पारिजात पंचदश सर्ग

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पारिजात पंचदश सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली मुक्तक काव्य
सर्ग पंचदश सर्ग
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पारिजात -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल पंद्रह (15) सर्ग
पारिजात प्रथम सर्ग
पारिजात द्वितीय सर्ग
पारिजात तृतीय सर्ग
पारिजात चतुर्थ सर्ग
पारिजात पंचम सर्ग
पारिजात षष्ठ सर्ग
पारिजात सप्तम सर्ग
पारिजात अष्टम सर्ग
पारिजात नवम सर्ग
पारिजात दशम सर्ग
पारिजात एकादश सर्ग
पारिजात द्वादश सर्ग
पारिजात त्रयोदश सर्ग
पारिजात चतुर्दश सर्ग
पारिजात पंचदश सर्ग

परमानन्द

आनन्द-उद्बोध

(1)

गले लग-लगकर कलियों को।
खिला करके वह खिलता है।
नवल दल में दिखलाता है।
फूल में हँसता मिलता है॥1॥

अंक में उसको ले-लेकर।
ललित लतिका लहराती है।
छटाएँ दिखला विलसित बन।
बेलि उसको बेलमाती है॥2॥

पेड़ के पत्तो-पत्तो में।
पता उसका मिल पाता है॥
दिखाकर रंग-बिरंगापन।
फलों में रस भर जाता है॥3॥

हरित-तृण-राजिरंजिता हो।
उसे बहु व्यंजित करती है।
गोद में वसुधा की दबकी।
दूब उसका दम भरती है॥4॥

शस्य, श्यामल परिधन पहन।
मन्द आन्दोलित हो-होकर।
ललकते जन के लोचन में।
भाव उसके देता है भर॥5॥

वन, बहुत बन-ठनकर उसको।
पास बिठलाए रहता है।
बने रहकर उसका उपवन।
विकस हँस विलस निबहता है॥6॥

रुचिर रस से सिंचित हो-हो।
बड़े मीठे फल चखता है।
सविधिक आवाहन कर उसका।
वनस्पति निज पति रखता है॥7॥

रमण कर तृण के तरु तक में।
भाँव भव में भरता है।
सहज आनन्द भला किसको।
नहीं आनन्दित करता है॥8॥

(2)

जलधिक के नील कलेवर को।
सुनहला वसन पिन्हाता है।
दिवाकर का कर जब उसमें।
जागती ज्योति जगाता है॥1॥

जब छलकती बूँदें उसकी।
मंजु मोती बन जाती हैं।
जब सुधा-धावल बनाने को।
चाँदनी रातें आती हैं॥2॥

तब ललकते दृगवालों को।
कौन उल्लसित बनाता है।
कौन उमगे जन-मानस को।
बहु तरंगित कर पाता है॥3॥

सरस धाराएँ सरिता की।
सुनातीं अपना कल-कल रव।
मनाती हैं जब राका में।
दीप-माला-जैसा उत्सव॥4॥

नाचने लगती हैं लहरें।
चन्द्र-प्रतिबिम्बों को जब ले।
कौन तब उर-मन्दिर में आ।
बजाता है मंजुल तबले॥5॥

शरद में जब सर शोभित हो।
मानसरवर बन जाता है।
जब कमल-माला अलिमाला।
हँस-मालाएँ पाता है॥6॥

सलिल जब ले इनकी छाया।
ललित लीलामय बनता है।
कौन तब आ वितान अपना।
मुग्ध जन मन में तनता है॥7॥

उड़ा छीटे क्षिति-अंचल में।
कान्त मुक्तावलि भरता है।
किसी उत्साहित जन-जैसा।
उत्स जब उत्सव करता है॥8॥

मुकुर मंजुल गिरते जल में।
दिव्य दृश्यों को दर्शित कर।
उस समय दर्शक के उर में।
कौन ललकें देता है भर॥9॥

मिले सौन्दर्य मलय-मारुत।
कुसुम-कोरक-सा है खिलता।
कौन-सा है वह रम्य स्थल।
जहाँ आनन्द नहीं मिलता॥10॥

(3)

हिमाचल-जैसा गिरिवर जो।
गगन से बातें करता है।
उर-भवन में भावुक के जो।
भूरि भावों को भरता है॥1॥

लसित है जिसके अंचल में।
काश्मीरोपम रम्य स्थल।
जिसे अवलोके बनता है।
विमोहित वसुधा-अन्तस्तल॥2॥

