आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध प्रथम
प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध (1838-1842 ई.) ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन काल में गवर्नर-जनरल लॉर्ड ऑकलैण्ड के समय में शुरू हुआ और यह उसके उत्तराधिकारी लॉर्ड एलनबरो के समय तक चलता रहा। रूस अपनी शक्ति काफ़ी बढ़ा चुका था और अब वह अफ़ग़ानिस्तान पर भी अपना प्रभाव जमाना चाहता था। अफ़ग़ानिस्तान का अमीर दोस्त मुहम्मद ब्रिटिश सरकार से समझौता करना चाहता था, क्योंकि वह पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह से अपनी सुरक्षा चाहता था। इस युद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेज़ों ने क़ाबुल पर क़ब्ज़ा कर लिया और वहाँ भयंकर लूटमार की। हज़ारों अफ़ग़ान लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इस 'आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध' से कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि इसमें 20,000 भारतीय तथा अंग्रेज़ सैनिक मारे गए और डेढ़ करोड़ रुपया बर्बाद हो गया, जिसको भारत की ग़रीब जनता से वसूला गया।
रूस का बढ़ता प्रभाव
1868 ई. में अफ़ग़ानिस्तान का भूतपूर्व अमीर शाहशुजा अंग्रेज़ों का पेंशनयाफ्ता होकर पंजाब के लुधियाना नगर में रहता था। उस समय रूस के गुप्त समर्थन से फ़ारस की सेना ने अफ़ग़ानिस्तान के सीमावर्ती नगर हेरात को घेर लिया। हेरात बहुत सामरिक महत्त्व का नगर माना जाता था और उसे 'भारत का द्वार' समझा जाता था। जब उस पर रूस की सहायता से फ़ारस ने क़ब्ज़ा कर लिया तो इंग्लैंड की सरकार ने उसे भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के लिए ख़तरा माना। हालांकि उस समय फ़ारस और भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के बीच में पंजाब में रणजीत सिंह और अफ़ग़ानिस्तान में दोस्त मुहम्मद का स्वतंत्र राज्य था।
दोस्त मुहम्मद की इच्छा
अमीर दोस्त मुहम्मद भी हेरात पर फ़ारस के हमले से रूसी आक्रमण का ख़तरा महसूस कर रहा था। वह अपनी सुरक्षा के लिए भारत की ब्रिटिश सरकार से समझौता करना चाहता था। किन्तु वह अपने पूरब के पड़ोसी महाराजा रणजीत सिंह से अपनी सुरक्षा की गारंटी चाहता था, जिसने हाल ही में पेशावर पर अधिकार कर लिया था। अत: उसने इस शर्त पर 'आंग्ल-अफ़ग़ान गठबंधन' का प्रस्ताव रखा कि अंग्रेज़ उसे रणजीत सिंह से पेशावर वापस दिलाने में मदद देंगे और इसके बदले में अमीर अपने दरबार तथा देश को रूसियों के प्रभाव से मुक्त रखेगा। लॉर्ड ऑकलैंड की सरकार महाराजा रणजीत सिंह की शक्ति से भय खाती थी और उसने उस पर किसी भी प्रकार का दबाव डालने से इन्कार कर दिया।
त्रिपक्षीय सन्धि तथा हमला
