आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट अक्टूबर-दिसम्बर 2015

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आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
दिनांक- 22 दिसम्बर, 2015

सामान्य, बात-चीत में मैं अक्सर कह देता हूँ कि मैं भगवान को नहीं मानता लेकिन मेरे साथ जो घटता है वह बड़ा ही विलक्षण अनुभव रहता है।

मैं कुछ समय पहले गोरखपुर गया था। वहाँ गोरखनाथ जी के मंदिर में गया तो वहाँ बैठे-बैठे मेरे मन में गोरखनाथ जी का मंत्र ‘हँसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्’ चलने लगा और मेरी आँखें भर आईं, कुछ समय के लिए सुध-बुध खो बैठा। वहाँ से उठा तो उसी परिसर में हनुमान जी का मंदिर था। हनुमान जी के सामने बैठकर हनुमान चालीसा पढ़ा। पढ़ते-पढ़ते फिर वही हाल हो गया जो गोरखनाथ मंदिर में हुआ था। इसके बाद हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के गीता भवन गया वहाँ मंदिर में दर्शन किए उसके बाद जब बाहर आया तो कृष्ण भजन चल रहे थे खड़ा-खड़ा आँख बन्द की तो फिर भावुक हो गया।

जब मुझे भारत सरकार ने विश्व हिन्दी सम्मान दिया तो इस कार्यक्रम के लिए मैं भोपाल गया। वहाँ एक पुरानी विशालकाय मस्जिद में जा पहुँचा। यह मस्जिद पर्यटकों के लिए भी उपलब्ध है। मस्जिद में कुछ देर आँखें बंद किए बैठा रहा। जैसे ही मैंने मन में कहा कि हे ईश्वर… अल्लाह ! सबका भला कर, सबके काम बना तो फिर आखों में आंसू आ गए। वहाँ बैठे मुस्लिम, आश्चर्य से मुझे देखने लगे क्योंकि मेरे माथे पर तिलक लगा था और कलाई पर कलावा बँधा था और साथ ही, मैं बैठा भी हाथ जोड़कर था। वहाँ बैठे एक बुज़ुर्ग मौलवी ने मुझे देखा तो करुणा के भाव के साथ मुस्कुरा दिए।

मनुष्य का जीवन ईश्वर की आस्था-अनास्था में व्यतीत होता है। ईश्वर के प्रति अास्था होने का अर्थ किसी धर्म के प्रति आस्था होना है या नहीं यह निश्चित नहीं है। हो सकता किसी धर्म विशेष में पैदा हुआ व्यक्ति अपने धर्म की परिभाषा ऐसी बना ले जिसमें दूसरे धर्मावलम्बियों के लिए नफ़रत हो। वह आतंक के द्वारा अपने धर्म को फैलाना चाहे या अपने धर्म का प्रयोग राजनीति और व्यवसाय के लिए करे। ऐसे लोग नास्तिक ही होते हैं और यह नास्तिकता ईश्वर के प्रति है। इस प्रकार के नास्तिकों की संख्या असंख्य है।

हम आस्तिक हैं यह तो ठीक है किंतु किसके प्रति है यह आस्तिकता। ईश्वर के प्रति, मानव-धर्म के प्रति या संप्रदाय के प्रति। यह ज़रूरी नहीं है कि कोई व्यक्ति किसी संप्रदाय-मज़हब के प्रति आस्था रखता हो तो ईश्वर में भी उसकी आस्था हो। ईश्वर में आस्था का अर्थ ईश्वर की स्तुति नहीं है बल्कि सत्य, करुणा, विवेक और प्रेम के मार्ग पर चलना है और यही ईश्वर-प्रदत्त मार्ग है। अब सोचने वाली बात यह है कि कितने लोग इस मार्ग पर चलते हैं? संभवत: कम ही हैं तो बस हिसाब लगा सकते हैं कि आस्तिकों की संख्या अधिक है या नास्तिकों की।