दिवसमणि निज कर से जिसको।
मणि-खचित मुकुट पिन्हाता है।
नग-निकर से परिपूरित रह।
नगाधिकप जो कहलाता है॥3॥

देख कृति जिसकी क्षण-भर भी।
छटा है अलग नहीं होती।
जलद आलिंगन कर जिसपर।
बरसते रहते हैं मोती॥4॥

अंक में जिसके रस रख-रख।
सरसता-सोता बहता है।
वह किसे मानस-वारिधिक का।
कलानिधि करता रहता है॥5॥

ज्योति जग में भर देते हैं।
कलश जिनके रवि-बिम्बोपम।
सहज सौन्दर्य-विभव जिनको।
सिध्द करते हैं सुरपुर-सम॥6॥

पताका उड़-उड़ पावनता।
पता का पथ बतलाती है।
मधुर ध्वनि जिनके घंटों की।
ध्वनित हो मुदित बनाती है॥7॥

भावमय दृश्यों का दर्शन।
भक्ति-रति उर में भरता है।
शान्तिमय जिनका वातावरण।
प्रभावित चित को करता है॥8॥

लसित जिनमें दिखलाती है।
भव्यतम मूर्ति भावना की।
सत्यता शिवता से भरिता।
देवता की बाँकी झाँकी॥9॥

बहु सुमन महँक-महँक महँका।
जिन्हें महनीय बनाते हैं।
दिव्य वे देवालय किसको।
उर-गगन द्युमणि बनाते हैं॥10॥

रमा रमणीय करालंकृत।
कारु कार्यावलि कान्त निलय।
चारुतम चित्रों से चित्रिकत।
गगनचुम्बी नृप-मन्दिर-चय॥11॥

विविधताओं से परिपूरित।
विश्व-वैचित्रयों के सम्बल।
विपुल विद्यालय रंगालय।
उच्च दुर्गावलि रम्य स्थल॥12॥

मनोहर नगर नागरिक जन।
विपणि की वस्तु उत्तामोत्ताम।
धारा धनदों के सज्जित सदन।
दिव्य दूकानें नग निरुपम॥13॥

विविध अद्भुत विभूतियों से।
भव्यता से भूषित जल-थल।
बनाते रहते हैं किसको।
हृदय-सर का प्रफुल्ल उत्पल॥14॥

प्रकृति का है हँसमुख बालक।
आत्मसुख का अमूल्य सम्बल।
हास का है 'आनन्द'-जनक।
स्वर्ग-उपवन विकसित शतदल॥15॥

(4)

सहज अनुराग-राग से जब।
रंगिणी ऊषा भरती है।
पाँवड़े डाल लाल पट के।
अरुण स्वागत जब करती है॥1॥

विहँसती दिशा-सुन्दरी से।
गले मिल जब मुसकाती है।
स्वयं आरंजित होकर जब।
उसे रंजिता बनाती है॥2॥

जब दिवसमणि गगनांगण को।
बना मणिमय छवि पाता है।
धारा को किरणावलि-विरचित।
दिव्यतम वसन पिन्हाता है॥3॥

देख लुटते तारकचय को।
उन्हें अन्तर्हित करता है।
जगा जगती के जीवों को।
ज्योति जन-जन में भरता है॥4॥

प्रभा देकर प्रभात को जब।
प्रभासंयुत कर पाता है।
लोक को उल्लासों से तब।
कौन उल्लसित बनाता है॥5॥

लाल नीले पीले उजले।
जगमगाते नभ के ता।
किरण-मालाओं से बनते।
किसी ललके दृग के ता॥6॥

तिमिर में जगमग-जगमग कर।
ज्योति जो भरते रहते हैं।
जो सदा चुप रह-रहकर भी।
न जाने क्या-क्या कहते हैं॥7॥

मोहते हुए मनों को जब।
दिखाते हैं वे छवि न्यारी।
कौन तब देता है दिखला।
दृगों को फूली फुलवारी॥8॥

कलानिधि मंद-मंद हँसकर।
जब कलाएँ दिखलाता है।
जिस समय राका-रजनी को।
चूमकर गले लगाता है॥9॥

चाँदनी छिटक-छिटककर जब।
धारा को सुधा पिलाती है।
रजकणों का चुम्बन कर जब।
उन्हें रजताभ बनाती है॥10॥

