओं ने उसके जीवन को अन्धकारमय कर दिया। पहले तो उसके पिता ठाकुर बदनसिंह का जून, 1756 में डीग में स्वर्गवास हो गया। यह अन्त बहुत अप्रत्यशित नहीं था, क्योंकि वृद्ध ठाकुर का स्वास्थ बहुत समय से गिरता जा रहा था। वह बिलकुल अन्धे हो चुके थे और अपने महल में ही रहते थे। यहाँ तक कि गोवर्धन, वृन्दावन और गोकुल के मन्दिरों में भी उनका जाना बहुत कम हो गया था। जब तक वह जीवित थे, तब तक सूरजमल उत्साहपूर्वक अपने काम में जुटा रह सकता था और अपने भविष्य का निर्माण कर सकता था। अगर कोई काम बिगड़ने लगे, तो वह तुरन्त अपने पिता के पास जा सकता था और वह समस्या का सही हल निकाल देते। उनकी मृत्यु से सूरजमल की चिन्ताएँ, बोझ और ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गई। अब वह वैधानिक तथा वास्तविक–दोनों रूपों के एक विशाल एवं सामारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण राज्य का शासक था। इस राज्य को उसके पिता ने, जो किसी भी दृष्टि से देखने पर एक अत्यन्त सत्वशाली पुरुष थे, बिलकुल शून्य में से गढ़कर तैयार किया था।
जवाहर सिंह का विद्रोह
अभी वह अपने पिता की मृत्यु के शोक से उबर भी नहीं पाया था कि उसके पुत्र जवाहरसिंह ने विद्रोह का झंडा खड़ा करके उस पर मर्मान्तक आघात किया। पिता के विरुद्ध जवाहर सिंह के विद्रोह का वर्णन करने के पहले सूरजमल के घरेलू मामलों की चर्चा कर देना उपयोगी होगा, क्योंकि इनका उन झगड़े पर बहुत प्रभाव रहा, जो बढ़ते-बढ़ते चिन्ताजनक सीमा तक जा पहुँचा और उसकी शाखा-प्रशाखाएँ दूर-दूर तक फैल गई।
- फ़िलिप मेसन भारतीय सेना की सहाहना करते हुए अपने इतिहास में लिखता है- 'उत्तरकालीन मुग़ल सम्राटों के किसी पुत्र के लिए विद्रोह बहुत कुछ वैसा ही था, जैसा कि किसी निर्वाचन–क्षेत्र को पटाना। इससे महत्त्वाकांक्षा प्रकट होती थी, साथियों की परख हो जाती थी, अनुभव प्राप्त हो जाता था और इससे सिंहासन तक पहुँचने का मार्ग भी साफ़ हो सकता था।'[1]
विद्रोह का रोग संक्रामक था। अफ़ग़ान, राजपूत, मराठे, सिख और जाट भी इससे ग्रस्त हो गए थे, लेकिन इससे उनका कुछ भी भला नहीं हुआ। विद्रोह कर बैठना एक बात है और उसे सफल बना पाना बिलकुल दूसरी बात । इस विशिष्ट मनोरंजन में हताहतों का अनुपात कुछ अधिक ही रहता है। यद्यपि इस विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता, फिर भी किंवदन्ती है कि राजा सूरजमल की चौदह पत्नियाँ थी, जिनमें सबसे प्रसिद्ध दो हैं–
- रानी हँसिया और
- रानी किशोरी। रानी हँसिया सलीमपुर कलाँ की थी और रानी किशोरी होडल की, उसका पिता चौधरी काशीराम वहाँ का काफ़ी प्रभावशाली और धनी व्यक्ति था। विवाह को राजनीतिक साधन बनाने में सूरजमल अपने पिता के चरण-चिह्नों पर चला था। रानी हँसिया का पुत्र नाहरसिंह था, जो अच्छा आदमी नहीं था और यह एक रहस्य ही है कि सूरजमल ने उसे अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार भी क्यों किया। तीसरी पत्नी थी गंगा, जिसके दो पुत्र थे– जवाहरसिंह और रतन सिंह।
- ठाकुर गंगासिह ने अपने ग्रन्थ 'यदुवंश' में लिखा है कि रानी गंगा चौहान राजपूत थी, परन्तु अन्य लेखकों का कथन है कि गोरी राजपूत थी।
