"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट अप्रॅल 2015" के अवतरणों में अंतर

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13:40, 3 जून 2015 का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
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 मैं गुम हूँ
तो गुम हो
तुम भी

लेकिन मैं तुम में
और शायद
तुम और कहीं

मैं तो हूँ तुम में
क्या तुम भी?

कभी ख़याल
कभी सपना
तो कभी यूँ ही
इन्हीं के साथ
शामिल हो
मेरे ज़ेहन में
तुम ही

किसी और
शायर की ग़ज़ल
के मक़्ते में
तलाशते तुम नाम मेरा

ये कौन सी आवाज़
की कशिश तुम्हें खींचे है
दूर मुझसे…

अरे ब्रूटस!
तुम भी…

Main-Gum-Hoon-Aditya-Chaudhary.jpg
14 अप्रॅल, 2015

राही मासूम रज़ा साहब को उन उम्दा शख़्सियतों की फ़ेरहिस्त में ऊँचा मक़ाम हासिल है जो मज़हब, ज़ात और मुल्क़ों की सरहदों से नाइत्तफ़ाक़ी रखते है। यूँ तो रज़ा साहब की जादुई क़लम का बेजोड़ फ़न मुझे हमेशा ही करिश्माई लगा है लेकिन उनका उपन्यास आधागाँव मुझे बेहद पसंद है। टीवी धारावाहिक ‘महाभारत’ को बेहतरीन रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय भी रज़ा साहब को जाता है।

भारत-विभाजन ने रज़ा साहब को परम वेदना से भर दिया था। यह वेदना और क्षोभ उनकी रचनाओं में पाठक के मन को हिला देता है। प्रस्तुत है उनकी एक रचना… इसे पढ़ते-पढ़ते आँसुओं को रोकना बहुत मुश्किल हो जाता है। बहुत से शब्दों के अर्थ समझ में नहीं आते लेकिन फिर भी रचना का प्रभाव कम नहीं होता। कुछ शब्दों के अर्थ नीचे दिए गए हैं।
आभार: वाणी प्रकाशन, © नैयर जहाँ राही

'ऐ अजनबी'

ये है हिंदोस्ताँ की मुक़द्दस ज़मीं
जैसे मेले में तन्हा कोई नाज़नीं
सिज्द: हा-ए-ग़ुलामी से ज़ख़्मी जबीं
एक कुह्न: गिरीबाँ फटी आस्तीं

एक घर, जिसमें हंगाम: आबाद है
इक नशेमन, जो सदियों से बर्बाद है

ये कुतुब, जैसे इक तान ऊपर उठे
ताज, जिस तर्ह रक़्क़ास: दम साध ले
ये बनारस के मन्दिर, जवाँ वलवले
जैसे मे’मार के ख़्वाब पूरे हुए

ज़िन्दगी को उभरना सिखाया गया
पत्थरों को अजन्ता बनाया गया

कालिदास और टैगोर का ये चमन
मीर-ओ-ग़ालिब और इक़बाल का ये वतन
एशिया के हसीं जिस्म का पैरहन
रश्क-ए-सदमयकदा था ये दारुल मिहन

किसने इस शम्अ से लौ लगाई नहीं
कितने अश्कों से वाक़िफ़ है ये आस्तीं

जबसे अँग्रेज़ों का इसमें आया क़दम
ज़िन्दगी बन गई एक शाइर का ग़म
अजनबी जाफ़र-ए-अह्रमन की क़सम
इक तवाइफ़ का घर बन गया ये हरम

रात बढ़ती गई, दाम लगता गया
हीर-राँझा बिके, शाह वारिस बिका

इश्क़ की ख़ामुशी का तकल्लुम बिका
और नज़र से नज़र का तसादुम बिका
और पतिंगों का ज़ौक़-ए-तरन्नुम बिका
आदमीयत का तर्ज़-ए-तबस्सुम बिका

वेद-ओ-क़ुर्आन बाज़ार में आ गए
और हम सरहद-ए-दार में आ गए

मुल्क की सन्अतों के अँगूठे कटे
शह्र टूटे हुए ख़्वाब बनते गए
नर्म देहातों पर बोझ ऐसे पड़े
खेतियों के कलेजे धड़कने लगे