नवल श्यामलतन नीरद जब।
गगनतल में घिर आते हैं।
पुरन्दर-धानु से हो विलसित।
जब बड़ी छटा दिखाते हैं॥11॥

दामिनी दमक-दमक थोड़ा।
छटा क्षिति पर छिटकाती-सी।
अंक में नव जलधार के जब।
दिखाती है मुसुकाती-सी॥12॥

किनारों पर उन जलदों के।
श्यामता है जिनकी विकसित।
अस्त होते रवि की किरणें।
लगाती हैं जब लैस ललित॥13॥

गगनतल को उद्भासित कर।
चमकते हैं जब उल्काचय।
कौन तब इन बहु दृश्यों से।
बनाता है महि को मुदमय॥14॥

मुग्धता का सुन्दर साधन।
विविध भावों का अभिनन्दन।
सुखों का है आनन्द सुहृद।
विकासों का है नन्दनवन॥15॥

(5)

मुग्धता जन-मानस में भर।
बहु कलाएँ दिखलाता है।
बैठ कोकिल-कुल-कंठों में।
कौन काकली सुनाता है॥1॥

चहकती ही वह रह जाती।
नहीं चाहत उसको छूती।
मिले किसका बल तूती की।
बोलती रहती है तूती॥2॥

पपीहा पी-पी कहता है।
प्यारे से भरा दिखाता है।
गले से किसके गला मिला।
गीत उन्मादक गाता है॥3॥

कान में सुननेवालों के।
सुधा-बूँदें टपकाता है।
सारिका के सुन्दर स्वर को।
बहु सरस कौन बनाता है॥4॥

लोक-हितकारक शब्दों को।
आप रट उन्हें रटाता है।
शुकों के कोमल कंठों को।
कौन प्रिय पाठ पढ़ाता है॥5॥

लोक के ललचे लोचन को।
बहु-विलोचनता भाती है।
मोर के मंजुल नर्त्तन में।
कला किसकी दिखलाती है॥6॥

मत्तता में गति में रव में।
रमण कर मोहित करता है।
कपोतों की सुन्दरता में।
कौन मोहकता भरता है॥7॥

खगों के कलरव में जब में।
रंग-रूपों में है खिलता।
पंख छवि में रोमावलि में।
कहाँ आनन्द नहीं मिलता॥8॥

(6)

विपंची के वर वादन में।
ध्वनित किसकी ध्वनि होती है।
तानपूरों की कोर-कसर।
कान्तता किसकी खोती है॥1॥

बज रही सारंगी-स्वर में।
रंग किसका दिखलाता है।
सितारों के तारों में भी।
तार किसका लग पाता है॥2॥

मृदंगों की मृदंगता में।
मन्द्ररव किसका सुनते हैं।
धुनों में किसकी धुन पाकर।
लोग अपना सिर धुनते हैं॥3॥

थाप में बजते तबलों की।
प्रबलता किसकी पाते हैं।
बोल तब कौन सुनाता है।
लोग जब ढोल बजाते हैं॥4॥

मुरलिका के मृदुतम रव में।
माधुरी कौन मिलाता है।
सुने शहनाई कानों को।
सुधा-रस कौन पिलाता है॥5॥

मँजीरा मँजे करों में पड़।
मंजुता किससे पाता है।
सकल करतालों को रुचिकर।
ताल दे कौन बनाता है॥6॥

न संगत होने पर किसकी।
गतों की गत बन जाती है।
बिना पाये किसकी कलता।
लय नहीं लय कहलाती है॥7॥

राग-रागिनियों में किसका।
भरा अनुराग दिखाता है।
गीत-संगीतों में किसका।
गौरवित गान सुनाता है॥8॥

मनोमोहक आलापों में।
कौन आलापित होता है।
कान्त कंठों में किसका कर।
बीज पटुता का बोता है॥9॥

बनाता है वादन को प्रिय।
गान को करता है रसमय।
धुनों का धन स्वर का सम्बल।
लयों का है आनन्द-निलय॥10॥

(7)

बालकों की तुतली बोली।
कमल-सा कोमल कान्त वदन।
बड़ी भोली-भाली आँखें।
मोतियों-से कमनीय रदन॥1॥

बहँकना मुँह लटका लेना।
ललकना उनका मुसकाना।
मचलना ठुमुक-ठुमुक चलना।
फूल-जैसा ही खिल जाना॥2॥