- कर्नल टाड के इस कथन के समर्थन में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि जवाहरिसंह एक कुर्मी (निम्न जाति) महिला का पुत्र था । परन्तु यह विचार-विमर्श निरर्थक है और हमें इस पर देर तक अटकने की आवश्यकता नहीं है। रानी कावरिया और रानी खेतकुमारी ने क्रमशः नवलसिंह और रणजीतसिंह को जन्म दिया। रानी किशोरी के कोई सन्तान नहीं था, उसने जवाहर सिंह को गोद ले लिया। जवाहर सिंह के साथ अन्य चार भाईयों की कोई बराबरी थी ही नहीं। उसमें गुण तो थे, परन्तु उसके स्वभाव के दोष उन गुणों की अपेक्षा कहीं अधिक थे। वह क्रोधी स्वभाव का था और धैर्य तथा शान्तिपूर्ण लगन के मूल्य को नहीं समझ पाया था। अनियन्त्रित महत्त्वाकांक्षा विनाश का कारण बनती है जवाहर सिंह में साहस इतना अधिक था कि दोष की सीमा एक पहुँच गया था। अपनी झोंक में आकर वह औंरो की बुद्धिमत्ता की अवहेलना कर देता था। वह ख़ुशामद से रीझ जाता था और आलोचना ज़रा भी नहीं सह सकता था। उसे यह ग़लतफ़हमी थी कि जो लोग नरमी से काम लेते हैं, वे यश और धन अर्जित नहीं कर पाते। उसमें न तो अपने पिता की-सी निष्कपट भावना थी, न सतर्क समझदारी। जवाहर सिंह के निरन्तर चिड़चिडे़पन के फलस्परूप पहले मतभेद और उसके बाद विद्रोह होना अवश्यंभावी था। छोटी-छोटी बातों पर छोटे-छोटे मतभेद प्रायः बड़े संघर्षों का कारण बन जाते हैं । किसी ज्ञानी पुरुष ने कहा है – 'जो धनुष झुक सकता है, उसका बाण बहुत दूर जाता है।' जवाहरसिंह झुक ही नहीं सकता था।
कलह का आरम्भ तब हुआ, जब सूरजमल ने जवाहर सिंह की नितन्तर बढ़ती धन की माँगों को पूरा करने में आनाकानी की। सूरजमल धन के विषय में सावधान था, परन्तु उसका पुत्र नहीं। जवाहरसिंह का रहन-सहन ऐसा था कि आय और व्यय में कहीं दूर तक का कोई सम्बन्ध जोड़ने की गुंजाइश नहीं थी। सूरजमल अपने ऊपर बहुत कम ख़र्च करता था और अपने विचार से उसने अपने निरन्तर माँग करते रहने वाले पुत्र के लिए पर्याप्त धन की व्यवस्था की हुई थी। जैसा कि सदा होता है, ख़ुशामदी लोगों और दरबारियों ने झगड़ा खड़ा किया। जवाहर ने अपने आसपास ऐसे युवक समान्तों का एक झुंड जमा कर लिया था जो उसकी दुर्बलताओं का लाभ उठाते थे, और उसे उकसाते रहते थे। जवाहर सिंह अपने पिता के साथ कई सफल अभियानों पर गया था और दिल्ली में सम्राट के दरबार और जयपुर के दरबार में भी जा चुका था। उसे कोई कारण दिखाई न पड़ता था कि वह– हिन्दुस्तान के सबसे धनी और सबसे सशक्त कहे जा सकने वाले शासक का पुत्र, क्यों कम ठाठ-बाट से रहे या उसे किसी भी चीज़ की कमी क्यों रहे। सूरजमल को फ़िजूलख़र्ची बिलकुल पसन्द नहीं थी, वह उसे समझाता – बुझाता भी था, परन्तु जवाहर पर उसका कोई असर नहीं होता था। जवाहर को खुश करने के लिए उसने उसे डीग का क़िलेदार (कमांडेंट) बना दिया। इस पद और स्थान–दोनों के जीवन में समझदारी का स्थान नहीं के बराबर था। उसके पिता ने उसे सलाह दी कि अच्छे साथियों की संगति में रहे, परन्तु उसके उस पर ध्यान नहीं दिया। अनिवार्यतः भरतपुर-दरबार गुटों में बँट गया। राजकुमारों में भी वैसी ही फूट थी, जैसी कि दरबारियों में और 'एक-दूसरे के प्रति उनकी भावना भाईचारे की नहीं, अपितु भ्रातृघात की थी।'
गुटबंदी
अनेक गुट के नेता वयोवृद्ध बलराम और मोहनराम थे।
- इनमें से पहला बलराम सूरजमल का साला और सेना का अध्यक्ष तथा भरतपुर का राज्यपाल था।
- मोहनराम वित्त तथा राजकीय तोपख़ाने का अध्यक्ष था। वे और जवाहर एक-दूसरे की फूटी आँखों देख नहीं सकते थे। वे दोनों प्रभावशाली पुरुष थे, जिनकी बात सूरजमल और रानी हँसिया सुनते और मानते थे। युवक सामन्त इस वृद्ध गुट की गतिविधियों को पसन्द नहीं करते थे और वे जवाहरसिंह की ओर आकर्षित हो गए। इनमें ठाकुर रतनसिंह, ठाकुर अजीतसिंह, राजकुमार रतनसिंह और रानी गंगा भी सम्मिलित थी।