दिनांक- 22 दिसम्बर, 2015

ब्रजभाषा में लिखी इन पंक्तियों का अनुवाद हिन्दी में करें। सही अनुवाद करने वाले को ‘ब्रजरत्न’ से सम्मानित किया जाएगा…

बलाय उलाइतौ, भूमरें उठि गौ। धौंतांएँ कलेऊ करिकें धौपरी तक आरकस से में डर्यो रौ। पहल तौ एक जने को पैंड़ौ देख्यो… जब बु न आयौ तो पतौ परी कि बाते कोई बनउआ बनिगौ। सांझि कूँ चहा पी कें घूमबे निकर्यो तो बगदबे में अबेर है गई। जैसें-तैसें घर ल्यौट्यौ, तौ लौटतखैमई बत्ती पै बीजुरी परि गई। अंधेरे में टटोल-टलालिकें भीतर घुस्यौ तौ पाम रपटि कें सैंचित्त गिर्यो। गिर्त खैंम झमा सौ आइ गौ। आंख खुली तो असपताल में म्हौं पै मुछीका सौ बांध कें एक नस्स दिखी।
खैरि अब तौ सब ठीकै।

दिनांक- 21 दिसम्बर, 2015

मैं यहाँ किसी धर्म-संप्रदाय-मज़हब के पक्ष-विपक्ष में नहीं लिख रहा हूँ। इसलिए किसी धर्म-संप्रदाय या मज़हब के अति उत्साही समर्थक निम्न पंक्तियों को सामान्य अर्थों में ही लें। कारण यह है कि मैं स्वयं को विद्वान् न मानते हुए मात्र एक जिज्ञासु के समान ही लिखता हूँ। मेरे लिखे पर जो टिप्पणी आती हैं उससे मेरी जानकारी बढ़ती है। कभी-कभी कुछ लोग मेरी पोस्ट पर मुझे किसी एक पक्ष का मानते हुए टिप्पणी कर देते हैं जिसका कोई अर्थ नहीं है। मैं भारतकोश (www.bharatkosh.org) चला रहा हूँ और भारत की परंपरा, संस्कृति और इतिहास आदि की खोज में लगा रहता हूँ। मुझे जब भी जो भी जानने को मिलता है, लिखने का प्रयास करता हूँ। मैं किसी विषय पर कोई अथॉरिटी नहीं हूँ और एक साधारण रूप से पढ़ा-लिखा व्यक्ति हूँ।

अज़ीज़ के राय मेरे फ़ेसबुक मित्र हैं। विद्वान् हैं और साथ ही मेरी लेखनी के प्रशंसक भी हैं। उनकी एक पोस्ट आई,
Aziz K. Rai

"निरपेक्ष, निष्पक्ष, नास्तिक, निडर, निराकार और निस्वार्थ” मुझे ये शब्द ही बेईमान (कपटी) लगते हैं। जो इनके पक्षधर होते हैं उनकी बातें निराधार होती हैं।"

मैंने पोस्ट देखी तो सोचा इस पर अपनी राय ज़ाहिर कर दूँ।
यहाँ मैं ‘निरपेक्ष' पर लिख रहा हूँ:-

धर्म को धारण करने वाला याने धार्मिक व्यक्ति सत्य के मार्ग पर ही चलने का प्रयास करता है और सत्य का मार्ग किसी एक के लिए ही सापेक्ष हो यह संभव नहीं है। इसलिए धार्मिक व्यक्ति, किसी धर्म-संप्रदाय के लिए नहीं बल्कि सत्य-मार्ग के लिए प्रतिबद्ध होता है।

‘सत्यनिष्ठा’ सदैव निरपेक्ष और निष्पक्ष ही होती है। सत्य का मार्ग निरपेक्ष और निष्पक्ष ही होता है। 'सापेक्ष सत्य’ जैसी कोई चीज़ नहीं होती। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना-अपना सच तो हो सकता है किन्तु सत्य तो सभी के लिए एक ही है। जब सत्य निरपेक्ष है तो हम मूलत: निरपेक्ष ही तो हुए।

