अबू सिंबेल मंदिर
अबू सिंबेल या 'अबू सिंबल' या 'इप्संबुल' नूबिया में नील नदी के तट पर कोरोस्की के दक्षिण प्राचीन मिस्री फराऊन रामेसेज़ द्वितीय द्वारा 13वीं सदी ई.पू. के मध्य निर्मित मंदिरों का परिवार (समूह) है। 1960 में जब अबु सिंबेल पर संकट के बादल मंडराने लगे थे, तब कई देशों ने एकजुट होकर इसे बचाने का प्रयास किया था। इस एक धरोहर ने सारे विश्व को एकजुट कर दिया था।
इतिहास
ईजिप्ट पूरी दुनिया में अपने पिरामिड, ममी और फराओं के लिए मशहूर है। लगभग 5000 साल पुरानी मिस्र की सभ्यता के इतिहास में कई ऐसे राज छुपे हैं जो वैज्ञानिकों के लिए आज भी शोध का विषय बने हुए हैं। उन्हीं में से एक है- 'अबु सिंबल'। ये ईजिप्ट के दो प्राचीन मंदिर हैं, जिन्हें 1300 ईसापूर्व में फैरो रामेसेस द्वितीय ने बनवाया था।[1]
अबू सिंबेल असवान के लगभग 230 कि.मी. दक्षिण-पश्चिम (सड़क से लगभग 300 किमी), नासर झील के पश्चिमी तट पर स्थित है। यह परिसर यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल का हिस्सा है, जिसे 'न्यूबियन स्मारक' कहा जाता है, जो अबू सिम्बल डाउन्रिवर से फिलए (असवान के नजदीक) तक चलता है। जुड़वां मंदिर मूल रूप से 13वीं शताब्दी ईसा पूर्व में पहाड़ के मैदान से बनाये गये थे, जो फिरौन रामेसेज़ द्वितीय के 19वीं राजवंश शासन के दौरान थे। वे राजा और उनकी रानी नेफर्टारी के लिए एक स्थायी स्मारक के रूप में कार्य करते हैं।[2]
विशेषता
इन मंदिरों की संख्या तीन है, जिनमें से प्रधान मंदिर फराऊन सेती के समय बनना आरंभ हुआ था और उसके पुत्र के शासन में समाप्त हुआ। तीनों मंदिर चट्टानों को काटकर बनाए गए हैं और इनमें से कम से कम प्रधान मंदिर तो प्राचीन जगत् में अनुपम है। मंदिरों के सामने रामेसेज़ की चार विशालकाय बैठी युग्म मूर्तियाँ द्वार के दोनों ओर बनी हुई हैं; ये प्राय: 65 फुट ऊँची हैं। रामेसेज़ की मूर्तियों के साथ उसकी रानी और पुत्र पुत्रियों की भी मूर्तियाँ कोरकर बनी हैं। मंदिर सूर्यदेव आमेनरा की आराधना के लिए बने थे। मंदिर के भीतर चट्टानों में ही कटे अनेक बड़े-बड़े पौने दो-दो सौ फुट लंबे चौड़े हाल हैं, जिनमें ठोस चट्टानों से ही काटकर अनेक मूर्तियाँ बना दी गई हैं। उनमें राजा की कीर्ति और विजयों की वार्ताएँ दृश्यों में खोदकर प्रस्तुत की गई हैं। अबू सिंबेल के ये मंदिर संसार के प्राचीन मंदिरों में असाधारण महत्व के है।[3]
बड़े मंदिर की खासियत ये है कि इन्हें चट्टानों को काटकर बनाया गया है और ये मिस्र की वास्तुकला का अद्भुत नमूना हैं। इस बड़े मंदिर के अंदर रामेसेस द्वितीय और तीन देवताओं की मूर्तियां हैं। इसका अग्रभाग बहुत ही भव्य है। इसमें बैठे हुए फैरो की 4 मूर्तियां बनीं हुई हैं, जिनकी ऊंचाई लगभग 20 मीटर है। दूसरा मंदिर रामेसेस ने अपनी पत्नी के लिए बनवाया, जहां उसने अपनी पत्नी की मूर्ती बनवाई हुई है। इस बड़े मंदिर की खासियत है कि यहाँ साल में केवल दो बार ही सूरज की रोशनी अंदर तक जाती है। एक 21 फ़रवरी और दूसरा 21 अक्टूबर। इन दोनों दिन सूरज की रोशनी मंदिर के अंदर तक जाती है और सीधे जाकर रामेसेस की मूर्ती पर पड़ती है। रामेसेस ने इसे इतने खास ढंग से बनवाया है कि और किसी भी दिन रोशनी मूर्ती तक नहीं पहुँच पाती। माना जाता है कि यह दोनों दिन में से एक रामेसेस के जन्म का दिन है और दूसरा उसके राजा बनने का। सालों से यह ईजिप्ट की एक खास पहचान बना हुआ है।[1]
नामकरण
