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[[चित्र:Kimkhab brocades.gif|thumb|किमख़ाब कढ़ाई]]
*किमखाब एक प्रकार की कढ़ाई होती है जो [[ज़री]] और [[रेशम]] से की जाती है। बनारसी साड़ियों के पल्लू, बार्डर (किनारी) पर मुख्यत: इस प्रकार की कढ़ाई की जाती है। इस कढ़ाई में रेशम के कपडे का प्रयोग किया जाता है। इसका धागा विशेष रूप से सोने या चाँदी के तार से बनाया जाता है। लोहे की प्लेट में छेद करके महीन से महीन तार तैयार किया जाता है। सोने के तार को 'कलाबत्तू' कहा जाता है और किमखाब की क़ीमत भी इस सोने या चाँदी के तार से निर्धारित होती है।  
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'''किमख़ाब''' रेशम और [[सोना|सोने]] अथवा [[चाँदी]] के तार से बुना भारतीय ज़रीदार कपड़ा होता है। [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] से व्युत्पन्न 'किमख़ाब' शब्द का अर्थ है, '''एक छोटा सा स्वप्न''', जो शायद इसमें प्रयुक्त जटिल बनावट के संदर्भ में है। किमख़ाब का अर्थ 'बुना' हुआ भी है। यह अर्थ [[ज़रदोज़ी]] के लिए इसमें प्रचलित फूलों वाली आकृतियों की वजह से अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।
*[[भारत]] में स्थित [[वाराणसी]] का पुराना शहर प्रारम्भिक काल से ही अपने किमखाब और सिल्क के कपड़ों के लिए प्रसिद्ध रहा है। आज भी यह उज्जवल परम्परा यहाँ पर जीवित है और वाराणसी के कारीगर तरह तरह के नक्शों और नमूनों में आश्चर्यचकित कर देने वाले विभिन्न प्रकार के मनमोहक कपड़े तैयार करते हैं।
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*किमख़ाब एक प्रकार की कढ़ाई होती है जो [[ज़री]] और [[रेशम]] से की जाती है। बनारसी साड़ियों के पल्लू, बार्डर (किनारी) पर मुख्यत: इस प्रकार की कढ़ाई की जाती है। इस कढ़ाई में रेशम के कपडे का प्रयोग किया जाता है। इसका धागा विशेष रूप से सोने या चाँदी के तार से बनाया जाता है। लोहे की प्लेट में छेद करके महीन से महीन तार तैयार किया जाता है। सोने के तार को '''कलाबत्तू''' कहा जाता है और किमख़ाब की क़ीमत भी इस सोने या चाँदी के तार से निर्धारित होती है।
*[[इंग्लैंड]] की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय के 1961 में वाराणसी आगमन के अवसर पर उपहारस्वरूप  दिया गया किमखाब का एक अत्युत्तम भाग, उनको दिये गये अनेक उपहारों में सबसे प्रमुख था।  
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[[चित्र:Kimkhab.gif|thumb|किमखाब कढ़ाई करते कारीगर]]
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*किमख़ाब [[भारत]] में प्राचीन काल से विभिन्न नामों से जाना जाता रहा है। वैदिक साहित्य<ref> लगभग 1500 ई. पू.</ref> में इसे '''हिरण्य''' या '''स्वर्ण का कपड़ा''' कहा गया है; [[गुप्त वंश]] के समय<ref> चौथी से छठी शताब्दी</ref> इसे '''पुष्पपट''' या '''बुने हुए फूलों वाला''' कपड़ा कहा जाता था।
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*[[मुग़ल काल]]<ref>1556-1707</ref> के दौरान जब किमख़ाब अमीरों में अत्याधिक लोकप्रिय था, तब [[बनारस]], [[अहमदाबाद]], [[सूरत]] और [[औरंगाबाद]] ज़रदोजी के बड़े केंद्र हुआ करते थे। अब भी [[वाराणसी]] किमख़ाब के उत्पादन का सबसे महत्त्वपूर्ण केंद्र है।  
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*[[भारत]] में स्थित [[वाराणसी]] का पुराना शहर प्रारम्भिक काल से ही अपने किमख़ाब और सिल्क के कपड़ों के लिए प्रसिद्ध रहा है। आज भी यह उज्ज्वल परम्परा यहाँ पर जीवित है और वाराणसी के कारीगर तरह तरह के नक्शों और नमूनों में आश्चर्यचकित कर देने वाले विभिन्न प्रकार के मनमोहक कपड़े तैयार करते हैं।
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*किमख़ाब का वर्गीकरण उनमें प्रयुक्त [[सोना|सोने]] और [[चाँदी]] की मात्रा के अनुसार होता है: कुछ पूरी तरह इन्हीं दोनों महँगी धातुओं से बुने जाते हैं; कुछ में डिज़ाइन को विशिष्टता प्रदान करने के लिए रंगीन रेशम के धागे का उपयोग किया जाता है; अन्य में अधिकांश कारीगरी रेशमी धागे से की जाती है और स्वर्ण व चाँदी का प्रयोग बहुत कम होता है। [[ज़रदोज़ी]] हेतु पसंद की जाने वाली आकृतियों में विसर्पी फूल और टहनियाँ या बिखरे फूलों की आकृतियाँ, देवदार-फल, [[गुलाब]], बेल-बूटे, लहरदार आकृतियाँ और रूढ़ शैली में, पोस्त जैसे पौधे हैं।
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*[[इंग्लैंड]] की [[महारानी एलिजाबेथ द्वितीय]] के 1961 में वाराणसी आगमन के अवसर पर उपहारस्वरूप  दिया गया किमख़ाब का एक अत्युत्तम भाग, उनको दिये गये अनेक उपहारों में सबसे प्रमुख था।  
 
