श्राद्ध करने का स्थान

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मनु[1] ने व्यवस्था दी है कि कर्ता को प्रयास करके दक्षिण की ओर ढालू भूमि खोजनी चाहिए, जो कि पवित्र हो और जहाँ पर मनुष्य अधिकतर न जाते हों। उस भूमि को गोबर से लीप देना चाहिए, क्योंकि पितर लोग वास्तविक स्वच्छ स्थलों, नदी-तटों एवं उस स्थान पर किये गए श्राद्ध से प्रसन्न होते हैं, जहाँ पर लोग बहुधा कम ही जाते हैं। याज्ञवल्क्य[2] ने संक्षिप्त रूप से कहा है कि श्राद्ध स्थल चतुर्दिक से आवृत, पवित्र एवं दक्षिण की ओर ढालू होना चाहिए। शंख[3] का कथन है–'बैलों, हाथियों एवं घोड़ों की पाठ पर, ऊँची भूमि या दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए।' कूर्म पुराण[4] में आया है–वन, पुण्य पर्वत, तीर्थस्थान, मन्दिर–इनके निश्चित स्वामी नहीं होते और ये किसी की वैयक्तिक सम्पत्ति नहीं हैं। यम ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई किसी अन्य की की भूमि पर अपने पितरों का श्राद्ध करता है तो उस भूमि के स्वामी के पितरों के द्वारा वह श्राद्ध-कृत्य नष्ट कर दिया जाता है। अत: व्यक्ति को पवित्र स्थानों, नदी-तटों और विशेषत: अपनी भूमि पर, पर्वत के पास के लता-कुंजों एवं पर्वत के ऊपर ही श्राद्ध करना चाहिए।[5] विष्णुधर्मसूत्र[6] ने कई पवित्र स्थलों का उल्लेख किया है और जोड़ा है–'इनमें एवं अन्य तीर्थों, बड़ी नदियों, सभी प्राकृतिक बालुका-तटों, झरनों के निकट, पर्वतों, कुंजों, वनों, निकुंजों एवं गोबर से लिपे सुन्दर स्थलों पर (श्राद्ध करना चाहिए)'। शंख[7] ने लिखा है कि जो भी कुछ पवित्र वस्तु गया, प्रभास, पुष्कर, प्रयाग, नैमिष वन (सरस्वती नदी पर), गंगा, यमुना एवं पयोष्णी पर, अमरकंटक, नर्मदा, काशी, कुरुक्षेत्र, भृगुतुंग, हिमालय, सप्तवेणी, ऋषिकेश में दी जाती है, वह अक्षय होती है। ब्रह्मपुराण[8] ने भी नदीतीरों, तालाबों, पर्वतशिखरों एवं पुष्कर जैसे पवित्र स्थलों को श्राद्ध के लिए उचित स्थान माना है। वायु पुराण[9] एवं मत्स्य पुराण[10] में भी श्राद्ध के लिए पूत स्थलों, देशों, पर्वतों की लम्बी सूचियाँ पायी जाती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनु (2|206-207)
  2. याज्ञवल्क्य (1|227)
  3. शंख (परा. मा. 1|2, पृ. 303; श्रा. प्र. पृ. 140; स्मृतिच., श्रा., पृ. 385)
  4. कूर्म पुराण (2|22|17)
  5. गोगजाश्वादिपृष्ठेषु कृत्रिमायां तथा भूवि। न कुर्याच्छ्राद्धमेतेषु पारक्यासु च भूमिषु।। शंख (परा. मा. 1|2, पृ. 303; श्रा. प्र., पृ. 140; स्मृतिच., श्रा. पृ. 395)। अटव्य: पर्वता: पुण्यास्तीर्थान्यायतनानि च। सर्वाण्यस्वामिकान्याहुर्न ह्येतेषु परिग्रह:।। कूर्म. (2|22|17)। अपरार्क (पृ. 471), कल्पतरु (श्राद्ध, पृ. 115) एवं श्रा. प्र. (पृ. 148) ने ऐसा ही श्लोक यम से उद्धृत किया है–यम: परकीयप्रदेशेषु पितृणां निर्वपेत्तु य:। तदभूमिस्वामिपितृभि: श्राद्धकर्म विहन्यते।।......तस्माच्छ्राद्धनि देयानि पुण्येष्वायातनेषु च। नदीतीरेषु तीर्थेषु स्वभूमौ च प्रयत्नत:। उपह्वरनिकुंजेषु तथा पर्वतसानुषु।। अपरार्क (पृ. 471), कल्परु (श्राद्ध, पृ. 115)। मिलाइए कूर्म. (2|22|16)।
  6. विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय 85)
  7. शंख (14|27-29)
  8. ब्रह्मपुराण (220|5-7)
  9. वायु पुराण (अध्याय 77)
  10. मत्स्य पुराण (22)

बाहरी कड़ियाँ

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