आगा ख़ाँ प्रथम

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आग़ा ख़ाँ प्रथम (1800-1881), वास्तविक नाम हज़रत अलीशाह; फारस में जन्म; हज़रत अली तथा उनकी पत्नी, हज़रत मोहम्मद की पुत्री आएशा के वंशज थे। उन्हें आग़ा ख़ां की पदवी फ़ारस के राजदरबार से मिली थी जो बाद में वंश परंपरागत हो गई। हसन अलीशाह के पूर्वज फारस और मिस्र के राजवंश से संबंधित थे। स्वयं उनका विवाह फारस की राजकुमारी से हुआ था। फारस छोड़ने के पूर्व वे केरमान के गवर्नर जनरल थे; किंतु सम्राट् के रोषवश उन्हें जन्मभूमि त्याग भारत में अंग्रेज सरकार का आश्रय ग्रहण करना पड़ा था। अफगानिस्तान तथा सिंध में अंग्रेज सरकार का प्रभुत्व स्थापित कराने में उन्होंने बड़ी सहायता की। सिंध में उनका धार्मिक प्रभाव भी एथेष्ट मात्रा में स्थापित हो गया था। भारत सरकार ने उन्हें इस्लाम के इस्माइलिया संप्रदाय का इमाम स्वीकार कर उन्हें पेंशन प्रदान की थी। स्पष्टत: यह हसन अलीशाह के धार्मिक प्रभाव की स्वीकृति का ही नहीं, बल्कि अंग्रेजों को प्रदत्त सहायता का भी परिणाम था। वे अंत तक भारत में अंग्रेजी राज्य के प्रबल समर्थक बने रहे। उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रदेश पर, तथा सन्‌ 1857 कीे क्रांति में भी उन्होंने अंग्रेजों को यथेष्ट सहायता की। अतत: उन्होंने बंबई को अपना निवास स्थान बना लिया जहाँ उन्होंने घुड़दौड़ के अभिभावक के रूप में यथेष्ट ख्याति प्राप्त की। मृत्युपर्यंत वे भारत के इस्माइलियों का ही नहीं, वरन्‌ अफगानिस्तान, खुरासान, अरब, मध्य एशिया, सीरिया, मोरक्को आदि देशों में इस्माइली अनुयायियों का धार्मिक मार्गदर्शन करते रहे। उनका व्यक्तित्व योद्धा राजनीतिज्ञ, धार्मिक नेता तथा खिलाड़ी का अद्भुत संमिश्रण था।

आग़ा ख़ाँ द्वितीय-आग़ा अलीशाह (मृत्यु 1885) आग़ा ख़ां प्रथम के ज्एष्ठ पुत्र थे। 1881 में वे आग़ा ख़ां द्वितीय घोषित किए गए; किंतु 1885 में उनकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का असामयिक निधन हो गया। वे बंबई काउंसिल के सदस्य भी थे।

आग़ा ख़ाँ तृतीय-वास्तविक नाम मोहम्मद शाह,[1] अपने पिता के इकलौते पुत्र थे। आठ वर्ष की अवस्था में वे आग़ा ख़ां घोषित हुए। नौ वर्ष की अवस्था में भारत सरकार द्वारा उन्हें एक हज़ार रुपए मासिक की आजीवन पेंशन तथा 'हिज़ हाइनेस' की पदवी प्रदान की गई। अपनी विदुषी माता की देखरेख में उनकी प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण हुई। पाश्चात्य शिक्षा दीक्षा का भी उन्हें पूर्ण अनुभव प्राप्त हुआ। युवावस्था में ही उन्होंने मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख की हैसियत से अधिकाधिक भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करने के निमित्त आवेदनपत्र प्रस्तुत किया था। वे अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के सभापति भी निर्वाचित किए गए थे। वे अंग्रेजी राज्य के प्रबल समर्थक थे। प्रत्येक ऐसे अवसर पर जब ब्रिटिश साम्राज्य-तुर्की इतालवी युद्ध से लेकर द्वितीय महायुद्ध तक-संकटग्रस्त हुआ, आग़ा ख़ां ने अंग्रेजों की मौखिक और सक्रिय सहायता की तथा मुसलमानों को, विशेष रूप से अपने अनुयायियों को, अंग्रेजों का पक्ष ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़, की स्थापना का आग़ा ख़ां को बहुत बड़ा श्रेय है। 1919 में इंडिया एक्ट के अंतिम रूपनिर्माण में उनका हाथ था। 1930-31 की इंग्लैंड में आयोजित राउंड टेबुल कफ्रोंंस में वे ब्रिटिश भारतीय प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख थे। 1932 की अखिल विश्व निरस्त्रीकरण कांफ़रेंस के सदस्य थे। 1937 में वे जिनीवा स्थित राष्ट्रसंघ की असेंबली के सभापति निर्वाचित हुए थे। इस प्रकार राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में आग़ा ख़ां ने प्रमुख भाग लिया था। किंतु उनकी विचार या कार्यप्रणाली में धार्मिक कट्टरता, असहिष्णुता तथा देश के प्रति उदासीनता का लेश न था। मुस्लिम समाज पर उन्होंने हमेशा शांतिवादी प्रभाव डालने का ही प्रयत्न किया। तभी देश के सम्माननीय राजनीतिज्ञों में उनकी गणना हुई। आग़ा ख़ां के बहुमुखी व्यक्तित्व का एक रोचक प्रसंग यह भी है कि घोड़े पालने तथा घुड़दौड़ के अभिभावक के नाते उन्होंने विश्वख्याति अर्जित की। उनका अस्तबल संसार के सर्वश्रेष्ठ अस्तबलों में गिना जाता था और संसार की सर्वश्रेष्ठ घुड़दौड़ प्रतियोगिता में उनके घोड़ों ने अनेक बार विजय प्राप्त की। स्विट्ज़रलैंड में 11 जुलाई, 1957 को उनकी मृत्यु हुई।

आग़ा ख़ाँ चतुर्थ (193६-) आग़ा ख़ां तृतीय की मृत्यु के बाद उनके वसीयतनामे के अनुसार, उनके पुत्र राजकुमार अली ख़ां को उत्तराधिकार अस्वीकृत कर, अली खां के पुत्र करीम अल्‌ हुसैनी को आग़ा ख़ां घोषित किया गया (13 जुलाई, 1957)। इनकी शिक्षा दीक्षा इंग्लैंड तथा अमरीका में संपन्न हुई है।[2]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1877-1957
  2. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 353 |

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