थैलेसिमिया

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थैलेसिमिया और सामान्य अवस्था में लाल रक्त कोशिकाएँ

थैलेसिमिया (अंग्रेज़ी: Thalassemia) एक आनुवांशिक बीमारी है, जो माता-पिता से उसकी संतान को होती है। इस बीमारी से ग्रस्त हो जाने पर शरीर में लाल रक्त कण बनने बंद हो जाते हैं। शरीर में रक्त की कमी आ जाती है। बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। थैलेसिमिया बीमारी अधिकांशत: शिशुओं में देखने को मिलती है। 8 मई को पूरी दुनिया में विश्व थैलेसिमिया दिवस मनाया जाता है। थैलेसिमिया में शरीर का रंग पीला पड़ जाता है। इस रोग के बारे में बहुत कम लोगों को ही जानकारी है। यह बीमारी आनुवांशिक है, रिश्तेदारी के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है। बीमारी का जन्म शिशु के साथ होता है, जो उम्र भर साथ नहीं छोड़ती। इसका सिर्फ एक समाधान है और वह है- 'रिश्तों में सावधानी बरतना"। यह बीमारी कुछ विशेष समुदायों में है। उन समुदायों के रिवाज ही इस बीमारी को रोक सकते हैं। चिकित्सकों के अनुसार थैलेसिमिया वंशानुगत बीमारी है, लेकिन इसकी रोकथाम आसानी से की जा सकती है। यदि विवाह से पूर्व सभी इसकी जांच करवा लें तो निदान आसानी से और कम कीमत पर हो जाता है। गर्भावस्था में जांच करने पर यदि इस बीमारी के लक्षण पाये जाते हैं तो डॉक्टर महिला को गर्भपात की सलाह देते हैं। मुख्यतः यह बीमारी सिंधियों, राजपूतों एवं मुस्लिमों में पाई जाती है। डॉक्टरों का यह भी कहना है कि इस बीमारी को छिपाना नहीं चाहिए।

आनुवांशिक रोग

जिन आनुवंशिक स्वास्थ्य समस्याओं को गंभीर रोगों की श्रेणी में रखा जाता है, थैलेसिमिया भी उनमें से एक है। इसमें जीन की संरचना में जन्मजात रूप से गड़बड़ी होने की वजह से शरीर में शुद्ध रक्त का निर्माण नहीं हो पाता और अशुद्ध रक्त शरीर के अपने मेकैनिज्म के जरिये स्वाभाविक रूप से नष्ट हो जाता है। इस वजह से थैलेसिमिया के मरीजों के शरीर में हमेशा खून की कमी रहती है और उसमें हीमोग्लोबिन का स्तर भी बहुत कम रहता है। अकसर लोग इसे बच्चों की बीमारी समझ लेते हैं, पर वास्तव में ऐसा है नहीं। दरअसल जिनकी रक्त कोशिकाओं की संरचना में बहुत ज्यादा गड़बड़ी होती है, उनमें जन्म के कुछ दिनों के बाद ही इस बीमारी की पहचान हो जाती है, अगर रक्त कोशिकाओं की संरचना में ज्यादा गड़बड़ी न हो तो कई बार लोगों में 60-65 वर्ष की उम्र में भी अचानक इस बीमारी के लक्षण देखने को मिलते हैं।

थैलेसिमिया कैरियर

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनमें 3 से 15 प्रतिशत तक इस बीमारी के जींस मौजूद होते है, इन्हें थैलेसिमिया कैरियर कहा जाता है। कुछ लोग इसे थैलेसिमिया माइनर का नाम देते हैं, जो कि सर्वथा अनुचित है। यह अपने आप में कोई बीमारी नहीं है। ऐसे लोग सक्रिय और सामान्य जीवन व्यतीत कर सकते हैं। थैलेसिमिया के कैरियर लोगों को केवल इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे किसी थैलेसिमिया कैरियर से विवाह न करें। अगर पति-पत्नी दोनों ही इसके कैरियर हों तो बच्चों में इसके लक्षण होने की आशंका बढ़ जाती है। अगर पति-पत्नी दोनों इस बीमारी के वाहक हैं तो गर्भावस्था के शुरुआती दो महीनों में स्त्री को प्रीमेटल डाइग्नोसिस करवा लेना चाहिए। इससे यह मालूम हो जाएगा कि गर्भस्थ भ्रूण में थैलेसिमिया के लक्षण हैं या नहीं। अगर रिपोर्ट निगेटिव आए तभी शिशु को जन्म देने का निर्णय लेना चाहिए।

