बनारस या वाराणसी में लकड़ी के खिलौने तथा अन्य कलात्मक चीजों ने भी ख्याति को बढ़ाया है। इस पेशे में लगे कलाकारों को इस बात का गर्व भी है कि उनकी कला भी वाराणसी के रेशमी वस्रों के निर्माण की कला के समान ही समस्त विश्व में वंदनीय है। कहते हैं कि बनारस की काष्ठ-कला आधुनिक या केवल दो-चार सौ वर्ष पुरानी परम्परा नहीं है बल्कि यह तो 'राम राज्य' से भी पहले से चली आ रही है। जब राम चारों भाई बच्चे थे तो भी वे इन्हीं लकड़ी के बने खिलौने से खेलते थे। श्री राम खेलावन सिंह जो कि मास्टर क्राफ्ट्समेन हैं तथा इस धंधे को इनके पूर्वज बहुत ही प्राचीन काल से करते आ रहे हैं, श्री राम खेलावन सिंह जी बहुत ही प्रयोगवादी कलाकार हैं। सन् 1988 में इन्होंने सुपारी का एक कलात्मक लैम्प बनाया, जिसके लिए इन्हें सन् 1989 में राज्य सरकार से पुरस्कृत किया गया।[1]
पहले बनारस में केवल बच्चों के खिलौने तथा सिन्दूरदान बनाए जाते थे, लेकिन आजकल बहुत ही तरह की चीजें बनने लगी हैं। इसी तरह से पहले इनके द्वारा निर्मित वस्तुओं की खपत स्थानीय बाज़ार ख़ासकर विश्वनाथ गली एवं गंगा के विभिन्न घाटों पर तीर्थयात्रियों द्वारा होता था। परन्तु आजकल ये अपने बनाए समानों को भारत के सभी हिस्सों एवं प्रमुख शहरों में भेजते हैं, जहां इनकी अच्छी ख़ासी मांग तथा खपत है। इतना ही नहीं, आजकल विश्व के बाज़ार में भी इनके द्वारा बनाए गए खिलौने, सजावट के समान एवं एक्यूप्रेसर के यंत्रों की अच्छी ख़ासी मांग है। और इन समानों का धरल्ले से निर्यात किया जा रहा है।
उपयोग में आने वाले विभिन्न रंग
परम्परागत रुप से काशी के काष्ठ कला से जुड़े कलाकार लाल, हरा, काला, तथा नीले एवं मिले जुले रंगो का प्रयोग करते थे। यह परम्परा बहुत दिनों तक यथावत चलता रही। बल्कि बहुत से लोग तो आज भी इन्हीं रंगो का प्रयोग अपने द्वारा बनाए गए उपकरणों/खिलौनों को रंगने के लिए करते हैं। आज जब इनके बनाये गये कलात्मक वस्तुओं की मांग चारों ओर दिन प्रतिदिन बढ़ रही है, ये भी नित-रोज़ प्रयोग में लगे हुए हैं। इसी प्रयोग के सिलसिले में इन्होंने बहुत अन्य रंगों का भी प्रयोग करना शुरु कर दिया है। आज बाज़ार में जितने भी रंग उपलब्ध हैं बहुत से काष्ठ कला निर्माता उन सभी रंगों का प्रयोग किसी न किसी वस्तु को बनाने के लिए अवश्य करते हैं। उपकरणों को रंगने के बाद ऊपर से विभिन्न चित्रों से भी सुसज्जित किया जाता है। सुसज्जित करने का काम प्रायः महिलायें करती हैं। बहुत से रंगों के प्रयोग का एक कारण यहां के काष्ठ कला से निर्मित कला तत्व का निर्यात भी है। विदेशों में हो रहे मांग के हिसाब से ही विभिन्न रंगों का प्रचलन बढ रहा है और यह गति अभी भी जारी है।[1]
बनने वाली कलाकृतियाँ
पहले बनारस के काष्ठ कलाकार मुख्य रुप से बच्चों के खिलौने तथा सिन्दूरदान इत्यादि बनाते थे परन्तु अद्यतन इनकी संख्या एवं विविधता में अत्यधिक वृद्धि हुई है। आजकल जो प्रमुख चीजें बनायी जाती हैं वे इस प्रकार हैं:
- सिंदूरदान या सिंदूर रखने की डिब्बी
- बच्चों के खिलौने
- चुसनी
- लट्टू
- बच्चों के खेलने के 'करनाटकी' पहले करनाटकी में केवल जांता, ग्लास, तथा थाली हुआ करता था। आजकल करनाटकी सेट के अन्तर्गत 27 आइटम आतें हैं। इनमें से मुख्य आइटम इस प्रकार है।
- थाली
- जांता
- ऊखली
- मुसल
- ग्लास (यह तीन का सेट होता है। तीनों एक साइज के होते हैं)
- लोटिया (यह दो का सेट होता है। दोनों एक साइज के होते हैं)
- बेगुना
