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प्रतीत होता है कि प्राचीन आयुर्वेदाचार्यो ने जिस 'शटी' या 'शठी' नामक औषधी द्रव्य का संहिताओं में प्रचुर उपयोग बतलाया है, वह यही 'हिमोद्भवा कपूरकचरी' है। परंतु इसके अलभ्य होने के कारण इसी कुल के कई अन्य [[द्रव्य]], जो मैदानों में उगते हैं और जो गुण में शठी तुल्य हो सकते हैं, संभवत: इसके स्थान पर प्रतिनिधि रूप में ग्रहण कर लिए गए हैं। इनमें [[कचूर]], चंद्रमूल<ref>कैंपफ़ेरिया गालैंजा</ref> तथा वनहरिद्रा<ref>करक्यूमा ऐरोमैटिका</ref> मुख्य हैं। इसीलिए इन सभी द्रव्यों के स्थानीय नामों में प्राय: कचूर, शठी, तथा कपूरकचरी आदि नाम मिलते हैं, जो भ्रम पैदा करते हैं। [[निघंटु|निघंटुओं]] के शठी, कर्चुर, गंधपलाश, मुरा तथा एकांगी आदि नाम इन्हीं द्रव्यों के प्रतीत होते हैं। | प्रतीत होता है कि प्राचीन आयुर्वेदाचार्यो ने जिस 'शटी' या 'शठी' नामक औषधी द्रव्य का संहिताओं में प्रचुर उपयोग बतलाया है, वह यही 'हिमोद्भवा कपूरकचरी' है। परंतु इसके अलभ्य होने के कारण इसी कुल के कई अन्य [[द्रव्य]], जो मैदानों में उगते हैं और जो गुण में शठी तुल्य हो सकते हैं, संभवत: इसके स्थान पर प्रतिनिधि रूप में ग्रहण कर लिए गए हैं। इनमें [[कचूर]], चंद्रमूल<ref>कैंपफ़ेरिया गालैंजा</ref> तथा वनहरिद्रा<ref>करक्यूमा ऐरोमैटिका</ref> मुख्य हैं। इसीलिए इन सभी द्रव्यों के स्थानीय नामों में प्राय: कचूर, शठी, तथा कपूरकचरी आदि नाम मिलते हैं, जो भ्रम पैदा करते हैं। [[निघंटु|निघंटुओं]] के शठी, कर्चुर, गंधपलाश, मुरा तथा एकांगी आदि नाम इन्हीं द्रव्यों के प्रतीत होते हैं। |
12:24, 25 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
कपूरकचरी 'ज़िंजीबरेसी कुल' की एक क्षुप जाति है, जिसे 'हेडीचियम स्पाइकेटम' कहते हैं। यह नेपाल, कुमाऊँ तथा उपोष्णदेशीय हिमालय में उगता है। इन स्थानों पर कपूरकचरी पाँच से सात हज़ार फ़ुट की ऊँचाई तक उत्पन्न होता है।
संरचना
इसके पत्ते साधारणत: लगभग एक फुट लंबे, आयताकार अथवा आयताकार-भालाकार, चिकने और कांड पर दो पंक्तियों में पाए जाते हैं। कांड के शीर्ष पर कभी-कभी एक फुट तक की लंबी सघन पुष्प मंजरी बनती है, जिसमें पुष्प अवृंत और श्वेत तथा निपत्र हरित वर्ण के होते हैं। इसके नीचे भूमिशायी, लंबा और गाँठदार प्रकंद होता है, जिसके गोल, चपटे कटे हुए और शुष्क टुकड़े बाज़ार में मिलते हैं। कचूर की तरह इसमें ग्रंथामय मूल नहीं होते और गंध अधिक तीव्र होती है।[1]
औषधीय द्रव्य
प्रतीत होता है कि प्राचीन आयुर्वेदाचार्यो ने जिस 'शटी' या 'शठी' नामक औषधी द्रव्य का संहिताओं में प्रचुर उपयोग बतलाया है, वह यही 'हिमोद्भवा कपूरकचरी' है। परंतु इसके अलभ्य होने के कारण इसी कुल के कई अन्य द्रव्य, जो मैदानों में उगते हैं और जो गुण में शठी तुल्य हो सकते हैं, संभवत: इसके स्थान पर प्रतिनिधि रूप में ग्रहण कर लिए गए हैं। इनमें कचूर, चंद्रमूल[2] तथा वनहरिद्रा[3] मुख्य हैं। इसीलिए इन सभी द्रव्यों के स्थानीय नामों में प्राय: कचूर, शठी, तथा कपूरकचरी आदि नाम मिलते हैं, जो भ्रम पैदा करते हैं। निघंटुओं के शठी, कर्चुर, गंधपलाश, मुरा तथा एकांगी आदि नाम इन्हीं द्रव्यों के प्रतीत होते हैं।
आयुर्वेदिक गुण
आयुर्वेद में 'शटी' या शठी को कटु, तिक्त, उष्णवीर्य एवं मुख के वैरस्य, मल एवं दुर्गध को नष्ट करने वाली और वमन, कास-श्वास, शूल, हिक्का और ज्वर में उपयोगी माना गया है।
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