सुने देखे मानव किसकी।
याद करता है वह लीला।
सकल भव में जो है व्यापित।
बन महा अनुरंजन-शीला॥3॥

कामिनी के उस मृदु मुख में।
कहा जो गया कलाधर-सा।
रस बरस जाने से जिसके।
सरस होती रहती है रसा॥4॥

लोच-लालित उस लोचन में।
भरी है जिसमें रोचकता।
प्रेम-जलबिन्दु झलकते हैं।
जहाँ वैसे जैसे मुक्ता॥5॥

अधर पर लसी उस हँसी में।
सुधा जो वसुधातल की है।
जिसे देखे पिपासिता बन।
लालसा सब दिन ललकी है॥6॥

उन ललित हावों-भावों में।
केलियों में जिनकी कलता।
मोहती किसे नहीं, मनसिज।
पा जिसे भव को है छलता॥7॥

उन विविध परिहासादिक में।
मुदित चित जिससे है खिलता।
कला किसकी दिखलाती है।
कौन है रमा हुआ मिलता॥8॥

मानवों के प्रफुल्ल मुख पर।
छटा किसकी दिखलाती है।
वीर-हृदयों की वरता में।
भूति किसकी छवि पाती है॥9॥

कौन करुणाद्रव बूँदों में।
झलकता पाया जाता है।
हास्य-रस के सर्वस्वों में।
कौन हँसता दिखलाता है॥10॥

जुगुप्सा की लिप्साओं में।
कौन शुचि रुचि से रहता है।
कौन बहु शान्तभूत चित में।
शान्तिधारा बन बहता है॥11॥

बहु गरलता से बचने की।
सती की-सी गति-मति सिखला।
कौन बनता है महिमामय।
रुद्रता में शिवता दिखला॥12॥

देख थर-थर कँपते नर को।
परम पाता-पद लेता है।
कौन भय-भरित मानसों को।
अभयता का वर देता है॥13॥

विचित्र-चरित्रा चरित्रों को।
सुचित्रिकत कर चमकाता है।
कौन अद्भुतकर्मा नर के।
अद्भुतों का निर्माता है॥14॥

विविध भावों का है वैभव।
विभावों का है आलम्बन।
रसों का है आनन्द-रसन।
रसिक जन का है जीवन-धन॥15॥

(8)

बताता है किसको बहु दिव्य।
कपोलों पर का कलिताभास।
प्रकट करता है किसकी भूति।
सरस मानस का मधुर विकास॥1॥

दृगों में भरकर कोमल कान्ति।
वदन को देकर दिव्य विकास।
किसे कहता है बहु कमनीय।
अधर पर विलसित मंजुल हास॥2॥

जगाकर कितने सुन्दर भाव।
भगाकर कितने मानस-रोग।
हुए उन्मुक्त कौन-सा द्वार।
खिलखिलाने लगते हैं लोग॥3॥

दामिनी-सी बन दमक-निकेत।
सरसता-लसिता सिता-समान।
कढ़ी किससे पढ़ मोहनमन्त्रा।
मधुरिमामयी मंजु मुसकान॥4॥

बना बहु भावों को उत्फुल्ल।
कर भुवन भावुकता की पूत्तिक।
बढ़ाती है किसकी कल कीत्तिक।
मनोहर प्रसन्नता की मुर्ति॥5॥

बन विविध केलि-कला-सम्पन्न।
विमोहक सकल विलास-निवास।
विदित करता है किसकी वृत्तिक।
किसी अन्तस्तल का उल्लास॥6॥

चित्त को बहु चावों के साथ।
बनाता रहता है हिन्दोल।
किस समुद्वेलित निधिकसंभूत।
चपलतम अट्टहास-कल्लोल॥7॥

विकच बन वारिज-वृन्द-समान।
दे भुवन-अलि को मोद-मरन्द।
मुग्ध करता है रच बहु रूप।
लोक-उर अभिनन्दन आनन्द॥8॥

(9) कलुषित आनन्द

हैं बहुत ही उमंग में आते।
नाचते-कूदते दिखाते हैं।
वैरियों का विनाश अवलोके।
लोग फूले नहीं समाते हैं॥1॥

कम नहीं लोग हैं मिले ऐसे।
मौज जिनको रही बहुत भाती।
और की देखकर हँसी होते।
है हँसी-पर-हँसी जिन्हें आती॥2॥