- चुल्हा
- चक्की
- रोटी (यह दस का सेट होता है। सभी रोटी का एक साइज होता है।)
- तवा
- कलछुल
- फैमिली प्लानिंग सेटः
यह भी एक प्रकार का खिलौना है जो पांच तथा दस का सेट होता है। खिलौने को बनाकर उसे आदमी, बंदर हाथी या किसी अन्य चीजों से चित्रित किया जाता है। एक के अंदर एक इस तरह से पांच या दस डाला जाता है। बच्चे जितने जल्दी एक खुले सेट को फिर से तैयार कर लें उनहें उतना ही तेज समझा जाता है। इन वस्तुओं का विदेशों में अच्छी मांग है।
- विभिन्न फल, फूल, सब्जी इत्यादि जैसे
- बच्चों का पालना/झूला
- हवाई जहाज
- गाड़ी (रेलगाड़ी, बस इत्यादि)
- चाभी
- लैम्प
- श्राद्ध कर्म में प्रसुक्त होने वाले पात्र
- एक्यूप्रेसर से सम्बन्धित उपकरणः
- एक्यूप्रेसर युक्त चाभी किंरग
- देह को मसाज करने वाला यंत्र
- पैर को मसाज करने वाला एक्यूप्रेसर जिससे थकावट स्वतः दूर हो जाता है।
- फूलदान
- शतरंज की गोटी
- कैरमबोर्ड की गोटी
- घंटी
- एशट्रे
- बनावटी फूलों का गुच्छा
- यज्ञ इत्यादि में प्रयुक्त होने वाले यज्ञपात्र
- विशेष संस्कार जैसे 'उपनयन संस्कार, विवाह' आदि में प्रयुक्त होने वाले यज्ञपात्र
- बटन
- किचन सेट
- गहने (आभूषण)
- कान का
- हाथ का
- बालों में लगानेवाला
- स्नानगृह में प्रयुक्त होने वाले समान
- साबुनदान
- पीढ़ी
- ब्रश (शरीर मलने वाला)[1]
कच्चे माल की प्राप्ति
काशी के काष्ठ कलाकार अपने अधिकांश वस्तुओं एवं खिलौनों का निर्माण एक प्रकार की जंगली लकड़ी जिसे 'गौरेया' कहा जाता है, से बनाते हैं। गौरेया लकड़ी न तो बहुत महंगी और न ही किसी ख़ास प्रयोजन की लकड़ी है। खिलौनों के अलावा लोग इस लकड़ी का प्रयोग केवल ईंधन (भोजन बनाने) की लकड़ी के रुप में करते हैं। गौरेया लकड़ी वाराणसी में नहीं होती बल्कि इसे बिहार के पलामू एवं अन्य जगहों के जंगलों तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर आदि जगहों से मंगाया जाता है। मंहगे खिलौने तथा वैसे काष्ठकला जिन्हें बाहर ख़ासकर विदेशों में निर्यात किया जाता है, सामान्यत गौरेया की लकड़ी से ही बनाए जाते हैं। जो छोटे स्तर के कलाकार हैं वे लकड़ी खुदरे के भाव से ख़रीदते हैं जबकि बड़े लोग जिनके पास अच्छी ख़ासी पूंजी है सालभर के लिए लकड़ी एक साथ ख़रीदकर जमा कर लेते हैं। जिस जगह कच्चे माल अथवा लकड़ी को रखा जाता है उसे ये अपनी भाषा मे 'टाल' कहते है। फिर अवश्यकतानुसार छोटे छोटे टुकड़ों में किया जाता है और अन्तत फिर उन टुकड़ो से 'काष्ठकला' के निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।[1]
बनाने की प्रक्रिया
सर्वप्रथम लकड़ी को इच्छित आकार में काट लिया जाता है। इसके बाद उन्हें खरादकर विभिन्न वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। काष्ठ-कला के निर्माण के तकनीक के आधार पर बनारस के काष्ठ-कलाकारों को वर्गों में विभक्त किया जा सकता है:
- वे जो परम्परागत रुप से हाथ से 'काष्ठ-कला' का निर्माण करते हैं। तथा
- वे 'काष्ठ-कलाकार' जो बिजली के मोटर से चलने वाले खराद मशीन की सहायता से 'काष्ठ-कला' का निर्माण करते हैं।