धान की गुदगुदी काँपकर रह गई
जौ की संजीदगी हाँपकर रह गई

धान बोया गया और बनिये उगे
गेहूँ छींटा गया और झूके उगे
खेत सींचा गया और शोले उगे
कुछ मुँडेरें उगीं, चंद झगड़े उगे

रौशनी राह में छूटकर रह गई
गाँव की ज़िन्दगी टूटकर रह गई

मान्चेस्टर में ढाके को फाँसी मिली
और बनारस की सन्अत को नींद आ गई
शाहराहों पे शेफ़िल्ड की हर छुरी
हिन्दी तलवार पर मुस्कुराने लगी

इत्र को फ़्राँस की शीशियाँ खा गईं
शहद को ज़ह्र की मक्खियाँ खा गईं

और आसाम के खेतों की बेटियाँ
और आसाम की चाय की पत्तियाँ
वो सियाही के आग़ोश में सुर्ख़ियाँ
वो अँधेरे के पर्दे में चिनगारियाँ

अपनी इस्मत का पिंदार खोती रहीं
गोरे हाथों से नीलाम होती रहीं

बम्बई और कलकत्ता के नारियल
और कश्मीर के वो तर-ओ-ताज़: फल
कितने पाक़ीज़: थे और कितने सजल
रस की हर बूँद थी जैसे गंगा का जल

जैसे अंगूर का बाँकपन मर गया
आख़रोटों का हुस्न-ए-शिकन मर गया

ग़द्र की हर रवायत मिटायी गई
टीपुओं की कहानी भुलायी गई
एक तारीख़ लंदन से लायी गई
एक कजलायी शम्अ जलायी गई

कश्मकश का भी दूस्तूर पैदा हुआ
कारख़ानों से मज़दूर पैदा हुआ

मुल्क की चाँदी ने एक अँगड़ायी ली
जुगनुओं की कुमुक पर सहर लड़ पड़ी
दोनों हाथों के टक्कर से ताली बजी
सन् बयालीस तक दास्ताँ आ गई

कुछ धमाके हुए और सकूँ हो गया
तेज़ तूफ़ान भी सरनिगूँ हो गया

दूसरी जंग से चौधरी थक गए
और जनता के तेवर भी कुछ और थे
राहबर भी तिजारत पे राज़ी हुए
काले बाज़ार में दाम लगने लगे

कुछ मिशन आए मश्क़-ए-मुहब्बत हुई
कुछ शिकायत हुई, कुछ तिजारत हुई

और नतीजे में हिन्दोस्ताँ बँट गया
ये ज़मीं बँट गई, आस्माँ बँट गया
शाख़-ए-गुल बँट गई, आशियाँ बँट गया
तर्ज़-ए-तहरीर, तर्ज-ए-बयाँ बँट गया

हमने सोचा कि वो ख़्वाब ही और था
अब जो देखा तो पंजाब ही और था

कितनी बहनों की मीठी निगाहें लुटीं
प्यार की छाँव, नज़रों की राहें लुटीं
कितनी ऊषाओं की गहरी आँखें लुटीं
महजबीनों की वो गर्म बाँहें लुटीं

आस कच्चे घड़े की तरह बह गई
सोहनी बीच तूफ़ान में रह गई

पाँच दरियाओं का गीत जलने लगा
और कोह-ए-हिमाला का सर झुक गया
इस्मत-ए-ज़िन्दगी पर कड़ा वक़्त था
और तमद्दुन खड़ा सोचता ही रहा

कृश्न के देश में कोई राधा न थी
राम के देश में कोई सीता न थी

हीर सड़कों पे नंगी फिराई गई
ज़ख़्मी छाती से महफ़िल सजाई गई
रावी में हर रिवायत बहायी गई
दोनों हाथों से ग़ैरत लुटाई गई

कुछ लुटेरे बड़े आदमी बन गए
और हम घर में शरनार्थी बन गए

औरतें सरहदों की तरफ़ चल पड़ीं
कोई झिझकी कहीं, कोई रोयी कहीं
नाक की कील सर की रिदा भी नहीं
जूतियाँ घर की दहलीज़ पर रह गईं