वे लगे आसमान पर चढ़ने।
जो रहे राह के बने तिनके।
और को पाँव से मसल करके।
पाँव सीधो पड़े कहाँ किनके॥3॥

काल-इतिहास बन्द ताले में।
देख लो ख्याति की लगा ताली।
कर लहू और पान कर लोहू।
क्या न मुँह की रखी गयी लाली॥4॥

काटकर लाख-लाख लोगों को।
जय-फ गये उड़ाये हैं।
छीनकर राज छेद छाती को।
बहु महोत्सव गये मनाए हैं॥5॥

लाल भू-अंक को लहू से कर।
बहु कलेजे गये निकाले हैं।
मोद से मत्त हो बजा बाजे।
सिर कतरकर गये उछाले हैं॥6॥

आ चुके हैं अनेक ऐसे दिन।
जब नृमणि बिधा गया बिलल्ले-से।
मच गयी धूम जब बधाई की।
जब बजीं नौबतें धाड़ल्ले से॥7॥

क्यों बताए महाकुकर्मों ने।
लोक का है अहित किया जितना।
आह! आनन्द से महत्ताम में।
किस तरह भर गया कलुष इतना॥8॥

(10)

दौड़कर नहीं उठाते क्यों।
क्यों मनुजता को ठगते हैं।
देख फिसले को गिर जाते।
लोग क्यों हँसने लगते हैं॥1॥

फाँसकर निज पंजे में क्यों।
शिकंजे में चाहे कसना।
क मतिमंद किसी को क्यों।
किसी का मंद-मंद हँसना॥2॥

व्यंग्य से भरा हुआ क्यों हो।
मौन रह क्यों मा ताना।
बने क्यों गरल तरल धारा।
किसी का मानस मुसकाना॥3॥

अपटुता-पुट मृदुता में दे।
हृदय में क्यों कटुता भर दे।
द्रास नर-सद्भावों का क्यों।
किसी का अट्टहास कर दे॥4॥

मुँह खुला जो न सुगंधिकत बन।
किसी से हिले-मिले तो क्या।
रज-भरा जो है मानस में।
फूल की तरह खिले तो क्या॥5॥

लोकरंजन करनेवाली।
चाँदनी जो न छिटक पाई।
किसलिए हृदय हुआ विकसित।
हँसी क्यों होठों पर आयी॥6॥

मलिन हो पड़ा कीच में है।
परम उज्ज्वल पावन सोना।
बन गया जो विलसितामय।
किसी का सउल्लास होना॥7॥

विफल कर जीवन औरों का।
मिलेगी उसे सफलता क्यों।
जो नहीं फूल बरसती है।
कहें उसको प्रफुल्लता क्यों॥8॥

बना अवसन्न दूसरों को।
जो अहितरता अवनता है।
नहीं है जो प्रसन्न करती।
तो कहाँ वह प्रसन्नता है॥9॥

नहीं है जिसमें मधुमयता।
बना जो कटुता-अनुमोदक।
नहीं है जो है प्रमोद देता।
मोद तो कैसे है मोदक॥10॥

किसी उत्फुल्ल सरोरुह-सा।
हृदय को नहीं खिलाता जो।
कहें उसको विनोद कैसे।
विनोदित नहीं बनाता जो॥11॥

कलह को जो अंकुरित बना।
बचाये मुँह जैसे-तैसे।
बीज बो दे विवाद का जो।
कहें आमोद उसे कैसे॥12॥

वह नहीं हँसा सका जिसको।
उसे फिर कौन हँसायेगा।
विषादित बना दूसरों को।
हर्ष क्यों हर्ष कहायेगा॥13॥

सहज हो सुन्दर हो जिसमें।
कलुष का लेश नहीं होता।
वही आनन्द कहाता है।
बहाये जो रस का सोता॥14॥

(11)

मिले कितने ऐसे जिनकी
जीभ कटु कह है रस पाती।
सुने पर-निन्दा कानों में।
है सुधा-बूँद टपक जाती॥1॥

गालियाँ बक-बक कर कितने।
परम पुलकित दिखलाते हैं।
बुराई कर-कर औरों की।
कई फूले न समाते हैं॥2॥

बला में डाल-डाल कितने।
बजाने लगते हैं ताली।
छीन लेते हैं हँस कितने।
पड़ोसी की परसी थाली॥3॥

लूट ले-लेकर अन्यों को।
किसी को मिलती है थाती।
पीस पिसते को बनती है।
किसी की गज-भर की छाती॥4॥

