ऊनी वस्त्र उद्योग

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ऊनी वस्त्र बनाती महिलाएँ

ऊनी वस्त्र उद्योग की गणना देश के प्राचीन कुटीर उद्योगों में की जाती है। इसके अन्तर्गत कम्बल, कालीनें, शालें, नमदा, लोई आदि का निर्माण कुशल कारीगरों द्वारा किया जाता है। इसके प्रमुख केन्द्र हैं - अमृतसर, तथा लुधियाना (पंजाब), भदोही, मिर्जापुर, आगरा, मुजफ्फरपुर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश), मछलीपट्टनम, बंगलुरू, एन्नौर, श्रीनगर, वारंगल आदि। जम्मू कश्मीर राज्य से इनका विदेशों को भी निर्यात किया जाता है।

ऊनी वस्त्र

ऊनी वस्त्र बनाने के लिए भेड़ों पर से ऊन की कटाई की जाती है, जो कि वर्ष में दो बार काटी जाती है और ऊन को काटने की कई रीतियाँ हैं। बलुही भूमिवाले प्रदेश में चरने के लिए भोजन से पूर्व, ऊन काटी जाती है। न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया में ऊन की कटाई यंत्र द्वारा होती है। इन दोनों देशों में भ्रमणकारी दल रहते हैं जो यंत्र से ऊन काटते हैं। परंतु ग्रेट ब्रिटेन और भारत में कटाई हाथ से होती है।

छँटाई

ऊन कट जाने पर काम के अनुसार ऊन को छाँटा जाता है। ऊन का चयन उत्तर से आए प्रकाश में किया जाता है; पूर्व, पश्चिम या दक्षिण से आए प्रकाश में नहीं, क्योंकि पूर्व, पश्चिम या दक्षिण से आए प्रकाश में अधिक वैविध्य और पीतता की संभावना रहती है। ऊन को छाँटते समय कार्यकर्ता को बहुत सावधानी रखनी पड़ती है, क्योंकि पहाड़ी भेड़ों के ऊन में कभी-कभी ऐसे कीटाणु रहते हैं जिनसे मनुष्य को ऐंथ्रौक्स नामक चर्मरोग होने की आशंका होती है। अलपाका, कश्मीरी, ईरानी तथा अन्य प्रकार के ऊन को जालीदार मेज पर खोलकर रख दिया जाता है और उसके नीचे पंखा चला दिया जाता है, जिससे हवा नीचे जाती रहती है और कार्यकर्ता सुविधा से अपना काम कर सकता है। चयन के पूर्व ईरानी ऊन को भी कीटाणुरहित करना आवश्यक होता है।

योक

ऊन का चयन उसकी बारीकी, लंबाई तथा भेड़ के शरीर पर उसके स्थान के अनुसार किया जाता है। तब 'डस्टर' नामक मशीन से ऊन में मिली हुई धूलि को अलग किया जाता है। धूलि निकाले जाने के बाद उसकी प्राकृतिक एवं मिश्रित मलिनता साफ़ की जाती है। प्राकृतिक मलिनता में एक प्रकार की भारी चिकनाई अथवा मोम रहता है जिसे अंग्रेज़ी में योक कहते हैं। योक के कारण ऊनी रेशा कुछ गुरुतर और अच्छी हालत में रहता है। प्राकृतिक मलीनता में सूखा हुआ पसीना भी रहता है जो भेड़ के शरीर से बहकर सूख जाता है और ऊन में मिल जाता है। इसे अंग्रेजी में स्विंट कहते हैं।

ऊन की सफाई

सफाई की रीति यह है कि ऊन को गुनगुने पानी में भिगोकर तर कर दिया जाता है जिससे भेड़ का सूखा पसीना गलकर निकल जाता है। साथ ही बालू तथा धूलि भी अलग हो जाती है। दो या तीन बार ऊन को धोने के बाद उसे एक या दो बार साबुन के घोल में धोया जाता है। अंतिम बार उसे बिल्कुल शुद्ध एवं निर्मल जल में धोया जाता है।

ऊन को पूर्वोक्त रीति से साफ़ करने पर प्राकृतिक मल हट जाता है, किंतु कुछ मिश्रित धातुएँ जैसे वानस्पतिक पदार्थ, फिर भी ऊन में मिली ही रहती हैं। अत एव इसकी भी सफाई आवश्यक होती है। यह कार्य ऊन को गंधक के अम्ल के 3° से 4° बोमे तक के हलके घोल में भिगोकर निकाल लिया जाता है और फिर उसे गरम हवा से 250° फारेनहाइट तक गरम कर दिया जाता है, क्योंकि अम्ल का ऊन पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता। अम्ल से बीज आदि के कंटीले रोएँ जल जाते हैं इसलिए वे अलग हो जाते हैं।

लैनोलिन

ऊन के धोवन से बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध होती है जिसे अंग्रेज़ी में 'लैनोलिन' कहते हैं। लैनोलिन का उपयोग कांतिवर्धक प्रसाधन के निर्माण में होता है। इससे मनुष्य की त्वचा चिकनी और मुलायम होती है। इसका उपयोग कई औद्योगिक वस्तुओं के निर्माण में भी होता है। मुखलेप, मलिनता हटाने वाले द्रव्य, मलहम, पालिश, स्याही, मुर्चा छुड़ाने वाले पदार्थ, सफ़ेद साबुन आदि में भी इसका उपयोग होता है।

धुनाई (कार्डिग)