बर्न्स, जिसे ऑकलैंड ने अमीर से बातचीत के लिए क़ाबुल भेजा था, अप्रैल 1838 ई. में क़ाबुल से ख़ाली हाथ लौट आया। उसके लौटने के बाद अमीर ने एक रूसी एजेंट की आवभगत की, जो कुछ समय से उसके दरबार में रहता था और अब तक उपेक्षा का पात्र बना हुआ था। इस बात को ऑकलैंड की सरकार ने अमीर का शत्रुतापूर्ण व्यवहार समझा और जुलाई, 1838 ई. में उसने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और निष्कासित अमीर शाहशुजा से, जो लुधियाना में रहता था, एक त्रिपक्षीय संधि कर ली, जिसका उद्देश्य शाहशुजा को फिर से अफ़ग़ानिस्तान की गद्दी पर बैठाना था। यह अनुमान था कि शाहशुजा क़ाबुल में अमीर बनने के बाद अपने विदेशी संबंधों में, ख़ासतौर से रूस के संबंध में भारत की ब्रिटिश सरकार से नियंत्रित होगा। इस आक्रामक और अन्यायपूर्ण त्रिपक्षीय संधि के बाद आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध अनिवार्य हो गया। इस त्रिपक्षीय संधि का यदि जुलाई 1838 में कुछ औचित्य भी था तो वह सितम्बर में फ़ारस की सेना द्वारा हेरात का घेरा उठा लिये जाने और अफ़ग़ान क्षेत्र से हट जाने के बाद समाप्त हो गया। लेकिन लॉर्ड ऑकलैण्ड को इससे सन्तोष नहीं हुआ और अक्टूबर में उसने अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ाई कर दी।
दोस्त मुहम्मद का आत्म-समर्पण
इस आक्रमण का कोई औचित्य नहीं था और इसके द्वारा 1832 ई. में सिंध के अमीरों से की गई संधि का भी उल्लंघन होता था, क्योंकि अंग्रेज़ी सेना उनके क्षेत्र से होकर अफ़ग़ानिस्तान गयी थी। इस युद्ध का संचालन भी बहुत ग़लत ढंग से किया गया। आरम्भ में अंग्रेज़ी सेना को कुछ सफलता मिली। अप्रैल 1839 ई. में कंधार पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। जुलाई में अंग्रेज़ी सेना ने ग़ज़नी ले लिया और अगस्त में क़ाबुल। दोस्त मुहम्मद ने क़ाबुल ख़ाली कर दिया और अंत में अंग्रेज़ सेना के आगे आत्म समर्पण कर दिया। उसको बंदी बनाकर कलकत्ता भेज दिया गया और शाहशुजा को फिर से अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बना दिया गया। किन्तु इसके बाद ही स्थिति और भी विषम हो गई।
अफ़ग़ानों का क्रोध
शाहशुजा को अमीर बनाने के बाद अंग्रेज़ी सेना वहाँ से वापस बुला लेनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। शाहशुजा केवल कठपुतली शासक था और देश का प्रशासन वास्तव में सर विलियम मैकनाटन के हाथों में था, जिसको लॉर्ड ऑकलैंड ने राजनीतिक अधिकारी के रूप में वहाँ भेजा था। अफ़ग़ान लोग पहले से ही शाहशुजा को पसन्द नहीं करते थे और इस बात से बहुत नाराज थे कि अंग्रेज़ी सेना की बन्दूकों की ओर से उसे अमीर बना दिया गया है। इसीलिए क़ाबुल में अंग्रेज़ी आधिपत्य सेना को रखना ज़रूरी हो गया था। युद्ध के कारण चीज़ों के दाम बेतहाशा बढ़ गये थे, जिससे जनता का हर वर्ग पीड़ित था। अंग्रेज़ी सेना की कुछ हरकतों से भी जनरोष प्रबल हो गया था। इस मौके का दोस्त मुहम्मद के लड़के अकबर ख़ाँ ने चालाकी से फायदा उठाया और 1841 ई. में पूरे देश में शाहशुजा और उसकी संरक्षक अंग्रेज़ सेना के विरुद्ध बड़े पैमाने पर बलवे शुरू हो गए। सर विलियन मैकनाटन के ख़ास सलाहकार एलेक्ज़ेंडर बर्न्स की अनीति से अफ़ग़ान लोग चिढ़े हुए थे। नवम्बर, 1841 ई. में एक क्रुद्ध अफ़ग़ान भीड़ बर्न्स और उसके भाई को घर से घसीट कर ले गई और दोनों को मार डाला।
