सिसोदिया राजवंश

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सिसोदिया वंश (गहलौत वंश) के शासक और उनका शासनकाल
शासक शासनकाल
रावल बप्पा (काल भोज) 734 - 753 ई.
रावल खुमान 753 - 773 ई.
मत्तट 773 – 793 ई.
भर्तभट्त 793 – 813 ई.
रावल सिंह 813 – 828 ई.
खुमाण सिंह 828 – 853 ई.
महायक 853 – 878 ई.
खुमाण तृतीय 878 – 903 ई.
भर्तभट्ट द्वितीय 903 – 951 ई.
अल्लट 951 – 971 ई.
नरवाहन 971 – 973 ई.
शालिवाहन 973 – 977 ई.
शक्ति कुमार 977 – 993 ई.
अम्बा प्रसाद 993 – 1007 ई.
शुची वरमा 1007- 1021 ई.
नर वर्मा 1021 – 1035 ई.
कीर्ति वर्मा 1035 – 1051 ई.
योगराज 1051 – 1068 ई.
वैरठ 1068 – 1088 ई.
हंस पाल 1088 – 1103 ई.
वैरी सिंह 1103 – 1107 ई.
विजय सिंह 1107 – 1127 ई.
अरि सिंह 1127 – 1138 ई.
चौड सिंह 1138 – 1148 ई.
विक्रम सिंह 1148 – 1158 ई.
रण सिंह (कर्ण सिंह) 1158 – 1168 ई.
क्षेम सिंह 1168 – 1172 ई.
सामंत सिंह 1172 – 1179 ई.
रतन सिंह 1301-1303 ई.
राजा अजय सिंह 1303 - 1326 ई.
महाराणा हमीर सिंह 1326 - 1364 ई.
महाराणा क्षेत्र सिंह 1364 - 1382 ई.
महाराणा लाखासिंह 1382 - 1421 ई.
महाराणा मोकल 1421 - 1433 ई.
महाराणा कुम्भा 1433 - 1469 ई.
महाराणा उदा सिंह 1468 - 1473 ई.
महाराणा रायमल 1473 - 1509 ई.
महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) 1509 - 1527 ई.
महाराणा रतन सिंह 1528 - 1531 ई.
महाराणा विक्रमादित्य 1531 - 1534 ई.
महाराणा उदय सिंह 1537 - 1572 ई.
महाराणा प्रताप 1572 -1597 ई.
महाराणा अमर सिंह 1597 - 1620 ई.
महाराणा कर्ण सिंह 1620 - 1628 ई.
महाराणा जगत सिंह 1628 - 1652 ई.
महाराणा राजसिंह 1652 - 1680 ई.
महाराणा अमर सिंह द्वितीय 1698 - 1710 ई.
महाराणा संग्राम सिंह 1710 - 1734 ई.
महाराणा जगत सिंह द्वितीय 1734 - 1751 ई.
महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय 1751 - 1754 ई.
महाराणा राजसिंह द्वितीय 1754 - 1761 ई.
महाराणा हमीर सिंह द्वितीय 1773 - 1778 ई.
महाराणा भीमसिंह 1778 - 1828 ई.
महाराणा जवान सिंह 1828 - 1838 ई.
महाराणा सरदार सिंह 1838 - 1842 ई.
महाराणा स्वरूप सिंह 1842 - 1861 ई.
महाराणा शंभू सिंह 1861 - 1874 ई.
महाराणा सज्जन सिंह 1874 - 1884 ई.
महाराणा फ़तेह सिंह 1883 - 1930 ई.
महाराणा भूपाल सिंह 1930 - 1955 ई.
महाराणा भगवत सिंह 1955 - 1984 ई.
महाराणा महेन्द्र सिंह 1984 ई.

सन् 556 ई. में जिस 'गुहिल वंश' की स्थापना हुई, बाद में वही 'गहलौत वंश' बना और इसके बाद यह 'सिसोदिया राजवंश' के नाम से जाना गया। जिसमें कई प्रतापी राजा हुए, जिन्होंने इस वंश की मानमर्यादा, इज़्ज़त और सम्मान को न केवल बढ़ाया बल्कि इतिहास के गौरवशाली अध्याय में अपना नाम जोड़ा। महाराणा महेन्द्र तक यह वंश कई उतार-चढाव और स्वर्णिम अध्याय रचते हुए आज भी अपने गौरव और श्रेष्ठ परम्परा के लिये पहचाना जाता है। मेवाड़ अपनी समृद्धि, परम्परा, अद्भुत शौर्य एवं अनूठी कलात्मक अनुदानों के कारण संसार के परिदृश्य में देदीप्यमान है। स्वाधीनता एवं भारतीय संस्कृति की अभिरक्षा के लिए इस वंश ने जो अनुपम त्याग और अपूर्व बलिदान दिये जो सदा स्मरण किये जाते रहेंगे। मेवाड़ की वीर प्रसूता धरती में रावल बप्पा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे शूरवीर, यशस्वी, कर्मठ, राष्ट्रभक्त व स्वतंत्रता प्रेमी विभूतियों ने जन्म लेकर न केवल मेवाड़ वरन् संपूर्ण भारत को गौरान्वित किया है। स्वतन्त्रता की अलख जगाने वाले महाराणा प्रताप आज भी जन-जन के हृदय में बसे हुये, सभी स्वाभिमानियों के प्रेरक बने हुए है।[1]