- तीसरे गुट की नेता थी रानी किशोरी। इसका सबसे प्रमुख सदस्य था– रूपराम कटारिया। उसके पिता और पुत्र में मेल करा देने की भरसक चेष्टा की, परन्तु विफल रहा। एक और सक्रिय सामन्त था, गाड़ोली गाँव का सरदार ठाकुर सभाराम। वह धनी था और समय-समय पर जवाहर सिंह को बड़ी-बड़ी धन-राशियाँ भेंट देता रहता था। एक बार सभाराम ने जवाहर सिंह को सात लाख रूपए दिए। जब राजा सूरजमल ने उसे डाँटा कि इस प्रकार वह जवाहर की आदत बिगाड़ देगा, तब सभारात ने शान्तिपूर्वक उत्तर दिया–'चिड़ियों के पानी पीने से तालाब ख़ाली नहीं होता। मेरे पास बहुत रुपया है। फिर, मैं तो उसे अपना भतीजा मानता हूँ।'
उत्तराधिकार का विवाद
ठाकुर बदनसिंह की मृत्यु के बाद स्थिति पराकाष्ठा पर पहुँच गई। अपने जीवन में पहली बार सूरजमल ने कच्ची बाज़ी खेली और यह इशारा दिया कि उसका उत्तराधिकारी नारहसिंह बनेगा। 'सूरजमल ने यह ठीक ही भाँप लिया था कि उसका पुत्र (जवाहर) जाटों का विनाश का कारण बनेगा।'[2] अपने पिता का यह निर्णय जवाहरसिंह को एकदम अमान्य था और उसने बिना कुछ हायतौबा मचाए स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। इसके लिए बढ़ावा उसके साथी युवक समान्तों ने दिया। जब सूरजमल ने जवाहर सिंह को होश में लाने के सब शान्तिपूर्ण उपाय आज़माकर देख लिए और कोई लाभ न हुआ, तब उसके सम्मुख इसके सिवाय कोई विकल्प ही न रहा कि वह अपने विद्रोही पुत्र पर चढ़ाई कर दे । जवाहर सिंह ने दिखा दिया कि वह भी मिट्टी का लौंदा नहीं है। उसके कड़ा प्रतिरोध किया। उसने डीग के क़िले से बाहर निकलकर सूरजमल की सेना पर आक्रमण किया। 'शहर के परकोटे के नीचे जमकर लड़ाई हुई। जिन बदमाशों ने जवाहर सिंह को इस दुष्कर्म के लिए भड़काया था, उन्हें पीछे धकेल दिया गया। परन्तु जवाहर सिंह झपटकर वहाँ जा पहुँचा जहाँ घनघोर युद्ध हो रहा था और असाधारण वीरतापूर्वक लड़ने लगा। उसे एक तलवार लगी, एक बर्छा लगा और बन्दूक की एक गोली उसके पेट के निचले भाग में लगी और पार हो गई। वह बुरी तरह घायल हो गया। अपने पुत्र के घावों को देखकर सूरजमल को उससे भी अधिक व्यथा हुई, जितनी कि डीग के विनाश से हुई थी। वह बदहवास होकर अपने पुत्र को उन लोगों के हाथो से छीन लेने के झपटा, जो उसके सब निषेधों और चीख़-पुकार की परवार न करते हुए उसका मलीदा बनाए दे रहे थे।'[3] घावों को भरने में बहुत समय लगा और जवाहरसिंह के अंग कभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हुए। वह जीवन-भर लँगड़ता रहा।
यहाँ तक तो फ़ादर वैंदेल का विवरण प्रामाणिक जान पड़ता है, परन्तु इससे आगे उसकी उर्वर कल्पना ऊँची उड़ान भरने लगती है। वह कहता है 'यद्यपि यह बिलकुल सत्य है कि जवाहरसिंह इस अप्रिय कार्य में कुछ तो अपने स्वभाव के कारण और कुछ अपने साथियों की सलाह के कारण फँसा था, फिर भी यह सत्य है कि उसका पिता सूरजमल उससे अधिक टोका-टाकी करता था उसकी कंजूसी के कारण जवाहरसिंह स्वयं को ग़रीब अनुभव करता था। इस कारण और जवाहरसिंह को उसके वीरतापूर्ण कार्यों के लिए धन देते रहने वाले लोगो की दुष्टता के कारण जवाहरसिंह अन्त में वह हिंसात्तमक क़दम उठाने के लिए विवश हो गया था, जिसके लिए उसे उचित ही धिक्कारा गया है। उन दोनों में मनमुटाव का एक और भी कारण था। अपनी मृत्यु से पूर्व बदनसिंह ने युवक जवाहरसिंह को (जो उसे बहुत प्रिय था और