निरपेक्षता का अर्थ यदि आज की परिस्थितियों की तरह ऊँट-पटाँग न निकाल कर सामान्य ढंग से लिया जाए तो हम सभी निरपेक्ष ही होते हैं। यदि यहाँ निरपेक्षता का अर्थ धर्म-निरपेक्षता से है तो भी मेरा विचार यही है। किसी धर्म के बारे में हमारा अपना पक्ष कोई नहीं होता। हम मात्र अनुसरण ही करते हैं। अनुसरण, संस्कारों का और विरासत में मिली आस्था का।

यदि कोई व्यक्ति बचपन में ही किसी वीरान टापू पर छूट जाए और वहीं अकेला पले-बढ़े… तो सोचिए कि उसका धर्म क्या होगा?

असल में प्रचलित ‘धर्म’ एक सामाजिक विषय है, व्यक्तिगत विषय नहीं है। किसी भी व्यक्ति के परम एकांत में कोई धर्म या जाति नहीं होती यह तो समाज की उपस्थिति जनित लक्षण या विषय है। हम समाज की उपस्थिति में ही धर्म को अपनाते अथवा नकारते हैं।

दिनांक- 15 दिसम्बर, 2015

महिष या महिषी शब्द का अर्थ संस्कृत में, भैंसा, भैंस, रानी और वेश्या के लिए है। गाय के लिए नहीं। मैंने लिखा है कि सामान्य भोजन में गाय को खाना कहीं उद्दृत नहीं है। डी एन झा, डी डी कोसंबी, रोमिला थापर, राजवाड़े, भगवतशरण उपाध्याय आदि क्या यह प्रमाणित करते हैं कि वैदिक काल में 'मनुष्य का प्रिय भोजन गौमांस था'? मैंने इन सभी को पढ़ा है। मुझे ऐसा कहीं नहीं मिला। कई अंग्रेज़ इतिहासकारों ने वैदिक कालीन शब्द 'अन्न' को गाय मानकर लिखा है। जो सही प्रतीत नहीं होता।

इन इतिहासकारों ने जो उदाहरण दिए हैं वे विशेष अवसरों के हैं। ऐसे अवसर 'बलि चढ़ाना', श्राद्ध, मधुपर्क, विशाल यज्ञ आदि। इन उदाहरणों में भी स्पष्ट रूप से प्रत्येक अवसर पर गाय का ज़िक्र हो ऐसा नहीं है।

बहुत से शब्दों के अर्थ भी दूसरे ही निकाले गए हैं। जैसे गैंड़े का मांस खाने का ज़िक्र है। गैंड़े शब्द का प्रयोग एक प्रकार के पक्षी के लिए भी होता था। जिसका ज़िक्र वामन काणे ने किया है। अनेक ऋषि मुनियों का मांस खाने का ज़िक्र है। जिनमें अगस्त्य और शुक्राचार्य प्रमुख हैं। किन्तु यह कहीं नहीं लिखा कि किसी ऋषि-मुनि का प्रिय भोजन गाय थी। किसी विशाल यज्ञ जैसे कि 'अश्वमेध' में ब्राह्मणों को गाय का मांस परोसा गया हो, ऐसा उल्लेख नहीं है। भोजन प्रेमी ऋषियों में दुर्वासा भी हुए हैं, उनको किसी ने गौमांस परोसा हो यह कहीं नहीं मिलता।

भीम, हनुमान, जरासंध, दुर्योधन आदि जैसे वीर योद्धा भी गौमांस नहीं खाते थे। उससे पहले वैदिक काल में जाएँ तो सुदास और शशबिन्दु का कहीं गौमांस खाने का उल्लेख नहीं है। रावण, कंस, वाणासुर, आदि की कहीं गौमांस खाने की बात नहीं है। देवताओं को तो छोड़िये राक्षसों तक का गौमांस खाने का उल्लेख नहीं है।

अंग्रज़ों ने भारतीय संस्कृति को मिटाने के लिए ऊटपटांग लिखा और हमने मान लिया?