लक्षण

  • त्वचा की रंगत में स्वाभाविक गुलाबीपन के बजाय पीलापन दिखाई देता है। ऐसे लोगों में अकसर पीलिया का संक्रमण भी हो जाता है।
  • यकृत बढ़ने से पेट फूला हुआ लगता है और हीमोग्लोबिन का स्तर भी काफ़ी कम हो जाता है।
  • अनावश्यक थकान और कमज़ोरी महसूस होती है।

लाइलाज नहीं है थैलेसिमिया

थैलेसिमिया कैरियर

पहले थैलेसिमिया को लाइलाज बीमारी समझा जाता था, क्योंकि नियमित रक्त चढ़ाने के अलावा इसका और कोई उपचार नहीं था। यह रक्त चढ़ाना मरीज को मौत से बचाए रखने में मददगार साबित होता है, लेकिन यह इस बीमारी का स्थायी उपचार नहीं है। इसे जड़ से समाप्त करने का एकमात्र तरीका स्टेम सेल थेरेपी है। इसके जरिये जन्म के शुरुआती 10 मिनट के भीतर शिशु के गर्भनाल से एक बैग में रक्त के नमूने एकत्र किए जाते है। इसी रक्त में स्टेम सेल्स पाए जाते है। जीवन की ये मूलभूत कोशिकाएं, मानव शरीर के सभी अंगों की रचना का आधार होती है। इनकी तुलना मिट्टी से की जा सकती है, जिसे शिल्पकार मनचाहे आकार में ढाल सकता है। इन्हें शरीर में जहां भी प्रत्यारोपित किया जाता है, ये वहीं दूसरी नई परिपक्व कोशिकाओं का निर्माण करने में सक्षम होती है। जन्म के बाद दस मिनट के भीतर शिशु के गर्भनाल से थोड़ा सा खून लेकर उसे एक स्टरलाइज्ड बैग में रखा जाता है। सैंपल एकत्र करके उसके तापमान को नियंत्रित रखने के लिए उसे एक खास तरह के कंटेनर में रख कर 36 घंटे के भीतर लैब में पहुंचा दिया जाता है। स्टेम सेल को वहां वर्षो तक संरक्षित रखा जा सकता है। यह प्रक्रिया पूरी तरह सुरक्षित है। इससे माँ और बच्चे दोनों को कोई तकलीफ नहीं होती और इसका कोई साइड इफेक्ट भी नहीं होता। थैलेसिमिया जीन की संरचना में गड़बड़ी की वजह से होने वाली रक्त संबंधी आनुवंशिक बीमारी है। इसके लिए मरीज के बोन मैरो में मौजूद खराब जीन वाली कोशिकाओं को हटाकर उसकी जगह पर स्टेम सेल के जरिये सही जीन वाली रक्त कोशिकाएं प्रत्यारोपित कर दी जाती हैं, जिन्हें मदर सेल भी कहा जाता है। फिर धीरे-धीरे ये कोशिकाएं अच्छी कोशिकाओं का निर्माण शुरू कर देती हैं। इस तरह यह बीमारी जड़ से दूर हो जाती है। स्टेम सेल पद्धति द्वारा थेलासीमिया के अलावा स्पाइनल इंजरी की वजह से होने वाली विकलांगता, पार्किंसन, दिल की बीमारी, ब्लड कैंसर और मधुमेह जैसे रोगों का उपचार संभव है। इस दिशा में वैज्ञानिकों का शोध जारी है और संभव है कि निकट भविष्य में इससे अन्य गंभीर बीमारियों का उपचार भी आसानी से संभव हो।[1] जन्म के बाद जिस बच्चे का स्टेम सेल सुरक्षित रखा जाता है। उससे भविष्य में उसे होने वाली लगभग सभी बीमारियों का उपचार संभव है। केवल इससे बच्चे के जन्मजात रोगों का उपचार संभव नहीं है, क्योंकि उसके स्टेम सेल में भी उस बीमारी के जींस मौजूद होंगे। इसके लिए शिशु को उसके सगे भाई या बहन के स्टेम सेल की ज़रूरत होगी, जिसे जन्मजात रूप से वह बीमारी न हो, लेकिन इसके लिए भी भाई या बहन के साथ बच्चे की कोशिकाओं का मैच होना बहुत ज़रूरी है। इसकी संभावना 25 से 75 प्रतिशत तक बताई जाती है। इसके अलावा अगर कोशिकाओं का सही मैच मिल जाए तो इससे माता-पिता, दादा-दादी और नाना-नानी का भी उपचार संभव है। अगर किसी मरीज के लिए उसका या उसके भाई-बहनों का स्टेम सेल संरक्षित करके नहीं रखा गया है तो बोन मैरो ट्रांस्प्लांट के जरिये भी उसका उपचार संभव है। ट्रांस्प्लांट के लिए भाई या बहन का बोन मैरो सबसे उपयुक्त होता है क्योंकि उनकी कोशिकाओं का मैच मिलने की संभावना सबसे अधिक होती है।