जिसे वह औरों से अधिक पसन्द करता था) एक काग़ज़ का पुर्ज़ा दिया था। यह समझा जाता था कि इसमें एक बहुत बड़े, छिपाकर रखे गए ख़जाने की जानकारी दी गई थी। सूरजमल काग़ज़ के इस पुर्जे़ को प्राप्त करने के लिए बैचेन था। जो बात मैं सुनाने लगा हूँ, वह इसलिए बहुत अधिक सम्भव जान पड़ती है, क्योंकि सभी भरोसे-योग्य लोगों ने, निरपवाद रूपसे मुझे इसकी सत्यता का विश्वास दिलाया है। प्रतीत होता है कि उसी दिन और उसी समय, जबकि सूरजमल के सामने ही जवाहरसिंह के घावों की मरहम-पट्टी हो रही थी, जवाहरसिंह से कई बार पूछा-बाबा ने जो काग़ज़ का पुर्ज़ा दिया था, वह कहाँ रखा है। इस पर जवाहरसिंह ने सिर दूसरी ओर फेर लिया और हाथ से इशारा किया, जिससे सूरजमल के लोभी स्वभाव के प्रति अरुचि प्रकट होती थी, जो ऐसी दशा में अपनी आँखों के सामने मरते हुए पुत्र की अपेक्षा उस ख़ज़ाने के लिए अधिक चिन्तित जान पड़ता था।'[4] यह वर्णन न केवल काल्पनिक है, अपितु बेहूदगी की सीमा तक जा पहुँचा है। क्या हम यह कल्पना कर सकते है कि सूरजमल एक ओर तो अपने पुत्र की जीवन-रक्षा के लिए प्रार्थना कर रहा हो और दूसरी ओर अपने मृतप्राय पुत्र से बदनसिंह के उस पुर्ज़े को माँग रहा हो, जिसका कभी कोई अस्तित्व था ही नहीं। और वह भी सब लोगों के सामने । इतना ही बेहूदा यह सुझाव भी है कि बदनसिंह कोई रहस्य जवाहरसिंह को तो बताने को तैयार था, किन्तु सूरजमल को नहीं, जो पिछले बीस वर्षों से राज्य का वास्तविक शासक था। यह बात सोची भी नहीं जा सकती है कि सूरजमल के पिता ने उसे विश्वासपात्र न माना हो। अतः हम बैंदेल के कथन को अमान्य कर सकते हैं, वैसे ही जैसे कि हमें उसके इस आरोप को करना होगा कि सूरजमल बदनसिंह का पुत्र नहीं था। इस विषय में तो विवाद ही नहीं है कि इस उग्र तथा दुखद कलह से पिता और पुत्र के आपसी सम्बन्धों में कटुता आ गई। सूरजमल को भविष्य के विषय में आशंका होने लगी। इस बात का कोई भरोसा नहीं था कि उसकी मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्रों में भ्रातृघात युद्ध न होगा। जवाहरसिंह को लड़ने से आनन्द आता था। यह ऐसा भविष्य नहीं था, जिसे सोचकर सूरजमल को आनन्द हो सकता। उसे पता था कि बलराम और मोहनराम जवाहरसिंह को अपना शासक स्वीकार नहीं करेंगे। आवश्यकता हुई तो वे लड़कर इसका फ़ैसला करेंगे। अन्ततोगत्वा विजेता कोई न होगा और उससे हानि जाट-राष्ट्र को पहुँचेगी।
- क़ानूनगो का कथन है कि जवाहरसिंह अपने लोगों को समझ नहीं पाया था, जबकि उसका पिता समझता था– 'जवाहर अभिजात-वर्गीय होने का दिखावा करता था और अपने निकटतम सम्बन्धियों तथा रिश्तेदारों को यह जताए बिना न रहता था कि वह अपने कुल के कारण उनसे बड़ा है और उन पर शासन करने का हक़दार है। हर-एक जाट को यही बात सबसे बुरी लगती है वह अफ़ग़ानों की तरह किसी भी झूठी दावेदार को उसके मुँह पर यह कहते नहीं डरता कि 'तू ऐसा क्या है, जो मैं नहीं हूँ, तू ऐसा क्या बन जाएगा, जो मैं नहीं बनूँगा।' इसके अलावा, इस राजकुमार का चरित्र भी ऐसा था कि उससे अन्य लोगो में विश्वास बिलकुल उत्पन्न नहीं होता था।"[5]
सूरजमल की सभी आंशकाएँ आगे चलकर सत्य सिद्ध हुई। जवाहरसिंह ने अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् ठीक वही कुछ किया जिसकी उसके पिता को आंशका थी। उसके पिता और दादा ने इतने कठिन परिश्रम से जो कुछ जीता और जमा किया था, उस सबको प्रायः गँवाते और नष्ट करते उसे ज़रा देर नहीं लगी।