कुमारी (औषधि)
कुमारी (अंग्रेज़ी: Aloe) नलिनी कुल[1] की एक प्रजाति है। संस्कृत में इस पौधे का नाम है- सहा स्थूलदला। साधारणत: यह घीकुँवार[2] के नाम से प्रसिद्ध है। यह दक्षिणी अफ़्रीका के शुष्क भागों में विशेषकर वहाँ की केरू[3] मरुभूमि में पायी जाती है।
जातियाँ
इस औषधि की लगभग 180 जातियाँ हैं। कुछ शताब्दियों से इस प्रजाति की कुछ जातियाँ भारत में भी उगाई जाने लगी हैं और वे अब यहाँ प्रकृत्यनुकूल हो गई हैं। कुछ पौधों में प्रकट से तना नहीं होता। उनमें बड़ी-बड़ी मोटी और माँसल पत्तियों का गुच्छा होता है। कुछ पौधों में छोटा या लंबा तना भी होता है। पत्तियों के किनारों पर काँटे भी होते हैं। पत्तियों का रंग कई प्रकार का होता है। कभी-कभी ये पट्टीदार या चित्तीदार भी होती हैं। इसी कारण पौधों को शोभा और सजावट के काम में लाते हैं। इनके फूल, छोटे, पीले अथवा लाल रंग के होते हैं और पत्तीरहित साधारण या शाखायुक्त होने पर बहुधा गुच्छों में पाए जाते हैं।[4]
व्यापार
कुमारी औषधि, अर्थात् मुसब्बर, इस प्रजाति की कई जातियों के रस से बनाई जाती है। यह कड़ए पैंटोसाइडों का अनिश्चित मिश्रण और एक प्रकार की रोचक औषधि है। भारत के गाँवों में इसकी मांसल पत्तियों का उपयोग आँख उठ आने पर कई प्रकार से किया जाता है। भारतीय कुमारी औषधि का उल्लेख सर्वप्रथम 1633 ई. में गार्सिया डे ओर्टा[5] ने किया था। इसका व्यापार भारत में सबसे अधिक है। प्राय: मुम्बई और चेन्नई से यह बाहर भेजी जाती है। सबसे अधिक संयुक्त राज्य और स्ट्रेट्स सेटलमेंट को जाती है। बहुत-सी लाल सागर तट, जंजीबार, क्यूराकाओ, बारबेडोज़, कोत्रा आदि से भारत में आयात किया जाता है और वर्गीकृत करने के पश्चात् अन्य देशों को निर्यात कर दिया जाता है।
इस प्रजाति की दो जातियों से भारत में कुमारी औषधि बनाई जाती है-
- ऐली ऐबिसिनिका[6] - इससे काठियावाड़ के जफेराबाद में औषधि बनाई जाती है। यह गोल, चपटी तथा ठोस आकार में बाज़ारों में बिकती है। इसका रंग लगभग काला होता है। भारत में इसकी सबसे अधिक खपत है।
- ऐलो वेरा[7] - यह जाति की देशज नही है, परंतु शताब्दियों से उत्तर-पश्चिमी हिमालय की शुष्क घाटियों से लेकर कन्याकुमारी तक पाई जाती है।
ऐलो वेनेनोसा[8] का रस विषैला होता है। अमरीकी कुमारी का नाम 'अगेव अमेरिकाना'[9] है। यह एमरिलीडेसी[10] कुल का पौधा है। इससे औषधि नहीं बनती।[4]
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