आक्रमण
मैकनाटन और क़ाबुल स्थित अंग्रेज़ी सेना के कमाण्डर जनरल एनफ़िंस्टन ने उस समय ढुलमुलपन और कमज़ोरी का प्रदर्शन किया और दिसम्बर में अकबर ख़ाँ से संधि कर ली, जिसके द्वारा अफ़ग़ानिस्तान से अंग्रेज़ी सेना को वापस बुला लेने और दोस्त मुहम्मद को दुबारा अमीर बना देने का आश्वासन दिया गया। शीघ्र ही यह बात साफ़ हो गई कि इस संधि के पीछे मैकनाटन की नीयत साफ़ नहीं है। इस पर अकबर ख़ाँ के आदेश से मैकनाटन और उसके तीन साथियों को मौत के घाट उतार दिया गया। क़ाबुल पर अधिकार करने वाली अंग्रेज़ी सेना के 16,500 सैनिक 6 जनवरी, 1841 ई. को क़ाबुल से जलालाबाद की ओर रवाना हुए, जहाँ जनरल सेल के नेतृत्व में एक दूसरी अंग्रेज़ सेना डटी हुई थी। अंग्रेज़ी सेना की वापसी विनाशकारी सिद्ध हुई। अफ़ग़ानों ने सभी ओर से उस पर आक्रमण कर दिया और पूरी सेना नष्ट कर दी। केवल एक व्यक्ति, 'डाक्टर विलियम ब्राइडन' गम्भीर रूप से जख्मी और थका मांदा 13 जनवरी को जलालाबाद पहुँचा।
अंग्रेज़ों की विजय
इस दुर्घटना से गवर्नर-जनरल लॉर्ड ऑकलैण्ड और इंग्लैंड की सरकार को गहरा धक्का लगा। ऑकलैंड को इंग्लैंड वापस बुला लिया गया और लॉर्ड एलनबरो को उसके स्थान पर गवर्नर-जनरल (1842-1844 ई.) बनाया गया। एलनबरो के कार्यकाल में जनरल पोलक ने अप्रैल, 1842 ई. में जलालाबाद पर फिर से नियंत्रण कर लिया और मई में जनरल नॉट ने कंधार को फिर से अंग्रेज़ों के अधिकार में ले लिया। इसके बाद दोनों अंग्रेज़ी सेनाएं रास्ते में सभी विरोधियों को कुचलते हुए आगे बढ़ीं और सितम्बर, 1842 ई. में क़ाबुल पर अधिकार कर लिया। इन सेनाओं ने बचे हुए बंदी अंग्रेज़ सिपाहियों को छुड़ाया और अंग्रेज़ों की विजय के उपलक्ष्य में क़ाबुल के बाज़ार को बारूद से उड़ा दिया।
क़ाबुल की लूट
अंग्रेज़ों ने क़ाबुल शहर को निर्दयता के साथ ध्वस्त कर डाला, बड़े पैमाने पर लूटमार की और हज़ारों बेगुनाह अफ़ग़ानों को मौत के घाट उतार दिया। इन बर्बरतापूर्ण कृत्यों के साथ इस अन्यायपूर्ण और अलाभप्रद युद्ध का अंत हुआ। शीघ्र ही अफ़ग़ानिस्तान से अंग्रेज़ी सेना को वापस बुला लिया गया और दोस्त मुहम्मद, जिसे कलकत्ता में नज़रबंदी से रिहा कर दिया था, अफ़ग़ानिस्तान वापस लौट गया और 1842 ई. में दोबारा गद्दी पर बैठा, जिससे उसे अनावश्यक और अनुचित तरीके से हटा दिया गया था। वह 1863 ई. तक अफ़ग़ानिस्तान का शासक रहा। उस वर्ष 80 साल की उम्र में उसका देहान्त हुआ।
निष्कर्ष
इसमें कोई सन्देह नहीं कि 'प्रथम अफ़ग़ान युद्ध' भारत की ब्रिटिश सरकार की ओर से नितांत अनुचित रीति से अकारण ही छेड़ दिया गया था और लॉर्ड ऑकलैंड की सरकार ने उसका संचालन बड़ी अयोग्यता के साथ किया। इस युद्ध से कोई लाभ नहीं हुआ और इसमें 20,000 से भी अधिक भारतीय तथा अंग्रेज़ सैनिक मारे गए। युद्ध में डेढ़ करोड़ रुपया बर्बाद हो गया, जिसको भारत की ग़रीब जनता से जबरन वसूला गया।
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