थैलेसिमिया का परीक्षण

इस बीमारी से बचने के लिए लड़के-लड़की का विवाह पूर्व थैलेसिमिया वाहक का टेस्ट करवाना चाहिये। साथ ही गर्भवती महिलाओं को गर्भावस्था के दसवें तथा 11वें सप्ताह में कोरियोनिक विलाई सैम्पलिंग टेस्ट करवाना चाहिये। थैलेसिमिया रोग का स्थाई समाधान बोन मेरो ट्रांसप्लांट अथवा स्टेमसेल ट्रांसप्लांट द्वारा संभव है, जो वर्तमान में भारत में भी उपलब्ध है। थैलेसिमिया रोकथाम के कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए आम जनता, सभी चिकित्सा संस्थान, स्वयंसेवी संस्थान, प्रचार माध्यम तथा सरकारी तंत्र मिलकर सहयोग कर सकते हैं।

सावधानियाँ

थैलेसिमिया रोग के मरीज को निम्न सावधानिया बरतनी चाहिए-

  1. रोगियों को वही पदार्थ खाने चाहियें, जिनमें आयरन की मात्रा कम हो, किंतु यह भी ध्यान रखें कि हिमोग्लोबिन की कमी न होने पाये। इसके लिए अधिक से अधिक चाय का सेवन करना चाहिए।
  2. भोज्य पदार्थों में दूध-दही का अधिक प्रयोग करना चाहिए।
  3. लोहे के बर्तन में खाना नहीं पकाना चाहिए।
  4. प्रोटीन युक्त पदार्थ खाने से बचना चाहिए।
  5. मटर, पालक, हरी पत्तेदार सब्जियाँ, तरबूज, किशमिश, खजूर नहीं खाना चाहिए।
  6. अचार, सिरका एवं एल्कोहल को कम से कम मात्रा में लें।
  7. सब्जी एवं मीट उबालने की जगह भाप से तैयार करना चाहिए।
  8. आटा ब्रेड का प्रयोग करें तथा बच्चों को चॉकलेट खाने से बचायें, क्योंकि इसमें आयरन की मात्रा अधिक होती है।

भारत में स्थिति

भारत में प्रति वर्ष लगभग 8 से 10 थैलेसिमिया रोगी जन्म लेते हैं। वर्तमान में भारत में लगभग 2,25,000 बच्चे थैलेसिमिया रोग से ग्रस्त हैं। सामान्यत: बच्चे में 6 माह, 18 माह के भीतर थैलेसिमिया का लक्षण प्रकट होने लगता है। बच्चा पीला पड़ जाता है, पूरी नींद नहीं लेता, खाना-पीना अच्छा नहीं लगता है, बच्चे उल्टियां, दस्त और बुखार से पीडि़त हो जाता है। डॉक्टरों के अनुसार आनुवांशिक मार्गदर्शन और थैलेसिमिया माइनर का दवाइयों से उपचार संभव है। थैलेसिमिया रोग से बचने के लिए माता-पिता का डीएनए टैस्ट कराना अनिवार्य है। साथ ही रिश्तेदारों का भी डीएनए टैस्ट करवाकर रोग पर प्रभावी नियंत्रण संभव है। विवाह से पूर्व जन्मपत्री मिलाने के साथ-साथ दूल्हे और दुल्हन का एचबीए-2 का टेस्ट भी कराना चाहिए।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लाइलाज नहीं है थैलेसिमिया (हिन्दी) जागरण। अभिगमन तिथि: 11 मई, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

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