आगरा रात की तर्ह सुनसान था
ताज का हुस्न संजीद:, हैरान था

सारे जिन्द: मुक़ामात थे मुज़्महिल
ज़िन्दगी मुज़्महिल, शाहराहें ख़जिल
बन्द बाज़ारों में टूट जाता था दिल
हर पलक पर लरज़ती थी पत्थर की सिल

जामा मस्जिद में अल्लाह की ज़ात थी
चाँदनी चौक में रात-ही-रात थी

आलुओं की तरह सर कटे हैं यहाँ
रास्तों पर उफ़ुक़ से उफ़ुक़ तक निशाँ
कितनी रगड़ी गई हैं यहाँ एड़ियाँ
ये है हिन्दोस्ताँ यानी जन्नत निशाँ

एक कार-ए-नुमाया हुआ है यहाँ
घर जलाकर चराग़ाँ हुआ है यहाँ

हम तो समझे थे आज़ाद होगा वतन
बंद हो जाएगा बाव-ए-दार-ओ-रसन
अपने फूलों से महकेगा अपना चमन
अब ग़ज़ालों से आबाद होगा खुतन

इश्क़ की आँख नम हम न देखेंगे अब
महजबीं को बनारस न भेजेंगे अब

गाँव वीरान हैं, शहर बर्बाद हैं
हम तो बेघर हुए ग़ैर आबाद हैं
कल जो थे शादमाँ आज भी शाद हैं
सिर्फ़ दिक़ के जरासीम आज़ाद हैं

जैसे रेशम की कीड़े की वारफ़्तगी
रोटी कितना हसीं लफ़्ज़ है अजनबी

अजनबी हमने नाहक़ चराग़ाँ किया
अब भी आँख दिखाता है हर क़ुम्कुमा
अब भी ख़ून-ए-शहीदाँ से तर रास्ता
अब भी क़ानून दुश्मन है सुक़रात का

अब भी उठते हुए सर पे तलवार है
अब भी मंसूर के वास्ते दार है

सबको पहचान लें और लुटा भी करें
पेट रोता रहे और हँसा भी करें
ज़ख्म खाते रहें और दुआ भी करें
सोख़्त:तन पतिंगे वफ़ा भी करें

हमको हूरें नहीं, हमनशीं चाहिए
हमको जन्नत नहीं, ये ज़मीं चाहिए

हर क़दम अज़्मत-ए-कुश्तगाँ की तरफ़
हर क़दम ज़ज़्ब:-ए-कामराँ की तरफ़
हर क़दम मज़िल-ए-कारवाँ की तरफ़
हर क़दम इन्क़िलाब-ए-जहाँ की तरफ़

रौशनी आगे बढ़ती चली जाएगी
ज़िन्दगी आगे बढ़ती चली जाएगी

_______________

कुह्‌न: = पुराना । रक़्क़ास: = नर्तकी । मे’मार = इमारत बनाने वाले । दारुलमिहन = दु:ख का स्थान अर्थात संसार । जाफ़र = चौदह इमामों में से एक । अह्‌रमन = ईरान के आतशपरस्तों के मतानुसार बदी का ख़ुदा । हरम = ख़ुदा का घर । तकल्लुम = बातचीत । तसादुग = टक्कर । ज़ौक़ = रुचि । दार = सूली, फाँसी। सन्‌अत = कला। पिंदार = अभिमान । तमद्दुन = मिल-जुलकर रहने का तरीक़ा,संस्कृति । रिदा = चादर, ओढ़नी । हुज़्न = दु:ख, शोक । मुज़्महिल = क्लान्त, अफ़्सुर्द: । ख़जिल = शर्मिन्दा । उफ़ुक़ = क्षितिज । कार-ए-नुमायाँ = कारनामा । बाब = पुस्तक का परिच्छेद । रसन = रस्सी । ख़ुतन = एक स्थान, जहाँ का मुश्क मशहूर है। दिक़ = तपेदिक, क्षय । वारफ़्तगी = आत्मविस्मृति । क़ुम्क़ुम: = बिजली का बल्ब । सोख्त:तन = दिलजला, आशिक़ का प्रतीक । अज़्मत = प्रतिष्ठा । कुश्तगाँ = आशिक़, क़त्ल किए हुए । कामराँ = नसीब वाला, क़ामयाब।