*सिल्क की बुनाई और तत्सम्बंधी कलाओं, जो इस स्थान के अत्यंत पुराने और प्रमुख उद्योगों में से एक है और सारे विश्व में जिसकी प्रतिष्ठा है, के लिए वाराणसी ने क़ाफ़ी नाम कमाया है।  
 
*सिल्क की बुनाई और तत्सम्बंधी कलाओं, जो इस स्थान के अत्यंत पुराने और प्रमुख उद्योगों में से एक है और सारे विश्व में जिसकी प्रतिष्ठा है, के लिए वाराणसी ने क़ाफ़ी नाम कमाया है।  
 
*वाराणसी ज़िला आज भी भारत के प्रमुख सिल्क बुनने वाले केन्द्रों में से एक है और इसके पास लगभग 29,000 हथकरघे हैं, जिनमें से अधिकाँश शहर के 10 से 15 मील के अर्द्धव्यास में फैले हुए हैं। 1958 में 1,25,20,000 रुपये के विनियोजन पर, इस उद्योग से लगभग 85,000 लोगों को रोज़गार मिला तथा अन्य 10,000 लोग इसके सहायक व्यवसायों और व्यापार के कार्यों में लगे थे।  
 
*वाराणसी ज़िला आज भी भारत के प्रमुख सिल्क बुनने वाले केन्द्रों में से एक है और इसके पास लगभग 29,000 हथकरघे हैं, जिनमें से अधिकाँश शहर के 10 से 15 मील के अर्द्धव्यास में फैले हुए हैं। 1958 में 1,25,20,000 रुपये के विनियोजन पर, इस उद्योग से लगभग 85,000 लोगों को रोज़गार मिला तथा अन्य 10,000 लोग इसके सहायक व्यवसायों और व्यापार के कार्यों में लगे थे।  
  
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11:22, 18 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण

किमख़ाब कढ़ाई

किमख़ाब रेशम और सोने अथवा चाँदी के तार से बुना भारतीय ज़रीदार कपड़ा होता है। फ़ारसी से व्युत्पन्न 'किमख़ाब' शब्द का अर्थ है, एक छोटा सा स्वप्न, जो शायद इसमें प्रयुक्त जटिल बनावट के संदर्भ में है। किमख़ाब का अर्थ 'बुना' हुआ भी है। यह अर्थ ज़रदोज़ी के लिए इसमें प्रचलित फूलों वाली आकृतियों की वजह से अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।