चहकते फिरते हैं कितने।
बने परकीया के प्यारे।
लोप कर अन्य कीत्तिक कितने।
तोड़ते हैं नभ के ता॥5॥

तोड़कर दाँत दूसरों का।
किसी के दाँत निकलते हैं।
उछलने लगते हैं कितने।
जब किसी को वे छलते हैं॥6॥

चोट पहुँचा-पहुँचा कितने।
काम चोरी का करते हैं।
बहुत हैं ह-भ बनते।
जब किसी का कुछ हरते हैं॥7॥

लुभा ललनाओं को कितने।
बहँक बनते हैं छविशाली।
जाल में फाँस युवतियों को।
बचाते हैं मुँह की लाली॥8॥

मोहते रहते हैं कितने।
मोह से हो-हो मतवाले।
छलकते प्यारेले बनते हैं।
छातियों में छाले डाले॥9॥

काम-मोहादि प्रपंचों सें
वासनाओं से हो बाधिकत।
प्रायश: होता रहता है।
मनुज आनन्द महाकलुषित॥10॥

(12) परमानन्द

सत्य ही है जिसका सर्वस्व।
धर्ममय है जिसका संसार।
ज्ञानगत है जिसका विज्ञान।
रुचिरतम है जिसका आचार॥1॥

जिसे सच्चा है तत्तव-विवेक।
शुध्द है जिसका सर्व विचार।
लोकप्रिय है जिसका सत्कर्म।
प्रेम का जो है पारावार॥2॥

भूतहित से हो-हो अभिभूत।
भूतिमय है जिसकी भवभक्ति।
जिसे है करती सदा विमुग्ध।
मनुजता की महती अनुरक्ति॥3॥

जो समझ पाता है यह मर्म।
सत्य-प्रेमी हैं सब मत पंथ।
एक है सार्वभौम सिध्दान्त।
मान्य हैं सर्व धर्म के ग्रंथ॥4॥

देश को कहते हुए स्वदेश।
जिसे है सब देशों से प्यारे।
सगे हैं जिसके मानव मात्रा।
सदन है जिसका सब संसार॥5॥

ललित लौकिकता में अवलोक।
अलौकिकता की व्यापक पूत्तिक।
मानता है जो हो-हो मुग्ध।
विश्व को विश्वात्मा की मुर्त्ति॥6॥

भरी है भव में जो सर्वत्र।
ज्ञान-अर्जन की सहज विभूति।
देख उसको जिसकी वर दृष्टि।
लाभ करती है प्रिय अनुभूति॥7॥

जो कलुष का करता है त्याग।
सताता जिसे नहीं है द्वन्द्व॥
जिसे उद्बोधा-मर्म है ज्ञात।
वही पाता है परमानन्द॥8॥

(13)

दिव-विभा की विभूतियों में जो।
है सदा उस दिवेन्द्र को पाता।
जिस किरीट-किरीट-मणियों का।
एक मणि है द्युमणि कहा जाता॥1॥

देखता है विमुग्ध हो-हो जो।
व्योम के दिव्यतम कतारों को।
विभु महाअब्धिक-अंक में विलसे।
बुद्बुदोपम अनन्त तारों को॥2॥

दृष्टि में है बसी हुई जिसकी।
लालिमा उस ललामतामय की।
लोक की रंजिनी ऊषा जिससे।
पा सकी सिध्दियाँ स्वआलय की॥3॥

है प्रभावित हुआ हृदय जिसका।
उस प्रभावान की प्रभा द्वारा।
पा रही है विभूतियाँ जिससे।
भा-भरी व्योम-सुरसरी-धारा॥4॥

हैं सके देख दिव्य दृग जिसके।
वह महत्ता महान सत्ता की।
प्रीतिमय हो प्रसादिका जो है।
सृष्टि के एक-एक पत्ता की॥5॥

चित्त है यह बता रहा जिसका।
लोकपति की विचित्र लीला है।
है धात्री
उडुगणागार व्योम नीला है॥6॥

है यही सोचती है सुमति जिसकी।
मूल में है महान मौलिकता।
कल्पना है अकल्पना बनती।
लोक में है भरी अलौकिकता॥7॥

ब्रह्म की उस ललित कला को जो।
है लसी लोक-मध्य बन सुखकन्द।
देख पाया प्रफुल्ल हो जिसने।
क्यों मिलेगा उसे न परमानन्द॥8॥