14 अप्रॅल, 2015

स्वतंत्रता की अनेक व्याख्या हैं लेकिन परिभाषा शायद कोई नहीं। इसका कारण है कि स्वतंत्रता निजता का मामला है... नितांत निजी। प्रत्येक की स्वतंत्रता अपनी-अपनी अलग-अलग और अनोखी।
गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
"पराधीन सपनेहु सुख नांही”
याने पराधीन व्यक्ति किसी हाल में भी सुखी नहीं रह सकता। इसका अर्थ यही है कि सुखों की सूची में संभवत: स्वतंत्रता, वरीयता क्रम में पहले स्थान पर है।
इस वीडियो में सुश्री दीपिका पादुकोने ने नारी के द्वारा अपनी पसंद को चुनने की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में बताया है। उनकी अपनी स्वतंत्रता की व्याख्या यही है। मुझे नहीं लगता कि कोई भी इससे असहमत होगा क्योंकि सभी को अपनी मर्ज़ी से अपना जीवन बिताने का हक़ है।
हाँ नारी विमर्श और जीवन संदेश के संदर्भ में यह वीडियो कितना उपयोगी है यह प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पसंद का मामला है। इस वीडियो के प्रत्युत्तर में एक वीडियो पुरुषों की ओर से आया है। उसे भी चाहें तो देख लें।
ख़ैर… ज़रा इस बात पर अवश्य ग़ौर करें कि कम से कम नारी को स्वतंत्रता की परिभाषा बताने वाला पुरुष नहीं होना चाहिए क्योंकि पुरुष कोई नारी का भाग्यविधाता नहीं है वरन नारी के समानान्तर और समान रूप से उसका मित्र, सखा, सहचर, जीवनसाथी, सहकर्मी आदि होता है।
वैसे व्यवहार जगत में अधिकतर व्यक्तियों की जीवन शैली “पर उपदेस कुसल बहुतेरे” से प्रभावित रहती है। पता नहीं क्यों पर यह वीडियो देखकर मैं पुरुष के रूप में शर्मिन्दा हूँ कि हम पुरुषों ने अधिकतर वर्जनाएँ स्त्री के ऊपर लाद रखीं हैं और स्त्री को अपनी स्वतंत्रता की बात वस्त्र उतार-उतार कर करनी पड़ती है।
मेरे हिसाब से तो “स्वतंत्रता से जीओ और जीने दो” का नियम ही सर्वश्रेष्ठ है।

5 अप्रॅल, 2015

तुम क्षमा कर दो उन्हें भी
जो तुम्हारे सत्य पथ पर
कंटकों का जाल चारों ओर से
बिखरा रहे थे
और तुमको
छद्म-जीवन राह भी दिखला रहे थे

और उनको भी क्षमा कर दो
कि जिनमें, ईर्ष्या ही ईर्ष्या
का भाव था
बस स्वार्थवश ही
था प्रदर्शन प्रेम का

स्वत: उनको, मुस्कुरा कर
दान देना परम करुणा से भरे मन
और अंतर हृदय से तुम

जिनका विरोधी स्वर बना कारण
तुम्हारे परम सुखमय आज का
अपने निजी आकाश का

स्मरण हो
लाओत्से ने क्या कहा था-
“हो सहज मन
और करुणा हो
सभी के प्रति तुम्हारी”

ध्यान मत देना
कनफ्य़ूशस के कथन पर-
"जो बिछाएँ शूल, राहों में निरंतर
उन्हें सम्मानित करो मत फूल देकर
क्योंकि इससे रूठ जाएँगे सभी वे
सेज फूलों से सजाते हैं तुम्हारी”

अरे तुम सुन रहे हो ना ?

तुम्हारे जो भी अपने हैं
वो तो हर हाल अपने हैं
यदि कोई ‘हाल’ ऐसा है
जहाँ होंगे विरोधी वे
तो फिर ये जान लो
भ्रम है तुम्हें ये आज भी
कि वे तो मेरे अपने हैं
रखोगे तुम क्षमा भीतर
तभी तो प्रेम भी होगा
नहीं तो प्रेम
सुख की लालसा का ही व्यसन होगा

मेरी मानो!
क्षमा कर दो !

क्योंकि तुम प्रेममय हो।

Aditya-Chaudhary-facebook-post-002.jpg
3 अप्रॅल, 2015


शब्दार्थ

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