एक बार फिर गंभीरता से विचार कीजिए भाई साब! हमारे किसी रीतिरिवाज में गौमांस भक्षण का प्रतीक नहीं है। भारत में गाय तो कामधेनु का स्वरूप लिए हुए रही है। इसके भक्षण का तो कोई प्रश्न ही नहीं।

दिनांक- 14 दिसम्बर, 2015

पिछले दिनों, गौवध और गौमांस भक्षण पर काफ़ी बहस चली थी। अनेक तर्क रखे गए। यहाँ मैं ऋग्वेद के हवाले से कहना चाहता हूँ कि गाय को ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर अघ्न्या कहा गया है। जिसका अर्थ है ‘अवध्य’ जिसका वध न किया जाता हो। संस्कृत भाषा के ज्ञानी जानते हैं कि ‘घ’ अक्षर संस्कृत में प्रहार के लिए भी प्रयुक्त होता है। जिससे ‘घन’ शब्द भी बना है जिसका अर्थ एक गदा जैसा शस्त्र भी है। घन काले बादलों के लिए भी है जो कि बिजली की कड़क और प्रहार उत्पन्न करते हैं।

ऋग्वेद में अघ्न्या शब्द का प्रयोग बार-बार गाय के लिए प्रयुक्त होना हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि वेदों में गाय को मात्र दूध के सेवन के लिए पाला जाता था न कि उसे रोज़ाना के भोजन के लिए मार कर और पका कर खाने के लिए। जहाँ तक बलि चढ़ाने का प्रश्न है तो मेरे विचार से बलि चढ़ाना एक उत्सव के रूप में होता रहा है। जो किसी देवता विशेष के क्रोध को शांत करने के लिए या फिर उसे प्रसन्न करने के लिए होता था। कहीं-कहीं आज भी होता है। जिसमें भैंसे की या पड्डे की बलि चढ़ाने का रिवाज रहा है।

यह भी कहा जाता है कि किसी विशेष अवसर के लिए गाय या उसके बछड़े की बलि चढ़ाई जाती थी परन्तु जहाँ तक मेरी जानकारी है, इसका कोई वैदिक उल्लेख मिलता नहीं। व्यक्तिगत रूप से मुझे नहीं लगता कि गाय वैदिक काल में प्रतिदिन के भोजन का हिस्सा रही होगी। डॉ. रामविलास शर्मा जी ने विस्तार से इस संबंध में लिखा है… पठनीय है।

यहाँ एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है- वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य की मित्रता की ‘बॉन्डिग’ सबसे अधिक कुत्ते के साथ हुई। इसी क्रम में घोड़ा और गाय भी आते हैं। यह भी माना गया है कि जिन जानवरों से मनुष्य की ‘बॉन्डिग’ हुई उनको भोजन की तरह खाने में मनुष्य को हिचक हुई और ऐसे जानवरों को मनुष्य ने नहीं खाया।

कुछ भी कहें गाय को देखकर भी तो ऐसा नहीं लगता कि इसको मारकर खाया जाना चाहिए। हमारे समाज में सीधे-सरल व्यक्ति के लिए कहा जाता है कि बिल्कुल गाय की तहर सीधा/सीधी है। गाय का दूध भी मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ भोजन माना गया है। गौमूत्र और गोबर से लेकर गाय हमारे लिए अपने पूरे अस्तित्व सहित महत्वपूर्ण है तो फिर इसे खाएँ क्यों...