(14)

निरवलम्बों का हो अवलम्ब।
व्यथाएँ कर व्यथितों की दूर।
तिमिर-परिपूरित चित्त-निमित्त।
सदा बन-बन सहस्रकर सूर॥1॥

वैरियों से कर कभी न वैर।
अहित-हित-रत रह-रह सब काल।
विलोके विपुल विभुक्षित-वृन्द।
समर्पण कर व्यंजन का थाल॥2॥

सदयता सहानुभूति-समेत।
दुर्जनों को दे समुचित दंड।
दलन कर वर विवेक के साथ।
पतित पाषण्डी-जन पाषण्ड॥3॥

मानकर उचित बात सर्वत्र।
दानकर सबको वास्तव स्वत्व।
छोड़कर दंभ-द्रोह-दुर्वृत्तिक।
त्याग कर स्वार्थ-निकेत निजत्व॥4॥

छोड़ हिंसा-प्रतिहिंसा-भाव।
दूर कर मानस-सकल-विकार।
नीति-पथ पर हो दृढ़ आरूढ़।
त्याग कर सारा अत्याचार॥5॥

हो दलित-मानस-लौह-निमित्त।
मंजुतम पारस तुल्य महान।
किये कंगालों का कल्याण।
अकिंचन को कर कंचन-दान॥6॥

महँक की मोहकता अवलोक।
सच्चरित-सुमनों से कर प्यारे।
प्रकृति के कान्त गले में डाल।
शील-मुक्तामणि मंजुल हार॥7॥

कर कुटिल-हृदय-हृदय को कान्त।
मन्द मानस को कर सुखकन्द।
लोक-कण्टक को विरच प्रसून।
सुजन पाता है परमानन्द॥8॥

(15)

मनन कर सादर सत्साहित्य।
सुने लोकोत्तर कविता-पाठ।
किसी वांछित कर से तत्काल।
खुले जी की चिरकालिक गाँठ॥1॥

विषय का होवे मर्मस्पर्श।
भरा हो जिसमें अनुभव-मर्म।
ललित भावों में हो तल्लीन।
किये कल-कौशलमय कवि-कर्म॥2॥

धर्म ममता शुचिता सद्भाव।
सदाशयता हों जिसके अंग।
सुने वह विबुध-कंठसंभूत।
मधुरतम पावन कथा-प्रसंग॥3॥

लोक-परलोक-दिव्य-आलोक।
लसित, जिसका हो धर्म-प्रसंग।
सर्वहित हो जिसका सर्वस्व।
किए ऐसा पुनीत सत्संग॥4॥

सरसतम स्वर-लय-ताल-समेत।
सुधारस-सिक्त कण्ठ से गीत।
लोकहित, भवरति, भाव-उपेत।
सुने रसमय स्वर्गिक संगीत॥5॥

निगम का महा अगम झंकार।
आगमों का कमनीय निनाद।
श्रवण कर बड़े प्रेम के साथ।
उपनिषद का अनुपम संवाद॥6॥

लगा आसन, समाधिक में बैठ।
कर्णगत हुए अनाहत नाद।
विलोके वांछनीय विभर्मूर्ति।
कर अलौकिक रस का आस्वाद॥7॥

हृदय में बहती है रसधार।
दिव्य बनता है मानस-द्वन्द्व।
विवृत हो जाते हैं युग नेत्र।
मनुज पाता है परमानन्द॥8॥

(16) शार्दूल-विक्रीडित

हैं सेवा करती प्रसन्न मन से होते समुत्सन्न की।
पोंछा हैं करती प्रफुल्ल चित से आँसू व्यथाग्रस्त का।
जाती हैं वन पोत पूत रुचि से दु:खाब्धिक में मग्न का।
पूर्णानन्द-निकेतन प्रकृति की हैं सात्तिवकी वृत्तिकयाँ॥1॥

प्यासे को जल दे, विपन्न जन को आपत्तिकयों से बचा।
चिन्ताएँ कर दूर चिन्तित जनों की चिन्त्य आदर्श से।
बाधाएँ कर धवस्त व्यस्त जन की संत्रास्त को त्राकण दे।
होती है सुखिता सदा सदयता हो पूर्ण आनन्दिता॥2॥