ये अद्भुत नमूना लगभग हजारों सालों तक रेत में दबा रहा। कोई नहीं जानता था कि रेगिस्तान की रेत के नीचे ऐसा नायाब मंदिर बना हुआ है। सन 1813 में इसे स्विस एक्सप्लोरर ने खोज निकाला। यह मंदिर नील नदी के पास बसा हुआ था और उस स्विस आदमी को एक अबु सिंबल नाम का बच्चा पहली बार उस जगह पर ले गया था। शुरुआत में रेत के नीचे बस इसका ऊपरी हिस्सा ही दिखाई दे रहा था। इसके बाद उस स्विस आदमी ने बाकियों को भी इसकी जानकारी दी और इस मंदिर से रेत हटाने का काम शुरू हुआ। क्योंकि इस जगह तक अबु सिंबल नाम का बच्चा उस व्यक्ति को लेकर आया था, इसलिए इस मंदिर को उसी का नाम दे दिया गया।
विश्व समुदाय की एकजुटता
सन 1950 तक ये मंदिर और इसकी प्रतिमाएं ऐसे ही खड़ी रहीं, लेकिन 1960 के दशक में इसके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा, जब नील नदी पर बांध बनाने का काम शुरू हुआ। दरअसल, बिजली की बढ़ती डिमांड और नील नदी पर हर साल आने वाली बाढ़ पर काबू पाने के लिए ईजिप्ट की सरकार ने इस पर बांध बनाने की योजना बनाई। इस बांध को अबु सिंबल से 280 किलोमीटर दूर अस्वान में बनाया गया और इसका नाम रखा गया अस्वान बांध। यह बाँध कई सुविधाएं तो लाया ही, लेकीन अपने साथ एक नई आफत भी ले आया। बाँध के कारण अबु सिंबल के नजदीक से जाने वाली नदी का स्तर लगातार बढ़ने लगा। उसमें बाढ़ आने का खतरा पनपने लगा। अगर वह नदी का पानी बढ़ता ही जाता तो उससे सबसे बड़ा खतरा अबु सिंबल को ही था। देखते ही देखते ईजिप्ट का यह मंदिर नष्ट हो जाता। इसलिए इस समस्या के हल के लिए ईजिप्ट और सूडान की सरकार ने यूनेस्को से मदद मांगी और यहीं से इस प्राचीन धरोहर को बचाने के लिए विश्व समुदाय के एक जुट होने की कहानी शुरू हुई। कई देशों ने इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिए अपने इंजिनियरों को वहां भेजा।[1]
मंदिरों और मूर्तियों का स्थानांतरण
मामला वैश्विक धरोहर का था तो ये काम बहुत ही सावधानी और सतर्कता के साथ हुआ। इस नाजुक काम को करने के लिए हाथ के औजारों से लेकर बुलडोजर तक का इस्तेमाल हुआ। दोनों मंदिरों और इनकी मूर्तियों को पूरी सावधानी के साथ 20 टन के ब्लॉक पर नई जगह पर शिफ्ट किया गया। इस मंदिर के पूरे ढाँचे को बहुत ही कम बल-दर के हिसाब से हिलाया गया, क्योंकि हर कोई जानता था कि एक गलती और मंदिर हमेशा के लिए नष्ट हो जाएगा। यही नहीं इसे नए स्थान पर वैसे ही स्थापित किया गया जैसे कि वह पहले था।
इस नामुमकिन से दिखने वाले काम को पूरा करने के लिए पांच महाद्वीपों की 40 टेक्निकल टीमों ने मिलकर अंजाम तक पहुंचाया। इसे स्थानांतरित करने में करीब 40 मिलियन डॉलर खर्च हुए थे। इस मिशन के तहत पूरे 22 स्मारकों को एक जगह से दूसरी जगह पर स्थापित किया गया। वैसे तो ये काम 1968 में पूर्ण हो गया था, लेकिन पूरा कार्य 1980 में जाकर खत्म हुआ। इस कार्य को पूरा करने के लिए ईजिप्ट की सरकार ने चार मुख्य देशों के प्रति कृतज्ञता जाहिर करते हुए उन्हें उपहार स्वरूप चार मंदिर प्रतिरूप दिए थे। इन्हीं में से एक को न्यूयॉर्क के ‘मेट्रोपॉलिटन म्यूजियम ऑफ आर्ट’ में लोगों के दर्शन के लिए रखा गया है। पूरे विश्व ने एकजुट होकर इस धरोहर को बचाया जो वाकई सराहनीय कार्य था।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 अबु सिंबल: ‘इस मंदिर’ के लिए एकजुट हो गया था पूरा विश्व (हिंदी) roar.media। अभिगमन तिथि: 8 जनवरी, 2020।
- ↑ अबू सिम्बल (हिंदी) mimirbook। अभिगमन तिथि: 8 जनवरी, 2020।
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 169 |
बाहरी कड़ियाँ
- अबू सिम्बल
- दुनिया के सूर्य मंदिर: भारत ही नहीं चीन और मिस्र में भी होती है सूर्य उपासना
- अबू सिंबल के भूमिगत मंदिर का मुखौटा
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