दिनांक- 12 दिसम्बर, 2015

एक मंदिर की बहुत मान्यता थी। मंदिर के चारों ओर दूर-दूर तक रेगिस्तान था। एक टीले नुमा पहाड़ पर यह मंदिर बना हुआ था। जहाँ से मंदिर की चढ़ाई शुरू होती थी वहाँ एक दुकान थी।

एक यात्री ने दुकानदार से मंदिर के रास्ते के बारे में पूछा तो दुकानदार ने इशारे से बता दिया। यात्री चढ़ाई चढ़कर मंदिर तक पहुँचा तो उसे मंदिर में भीतर जाने से रोक दिया गया। पूछने पर पता चला कि मंदिर में वही प्रवेश कर सकता है जो विशेष प्रकार की टोपी पहने हो। यात्री निराश होकर वापस लौटा तो दुकानदार ने बताया कि वैसी टोपी तो वह बेचता है।
क़ीमत पूछने पर बताई ‘एक हज़ार रुपए’

यात्री ने आश्चर्य से पूछा- “जब ये टोपी तुम्हारे पास बिकती है तो तुमने पहले क्यों नहीं बताया ? मैं मंदिर तक पहुँचा और वापस लौटा… अब तुम बता रहे हो कि टोपी तुम्हारे पास है… इसका क्या मतलब है?

दुकानदार ने समझाया- “अगर मैं तुमसे पहले ही कहता कि टोपी ले लो और हज़ार रुपए क़ीमत बताता तो तुम नहीं ख़रीदते। मंदिर जाने की परेशानी उठाकर तुमको टोपी की ज़रूरत समझ में आ गई है। अब तुम हज़ार रुपए की टोपी आराम से ख़रीद लोगे।”

ये उदाहरण बाज़ार की सप्लाई-डिमांड समीकरण को समझाने के लिए दिया है। बाज़ार, भावनाओं से नहीं बल्कि भावनाओं को भुनाने से चलता है।

दिनांक- 6 अक्टूबर, 2015

भारतकोश संपादकीय का अंश

दुनिया में जिन खोजों का विशेष महत्व है उनमें पहिया, शून्य, दशमलव, π (पाई), पुस्तक छपाई, गुरुत्वाकर्षण, बैटरी, मोटर, डायनमो आदि हैं। इनमें डायनमो ने जो प्रभाव डाला है वो तो ग़ज़ब है। बिजली का बनने और आम जन के लिए सुलभ हो जाने से जैसे दुनिया ही बदल गई। कह सकते हैं कि दुनिया दो हैं, एक बिजली से पहले की दुनिया और दूसरी बिजली के बाद की दुनिया।

बिजली आई तो कुटीर उद्योग, कल कारख़ानों में बदल गए। लोग अपना गाँव अपना शहर और यहाँ तक कि अपना देश छोड़कर रोज़गार की तलाश में घर से दूर घर बसाने लगे। शुरुआत में पुरुष ही बाहर जाते थे फिर परिवार सहित जाने लगे। संयुक्त परिवार की भव्य व्यवस्था दरक़ने लगी।

गृहणी को संयुक्त परिवार में अपनी स्वतंत्रता का हनन होता प्रतीत होने लगा। मेरा पति, मेरे बच्चे और मेरा घर ही वरीयता हो गई। रिश्तेदारियों का आनंद अब मात्र रिश्तेदारी निबाहने तक सीमित रह गया। धीरे-धीरे लोग ‘हम’ से ‘मैं’ में बदलने लगे। बच्चों को बोर्डिंग स्कूलों में पढ़ाया जाने लगा। वैसे तो बच्चों को प्राचीनकाल से ही, अभिभावकों से दूर रखकर गुरुकुलों में पढ़ाने की परंपरा रही है लेकिन उस समय की गुरुकुल परंपरा में और अब की बोर्डिंग व्यवस्था में कोई तालमेल नहीं है।

बिजली आने के बाद टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल फ़ोन आदि की बहुत बड़ी भूमिका संयुक्त परिवार की व्यवस्था को समाप्त करने में रही।

ज़रा यह भी सोचना चाहिए कि यह परिवर्तन सही था या ग़लत ? संयुक्त परिवार, हमारी सभ्यता-संस्कृति, विकास और स्वतंत्रता के लिए उचित थे या अनुचित ?