इतिहास

सन 712 ई. में अरबों ने सिंध पर आधिपत्य जमा कर भारत विजय का मार्ग प्रशस्त किया। इस काल में न तो कोई केन्द्रीय सत्ता थी और न कोई सबल शासक था जो अरबों की इस चुनौती का सामना करता। फ़लतः अरबों ने आक्रमणों की बाढ ला दी और सन 725 ई. में जैसलमेर, मारवाड़, मांडलगढ और भडौच आदि इलाकों पर अपना आधिपत्य जमा लिया। ऐसे लगने लगा कि शीघ्र ही मध्य पूर्व की भांति भारत में भी इस्लाम की तूती बोलने लगेगी। ऐसे समय में दो शक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। एक ओर जहां नागभाट ने जैसलमेर, मारवाड, मांडलगढ से अरबों को खदेड़कर जालौर में प्रतिहार राज्य की नींव डाली, वहां दूसरी ओर बप्पा रायडे ने चित्तौड़ के प्रसिद्ध दुर्ग पर अधिकार कर सन 734 ई. में मेवाड़ में गुहिल वंश अथवा गहलौत वंश का वर्चश्व स्थापित किया और इस प्रकार अरबों के भारत विजय के मनसूबों पर पानी फ़ेर दिया।

गुहिल वंश

मेवाड़ का गुहिल वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। मेवाड़ राज्य की केन्द्रीय सत्ता का उद्भव स्थल सौराष्ट्र रहा है। जिसकी राजधानी बल्लभीपुर थी और जिसके शासक सूर्यवंशी क्षत्रिय कहलाते थे। यही सत्ता विस्थापन के बाद जब ईडर में स्थापित हुई तो गहलौत मान से प्रचलित हुई। ईडर से मेवाड़ स्थापित होने पर रावल गहलौत हो गई। कालान्तर में इसकी एक शाखा सिसोदे की जागीर की स्थापना करके सिसोदिया हो गई। चूँकि यह केन्द्रीय रावल गहलौत शाखा कनिष्ठ थी। इसलिये इसे राणा की उपाधि मिली। उन दिनों राजपूताना में यह परम्परा थी कि लहुरी शाखा को राणा उपाधि से सम्बोधित किया जाता था। कुछ पीढियों बाद एक युद्ध में रावल शाखा का अन्त हो गया और मेवाड़ की केन्द्रीय सत्ता पर सिसोदिया राणा का आधिपत्य हो गया। केन्द्र और उपकेन्द्र पहचान के लिए केन्द्रीय सत्ता के राणा महाराणा हो गये। गहलौत वंश का इतिहास ही सिसोदिया वंश का इतिहास है।[1]

मान्यताएँ

मान्यता है कि सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। सूर्यवंश के आदि पुरुष की 65 वीं पीढ़ी में भगवान राम हुए 195 वीं पीढ़ी में वृहदंतक हुये। 125 वीं पीढ़ी में सुमित्र हुये। 155 वीं पीढ़ी अर्थात सुमित्र की 30 वीं पीढ़ी में गुहिल हुए जो गहलोत वंश की संस्थापक पुरुष कहलाये। गुहिल से कुछ पीढ़ी पहले कनकसेन हुए जिन्होंने सौराष्ट्र में सूर्यवंश के राज्य की स्थापना की। गुहिल का समय 540 ई. था। बटवारे में लव को श्री राम द्वारा उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र मिला जिसकी राजधानी लवकोट थी। जो वर्तमान में लाहौर है। ऐसा कहा जाता है कि कनकसेन लवकोट से ही द्वारका आये। हालांकि वो विश्वस्त प्रमाण नहीं है। टॉड मानते है कि 145 ई. में कनकसेन द्वारका आये तथा वहां अपने राज्य की परमार शासक को पराजित कर स्थापना की जिसे आज सौराष्ट्र क्षेत्र कहा जाता है। कनकसेन की चौथी पीढ़ी में पराक्रमी शासक सौराष्ट्र के विजय सेन हुए जिन्होंने विजय नगर बसाया। विजय सेन ने विदर्भ की स्थापना की थी। जिसे आज सिहोर कहते हैं। तथा राजधानी बदलकर बल्लभीपुर (वर्तमान भावनगर) बनाया। इस वंश के शासकों की सूची टॉड देते हुए कनकसेन, महामदन सेन, सदन्त सेन, विजय सेन, पद्मादित्य, सेवादित्य, हरादित्य, सूर्यादित्य, सोमादित्य और शिला दित्य बताया। 524 ई. में बल्लभी का अन्तिम शासक शिलादित्य थे। हालांकि कुछ इतिहासकार 766 ई. के बाद शिलादित्य के शासन का पतन मानते हैं। यह पतन पार्थियनों के आक्रमण से हुआ। शिलादित्य की राजधानी पुस्पावती के कोख से जन्मा पुत्र गुहादित्य की सेविका ब्रहामणी कमलावती ने लालन पालन किया। क्योंकि रानी उनके जन्म के साथ ही सती हो गई। गुहादित्य बचपन से ही होनहार था और ईडर के भील मंडालिका की हत्या करके उसके सिहांसन पर बैठ गया तथा उसके नाम से गुहिल, गिहील या गहलौत वंश चल पडा। कर्नल टॉड के अनुसार गुहादित्य की आठ पीढ़ियों ने ईडर पर शासन किया ये निम्न हैं - गुहादित्य, नागादित्य, भागादित्य, दैवादित्य, आसादित्य, कालभोज, गुहादित्य, नागादित्य।[1]