इसके अलावे कुछ लोग लकड़ी के छोटे-छोटे खिलौने, देवी-देवताओं की मूर्तियां कारीगारी के नुमाइशी, सजावट के समान इत्यादि भी बनाते हैं। इनके परिवार के लोग लकड़ी के सांचे भी बनाते हैं जिससे ढलाई होती है। वाराणसी में जबसे ढालुआ धातु के शोपीस, मेडल, तमगे आदि बनने लगे हैं, तबसे ये ढाली जाने वाली वस्तुओं के सांचे भी बनाने लगे हैं। वैसे अधिकांश 'काष्ठ-कला' ख़ासकर खिलौने, बीड्स (मनके), इत्यादि आजकल खराद मशीन पर बनाया जाता है। खराद मशीन वाले अधिकांश लोग 'खोजवा' के 'कश्मीरीगंज' में बसे हैं। जो 'काष्ठ-कलाकार' खराद पर काम करते हैं उन्हें 'खरादी' कहा जाता है। बिजली आने के पहले मशीन हाथ से चलाई जाती थी। मशीन में रस्सी लपेटकर एक व्यक्ति बारी-बारी से खींचता था, जबकि दूसरा व्यक्ति वस्तुओं को खरादता था।
बनाने में प्रयुक्त उपकरण
यों तो आजकल सर्वाधिक लोग बिजली के मशीन से 'काष्ठ-कला' के निर्माण की प्रक्रिया को अंजाम देते हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में भी बहुत से छोटे-बड़े उपकरण अथवा औजार की ज़रूरत होती है। प्रमुख उपकरण निम्नलिखित हैं:
- रुखाना
- चौधरा
- बाटी
- पटाली
- चौसी
- वर्मा
- वर्मी
- बसूला
- प्रकाल
- गौन्टा गबरना
- छेदा
- छेदी
- फरुई
- बघेली
- तरघन
- खरैया
- चौसा
- बोरिया
- रुखाना से लकड़ी को पतला किया जाता है। चौधरा से चिकना किया जाता है। पटाली से बने हुए वस्तु को काटकर अलग किया जाता है।
- वर्मा, छेदा, तथा छेरी से किया जाता है। बाटी से (बरमा से छेद करने के बाद) अन्दर का खुदाई किया जाता है।
- बसूला का प्रयोग लकड़ी को छीलने के लिए किया जाता है।
- आकृति, तथा डिजाइन बनाने के लिए प्रकाल की सहायता ली जाती है।
- गौन्टा से खराद मशीन मे लगे बचे हुए लकड़ी को हटाने के लिए किया जाता है।
- फरुई लोहे का सपाट सा होता। इसका प्रयोग औजार को रखकर 'काष्ठ-कला' को बनाने के लिए होता है।
- तरघन फरुई के लकड़ी के नीचे का बेस (आधार) होता है।
- बघेली मोटी लकड़ी से बना होता है जो कुनिया मशीन तथा फरुई के लिए सहारे का काम करता है। बघेली दो होता है:
- अगला बघेली
- पिछला बघेली
- खरैया पथ्थर का बना होता है। इसका प्रयोग औजार के तेज करने (पीजाने) के लिए किया जाता है। अगर औजार की धार को और अधिक बारीक करना हो तो बोरिया का प्रयोग किया जाता है।[1]
निर्मित माल की खपत
पहले बनारस में बने खिलौने तथा अन्य चीजों का खपत शहर में ही तीर्थयात्रियों द्वारा होता था। जो भी तीर्थयात्री वाराणसी में आते थे, जाते समय बच्चों के खिलौने इत्यादि लेकर जाते थे। फिर जो लोग अपने मृतकों को काशी में जलाने के लिए लाते थे तथा उनका श्राद्ध कर्म में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ के यज्ञ पात्र-पीढ़ी इत्यादि की जरुरत होती थी। इन सामानों को भी यहीं ख़रीदा जाता था। धीरे-धीरे काशी के खिलौने तथा अन्य 'काष्ठ कलाओं' का मांग भारत के अन्य शहरों में होने लगा। फिर कुछ थोक व्यापारियों ने इनसे तैयार माल थोक में लेना शुरु किया तथा इन माल को भारत के विभिन्न शहरों में बेचना प्रारंभ किया। जब विदेशी पर्यटक बनारस आने लगे तो वे भी इस कला की तरफ सम्मोहित होते चले गए। उनमें से कुछ ने इन लोगों के द्वारा बनाए गए समानों का विदेशों में भी अच्छा ख़ासा बाज़ार स्थापित किया। कहते हैं कि चूंकि ये खिलौने आदि लकड़ी से बनाए जाते हैं अतः पूर्णतः प्रदूषण रहित होते हैं। कदाचित इन 'कलाकृतियों' का यह गुण भी विदेशों में इनकी अच्छी मांग पैदा कर दी है। आज स्थिति यह है कि केवल वाराणसी में 18 थोक व्यापारी ऐसे हैं जो इन कलाकृतियों को भारत के विभिन्न हिस्सों मे भेजते हैं तथा वि के बहुत से देशों में निर्यात भी करते हैं।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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