  • किमख़ाब एक प्रकार की कढ़ाई होती है जो ज़री और रेशम से की जाती है। बनारसी साड़ियों के पल्लू, बार्डर (किनारी) पर मुख्यत: इस प्रकार की कढ़ाई की जाती है। इस कढ़ाई में रेशम के कपडे का प्रयोग किया जाता है। इसका धागा विशेष रूप से सोने या चाँदी के तार से बनाया जाता है। लोहे की प्लेट में छेद करके महीन से महीन तार तैयार किया जाता है। सोने के तार को कलाबत्तू कहा जाता है और किमख़ाब की क़ीमत भी इस सोने या चाँदी के तार से निर्धारित होती है।
किमख़ाब कढ़ाई करते कारीगर
  • किमख़ाब भारत में प्राचीन काल से विभिन्न नामों से जाना जाता रहा है। वैदिक साहित्य[1] में इसे हिरण्य या स्वर्ण का कपड़ा कहा गया है; गुप्त वंश के समय[2] इसे पुष्पपट या बुने हुए फूलों वाला कपड़ा कहा जाता था।
  • मुग़ल काल[3] के दौरान जब किमख़ाब अमीरों में अत्याधिक लोकप्रिय था, तब बनारस, अहमदाबाद, सूरत और औरंगाबाद ज़रदोजी के बड़े केंद्र हुआ करते थे। अब भी वाराणसी किमख़ाब के उत्पादन का सबसे महत्त्वपूर्ण केंद्र है।
  • भारत में स्थित वाराणसी का पुराना शहर प्रारम्भिक काल से ही अपने किमख़ाब और सिल्क के कपड़ों के लिए प्रसिद्ध रहा है। आज भी यह उज्ज्वल परम्परा यहाँ पर जीवित है और वाराणसी के कारीगर तरह तरह के नक्शों और नमूनों में आश्चर्यचकित कर देने वाले विभिन्न प्रकार के मनमोहक कपड़े तैयार करते हैं।
  • किमख़ाब का वर्गीकरण उनमें प्रयुक्त सोने और चाँदी की मात्रा के अनुसार होता है: कुछ पूरी तरह इन्हीं दोनों महँगी धातुओं से बुने जाते हैं; कुछ में डिज़ाइन को विशिष्टता प्रदान करने के लिए रंगीन रेशम के धागे का उपयोग किया जाता है; अन्य में अधिकांश कारीगरी रेशमी धागे से की जाती है और स्वर्ण व चाँदी का प्रयोग बहुत कम होता है। ज़रदोज़ी हेतु पसंद की जाने वाली आकृतियों में विसर्पी फूल और टहनियाँ या बिखरे फूलों की आकृतियाँ, देवदार-फल, गुलाब, बेल-बूटे, लहरदार आकृतियाँ और रूढ़ शैली में, पोस्त जैसे पौधे हैं।
  • इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के 1961 में वाराणसी आगमन के अवसर पर उपहारस्वरूप दिया गया किमख़ाब का एक अत्युत्तम भाग, उनको दिये गये अनेक उपहारों में सबसे प्रमुख था।
  • सिल्क की बुनाई और तत्सम्बंधी कलाओं, जो इस स्थान के अत्यंत पुराने और प्रमुख उद्योगों में से एक है और सारे विश्व में जिसकी प्रतिष्ठा है, के लिए वाराणसी ने क़ाफ़ी नाम कमाया है।
  • वाराणसी ज़िला आज भी भारत के प्रमुख सिल्क बुनने वाले केन्द्रों में से एक है और इसके पास लगभग 29,000 हथकरघे हैं, जिनमें से अधिकाँश शहर के 10 से 15 मील के अर्द्धव्यास में फैले हुए हैं। 1958 में 1,25,20,000 रुपये के विनियोजन पर, इस उद्योग से लगभग 85,000 लोगों को रोज़गार मिला तथा अन्य 10,000 लोग इसके सहायक व्यवसायों और व्यापार के कार्यों में लगे थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लगभग 1500 ई. पू.
  2. चौथी से छठी शताब्दी
  3. 1556-1707

“भाग 2”, भारत ज्ञानकोश, 374-375।

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