सिसोदिया गहलौत

जेम्स टॉड के अनुसार शिकार के बहाने भीलों द्वारा नागादित्य की हत्या कर दी। इस समय इसके पुत्र बप्पा की आयु मात्र तीन वर्ष की थी। बप्पा की भी एक ब्राहमणी ने संरक्षण देकर अरावली के बीहड में शरण लिया। गौरीशंकर ओझा गुहादित्य और बप्पा के बीच की वंशावली प्रस्तुत की, वह सर्वाधिक प्रमाणिक मानी गई है जो निम्न है - गुहिल, भोज, महेन्द्र, नागादित्य, शिलादित्य, अपराजित, महेन्द्र द्वितीय और कालभोज बप्पा आदि। यह एक संयोग ही है कि गुहादित्य और मेवाड राज्य में गहलोत वंश स्थापित करने वाले बप्पा का बचपन अरावली के जंगल में उन्मुक्त, स्वच्छन्द वातावरण में व्यतीत हुआ। बप्पा के एक लिंग पूजा के कारण देवी भवानी का दर्शन उन्हे मिला और बाबा गोरखनाथ का आशिर्वाद भी। बडे होने पर चित्तौड़ के राजा से मिल कर बप्पा ने अपना वंश स्थापित किया और परमार राजा ने उन्हे पूरा स्नेह दिया। इसी समय विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण को बप्पा ने विफ़ल कर चित्तोड़ से उन्हे गजनी तक खदेड कर अपने प्रथम सैन्य अभिमान में ही सफ़लता प्राप्त की। बप्पा द्वारा धारित रावल उपाधि रावल रणसिंह ( कर्ण सिंह ) 1158 ई. तक निर्वाध रुप से चलती रही। रावण रण सिंह के बाद रावल गहलोत की एक शाखा और हो गई। जो सिसोदिया के जागीर पर आसीन हुई जिसके संस्थापक माहव एवं राहप दो भाई थे। सिसोदा में बसने के कारण ये लोग सिसोदिया गहलौत कहलाये।[1]

सत्ता परिवर्तन, स्थान परिवर्तन, व्यक्तिगत महत्वकांक्षा एवं राजपरिवार में संख्या वृद्धि से ही राजपूत वंशों में अनेक शाखाओं एवं उपशाखाओं ने जन्म लिया है। यह बात गहलौत वंश के साथ भी देखने को मिली है। बप्पा के शासन काल मेवाड़ राज्य के विस्तार के साथ ही उसकी प्रतिष्ठा में भी अत्यधिक वृद्धि हुई है। बप्पा के बाद गहलौत वंश की शाखाओं का निम्न विकास हुआ।

1. अहाडिया गहलौत

अहाड नामक स्थान पर बसने के कारण यह नाम हुआ।

2. असिला गहलौत

सौराष्ट्र में बप्पा के पुत्र ने असिलगढ का निर्माण अपने नाम असिल पर किया जिससे इसका नाम असिला पडा।

3. पीपरा गहलौत

बप्पा के एक पुत्र मारवाड के पीपरा पर आधिपत्य पर पीपरा गहलौत वंश चलाया।

4. मागलिक गहलौत

लोदल के शासक मंगल के नाम पर यह वंश चला।

5. नेपाल के गहलोत

रतन सिंह के भाई कुंभकरन ने नेपाल में आधिपत्य किया अतः नेपाल का राजपरिवार भी मेवाड़ की शाखा है।

6. सखनियां गहलौत

रतन सिंह के भाई श्रवण कुमार ने सौराष्ट्र में इस वंश की स्थापना की।

7. सिसौद गहलौत

कर्णसिंह के पुत्र को सिसौद की जागीर मिली और सिसौद के नाम पर सिसौदिया गहलौत कहलाया।

सिसौदिया वंश की उपशाखाएं

चन्द्रावत सिसौदिया

यह 1275 ई. में अस्तित्व में आई। चन्द्रा के नाम पर इस वंश का नाम चन्द्रावत पडा।

भोंसला सिसौदिया

इस वंश की स्थापना सज्जन सिंह ने सतारा में की थी।

चूडावत सिसौदिया

चूडा के नाम पर यह वंश चला। इसकी कुल 30 शाखाएं हैं।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 सिसोदिया राजवंश एवं मेवाड़ (हिंदी) अंतर्राष्ट्रीय क्षत्रिय महासभा। अभिगमन तिथि: 6 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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