हो राका-रजनी-समान रुचिरा हो कीत्तिक से कीत्तिकता।
हो सत्कर्म-परायणा सहृदया हो शान्ति से पूरिता।
हो सेवा-निरता उदारचरिता हो लोक-सम्मानिता।
होती हैं अभिनन्दिता सुकृतियाँ हो भूरि आनन्दिता॥3॥

पाता है वह सत्य का, पतित को है पूत देता बना।
पाते हैं उसको सचेत उसमें है पूत्तिक चैतन्य की।
है उध्दारक धर्म का सतत है सत्कर्म का संग्रही।
है आनन्द-निधन मूर्ति भव में श्रीसच्चिदानन्द की॥4॥

चाहे हो रवि सोम शुक्र अथवा हो व्योम-तारावली।
चाहे हों ललिता लता-तृण ह उत्फुल्ल वृक्षावली।
चाहे हों भव भव्य दृश्य सबकी देखे महादिव्यता।
क्यों आनन्द विभोर हो न वह जो आनन्दसर्वस्व है॥5॥

चाहे हो नभ नीलिमा-निलय या भू शस्य से श्यामला।
चाहे हो वन हरी भूमि अथवा हो वृक्ष रम्य स्थली।
पाता है वह प्रेमदेव-विभुता की व्यंजना विश्व में।
पूर्णानंद मिला कहाँ न उसको जो प्रेमसर्वस्व है॥6॥

है विज्ञात मनोज्ञ मानसर के कान्तांबुजों की कथा।
देखा है खिलना गुलाब-कुल का नीपादि का फूलना।
जानी है कुसुमावली-विकचता आम्रादि की हृष्टता।
होती है अतुला प्रफुल्ल चित की आनन्द-उत्फुल्लता॥7॥

भू पाये ऋतु-कान्त-कान्ति उतनी होती नहीं मोदिता।
होता व्योम नहीं प्रसन्न उतना पा शारदी पूर्णिमा।
देखे दिव्यतमा विभूति भव की पा वृत्तिक सर्वोत्तामा।
होती है जितनी विमुग्ध मन को आनन्द-उन्मत्ताता॥8॥

देती है भर भाव में सरसता कान्तोक्ति में मुग्धता।
खोती है तमतोम लोक-उर का आलोक-माला दिखा।
कानों में चित में विमुग्ध मन में है ढाल पाती सुधा।
हो दिव्या सविता-समान कविता देती महानन्द है॥9॥

लाती है चुन फूल को सुकरता से नन्दनोद्यान से।
लेती है फल कल्प से सुरगवी को है सदा दूहती।
दे-देके तम को प्रकाश, भरती है भाव में भव्यता।
हो दिव्या दिव भासमान प्रतिभा पाती महानन्द है॥10॥

पाते जीवन हैं प्रफुल्ल बनके सद्भाव-पौधे सदा।
होती है सरसा प्रवृत्तिक-लतिका हो सर्वथा सिंचिता।
है सिक्ता बनती सुचारु रुचि हो दूर्वा-समा शोभना।
प्राणी के उर-भूमिमध्य महती आनन्द-धारा बहे॥11॥

नाना प्राणिसमूह पोषणरता है मेघमाला-समा।
है वैसी रस-दायिका सकल को जैसी की देवापगा।
पाते हैं सुख-साधिकका शरद् की शान्ता सिता-सी उसे।
हो जाती है मति है महान-हृदया आनन्दमग्ना बने॥12॥

झाँकी है उसकी कहाँ न, झुकके औ' झाँकके देख लो।
है होती रहती दिशा मुखरिता र्सत्कीत्तिक-आलाप से।
है नाचा करती विभूति विभु की द्रष्टा-दृगों में सदा।
है आनन्द निमग्नभूत जन को आनन्दमग्ना मही॥13॥

प्यारा है जितना स्वदेश उतना है प्राण प्यारा नहीं।
प्यारी है उतनी न कीत्तिक जितनी उध्दार की कामना।
उत्सर्गीकृत मातृभूमि पर जो सन्तान है, धान्य है।
पाता है वह महानन्द बनता जो त्यागसर्वस्व है॥14॥

जो है मूर्ति विवेक की, प्रगति है जो ज्ञान-विज्ञान की।
जो है सर्वजनोपकार-निरता प्रज्ञामयी मुक्तिदा।
जो है प्रेमपरायणा, मनुजतासर्वस्व, सत्यप्रिया।
है विद्या वह महानन्द-जननी, शुध्दा, परासंज्ञका॥15॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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