धुल जाने के बाद ऊन के रेशे को सूत के रूप में परिणत करने के लिए पहले धुनाई (कार्डिग) की ज़रूरत होती है। कार्डिक के लिए ऊन को खोलकर मशीन द्वारा इस प्रकार मिलाया जाता है कि जाली के समान पतली और मुलायम पट्टी बन जाए। जिस मशीन के द्वारा यह काम होता है उसका नाम है 'कार्डिग इंजन'। कभी-कभी कार्डिग इंजन के साथ भारी रोलर फिट कर दिए जाते हैं जिसमें ऊन में बची-खुची त्रुटियाँ भी दूर हो जाएँ। तदनंतर ऊन दो बेलनों के बीच से गुजरती है। इन बेलनों पर ऐसा 'कार्डिग क्लाथ' रहता है जिसमें बारीक और छोटे-छोटे लोहे के हजारों तार गुथे रहते हैं। ये तार रोलरों में एक दूसरे के सामने लगे रहते है और लचीले होते हैं। इनसे ऊन के रेशे बहुत कुछ समांतर हो जाते हैं। अन्य कई बेलनों के बीच होता हुआ ऊन अंत में बिना बुनावट और बिना उलझन की फुलफुली चौड़ी पट्टी का रूप धारण कर लेता है। तब मशीन में लगे अंतिम भाग से यह अनेक संकरी पट्टियों में बाँट दिया जाता है और चमड़े के बड़े पट्टे पर जाता है। बत्ती बनाने में हथेलियों का अनुकरण करते हुए ये पट्टे रेशों को संकीर्ण घेरे में दबाकर मलते हैं। इस प्रकार कताई के लिए पूनी तैयार हो जाती है। इस प्रक्रिया में टूटे हुए रेशे अलग निकल आते हैं। इस प्रकार का सूत ऊनी सूत कहा जाता है और इससे जो कपड़ा तैयार किया जाता है उसे ऊनी वस्त्र कहा जाता है। 'वर्स्टेड क्लॉथ' में ऊन के रेशे एक दूसरे के समांतर रहते हैं और इसलिए काफ़ी लंबे रेशों ही से ऐसा वस्त्र बनता है।

कंघी

समांतर ढंग से रेशे को निकालने के लिए ऊन के मुट्ठे को दोहरा कर दिया जाता है और दो रोलरों के बीच से उसे निकाला जाता है। उसके आगे दो अन्य रोलर कुछ अधिक गति से चलाए जाते हैं; इससे ऊन खिंच जाता है। दो रोलरों की जोड़ी के बीच तेज़ीके साथ चलने वाले दाँत रेशों की समांतर करते चलते हैं। थैली में छोटे-छोटे रेशे रह जाते हैं। उन्हें एक दूसरी विधि से हटाया जाता हैं, जिसे कंघी करना (अंग्रेज़ी में कौंबिंग) कहते हैं। तदनंतर ऊन का मुट्ठा फिर दोहरा कर दिया जाता है और उनको दो रोलरों के बीच से एक बार और निकाला जाता है।

ड्रॉइंग

इसके बाद ऊन के मुट्ठे का खींचकर लंबा किया जाता है। इसे ड्रॉइंग कहते हैं। यहाँ पर एक से छह मुट्ठे एक साथ चलाए जाते हैं। ये मूट्ठे भारी रोलरों की जोड़ियों के बीच से चलाए जाते हैं। दूसरी जोड़ी वाले रोलरों की गति पहले वाले से अधिक रहती है। परिणामस्वरूप मोटा सूत पतला होता जाता है। इच्छानुसार पतला हो जाने पर कच्चे सूत को बाबिन पर लपेटा जाता है।

कताई

ऊपर बताए गए कच्चे सूत को फिर ऐंठा जाता है जिससे सूत्र मज़बूत हो जाता है। तब उस सूत को लच्छियों में लपेटा जाता है। जिस प्रकार का सूत होता है वेसी ही उसमें ऐंठन डाली जाती है। इस कार्यविधि को कताई (अंग्रेजी में 'स्पिनिंग') कहते हैं। सूत की कताई के लिए विभिन्न प्रकार की मशीनों का प्रयोग होता है।

करघे

जिस मशीन या यंत्र पर कपड़ा बुना जाता है उसका नाम करघा है। करघे का संचालन या तो हाथ द्वारा होता है या विद्युच्छक्ति द्वारा। करघे पर बुनाई का काम बहुत कुछ उसी प्रकार होता है जिस प्रकार सूती ओर रेशमी कपड़े बुने जाते हैं। बुनाई के बाद कपड़े की जाँच की जाती है जिससे उसमें आई हुई त्रुटियों का निवारण किया जा सके। कभी-कभी बुनाई के समय कपड़े में गाँठ पड़ जाती है या तागे रह जाते हैं। उनका सुधार हाथ द्वारा किया जाता है।

बुनाई के समय कपड़े गंदे हो जाते हैं, इसलिए बुनाई के बाद कपड़े को धोया जाता है। कपड़े को साबुन के घोल में भिगाया जाता है। फिर कपड़े को भारी रोलरों के बीच से चलाया जाता है जिससे साबुन का पानी निकल जाए। अंत में कपड़े को शुद्ध पानी से धोकर सुखाया जाता है। सुखाने पर कपड़ा कुछ कठोर हो जाता है।

कपड़े की ज़मीन एक समान कोमल बनी रहे इसके लिए मशीन द्वारा कपड़े में निकले हुए धागे को काटा जाता है। जिस मशीन द्वारा काटने का काम होता है उसमें दो वृत्ताकार चाकू होते हैं। इस मशीन का काम केवल ज़मीन को समतल बनाना होता है।

अंतत: तैयार हुए कपड़े की तह लगाई जाती है। तह लगाने का काम मशीन द्वारा किया जाता है। फिर एक दूसरी मशीन में कपड़े को दबाया जाता है और तब कपड़ा बाज़ार में भेज दिया जाता है।


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