जहाँ तक नारी विमर्श की बात है तो निश्चित रूप से गृहस्थ जीवन में संयुक्त परिवार एक गृहणी के लिए बंधनों से भरे रहे होंगे। नारी स्वतंत्रता जैसी स्थिति इन परिवारों में कितनी संभावना लेकर जीवित रहती होगी यह कहना कोई कठिन काम नहीं है। संयुक्त परिवार की व्यवस्था भारत के एक-आध राज्य को छोड़कर सामान्यत: पुरुष प्रधान थी। संयुक्त परिवार, एक परिवार न होकर एक कुटुंब होता था। जिसका मुखिया अपने या परंपराओं द्वारा निष्पादित नियमों को कुटुंब के सभी सदस्यों पर लागू करता था।

संयुक्त परिवार सुरक्षा की दृष्टि को देखकर बने थे। प्राचीन काल में न तो आज जैसे मकान थे, न राज्य द्वारा दी गई सुरक्षा इतनी सुदृढ़ थी। जंगली जानवरों का भय, डाकुओं का भय, दूसरे परिवार, क़बीले या गाँव द्वारा हमला किए जाने का भय आदि अनेक असुरक्षित वातावरण का सामना करते जीना ही संयुक्त परिवार का कारण बने।

इसे समझने के लिए और थोड़ा आदिकाल की ओर चलें तो धरती पर 5 लाख वर्ष तक बने रहने वाली नीएंडरठल नस्ल के आज से 25 हज़ार साल पहले लुप्त हो जाने के कारणों में से एक संयुक्त परिवार की कमज़ोर संरचना भी था। नीएंडरठल शरीर के आकार और शक्ति में होमोसैपियन्स से अधिक थे किंतु भारी हथियारों का प्रयोग करते थे। जिन्हें वे हाथ में पकड़े-पकड़े ही इस्तेमाल करते थे अर्थात् वे शस्त्रों का प्रयोग करते थे अस्त्रों का नहीं। अस्त्र को फेंककर चलाया जाता है। ये बलिष्ठ नस्ल अपने भारी-भरकम भालों का प्रयोग फेंककर नहीं कर पाती थी इसके विपरीत होमोसैपियन्स अपने हल्के भालों को फेंक भी सकते थे।

नीएंडरठल के क़बीले-परिवार छोटे थे और इसमें 20 से 30 सदस्य होते थे। होमोसैपियन्स के क़बीले 100 से अधिक सदस्यों के थे। धीरे-धीरे नीएंडरठल यूरोप से ग़ायब हो गए। जिसका कारण था दोनों नस्लों की भोजन को लेकर लड़ाई और आपस में वैवाहिक संबंध न हो पाना। साथ ही संख्या बल से भी होमोसैपियन्स जीत गए।

ऊपर दिया उदाहरण यह प्रमाणित करता है कि प्राचीन काल में बड़े संयुक्त परिवार अधिक सुरक्षित और व्यावहारिक थे। आज जबकि मनुष्य को सुरक्षा और भोजन के लिए प्राचीन काल जैसा संघर्ष नहीं करना पड़ता तो संयुक्त परिवार की अवधारणा समाप्त हो रही है।

संयुक्त परिवारों का चलन समाप्त होने से पुरुष और स्त्री का भेद कम हुआ। नारी को स्वतंत्र-स्वच्छंद आकाश में विचरण करने का मौक़ा मिला। नई पहचान मिलने लगी। प्रतिभा निखारने का समय और मौक़ा मिलने लगा। यह सब कुछ हुआ लेकिन हम रिश्तों को जीना भूलते चले गए। रिश्तों का आनंद लेना भूलने लगे। दादी-नानी की कहानियाँ और लाढ़ जैसे कहीं छूट गया। कह नहीं सकते कि अच्छा हुआ या बुरा लेकिन इतना अवश्य है कि संयुक्त परिवार की यादें आजकल बुज़ुर्गों की गपशप का सबसे बड़ा हिस्सा बन गईं…


शब्दार्थ

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