मीमांसा दर्शन

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मीमांसा शब्द का अर्थ किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ वर्णन है। वेद के मुख्यत: दो भाग हैं। प्रथम भाग में 'कर्मकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। द्वितीय भाग में 'ज्ञानकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की निवृत्ति होती है।

प्रकार

मीमांसा के दो प्रकारों की व्याख्या की गई है-

  1. कर्ममीमांसा
  2. ज्ञानमीमांसा
  • कर्ममीमांसा तथा पूर्वमीमांसा के नाम से अभिहित दर्शन 'मीमांसा' कहा जाता है।
  • ज्ञानमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा के नाम से प्रसिद्ध दर्शन 'वेदान्त' कहलाता है।

मीमांसा दर्शन पूर्णतया वैदिक है। 'मीमांसते' क्रियापद तथा 'मीमांसा' संज्ञापद, दोनों का प्रयोग ब्राह्मण तथा उपनिषद ग्रन्थों में मिलता है। अत: मीमांसा दर्शन का सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन काल से सिद्ध होता है।

मीमांसा दर्शन का विषय

मीमांसा का प्रतिपाद्य विषय धर्म का विवेचन है- 'धर्माख्यं विषयं वस्तु मीमांसाया: प्रयोजनम्'।[1] वेदविहित इष्टसाधन धर्म है और वेदविपरीत अनिष्टसाधन अधर्म है। इस जगत में कर्म ही सर्वेश्रेष्ठ है। कर्म करने से फल अवश्यमेव उत्पन्न होता है। भगवान बादरायण ईश्वर को कर्मफल का दाता मानते हैं, किन्तु मीमांसा दर्शन के आदि आचार्य जैमिनि कर्म को फलदाता मानते हैं। उनके अनुसार यज्ञकर्म से ही तत्तत् फल उत्पन्न होते हैं। मीमांसा दर्शन में 'अपूर्व' नामक सिद्धान्त प्रतिपादित है। कर्म से उत्पन्न होता है फल। इस प्रकार अपूर्व ही कर्म और कर्मफल को बांधने वाली श्रृंखला है। मीमांसा दर्शन वेद को सत्य मानता है।

पूर्वमीमांसा दर्शन में वेद के कर्मकाण्ड भाग पर विचार किया गया है और उत्तरमीमांसा अर्थात् वेदान्तशास्त्र में वेद के ज्ञानकाण्ड भाग पर विचार किया गया है। कर्मकाण्ड भाग पर महर्षि जैमिनि ने विचार किया है और ज्ञानकाण्ड भाग पर महर्षि बादरायण व्यास ने विचार किया है। पूर्वमीमांसा दर्शन में अनुष्ठानोपयोगी धर्म तथा अधर्म का विविध दृष्टिकोणों से विचार किया गया है। सभी को अभीष्ट प्रतीत होने वाले स्वर्गादिफल के साधन को 'धर्म' कहा गया है। अतएव 'याग' आदि को धर्म की कोटी में माना जाता है और कलञ्जादि भक्षण को मरणादि अनिष्टरूप दु:ख का साधन होने से 'अधर्म' माना जाता है।

वेद तथा स्मृति

इन धर्म-अधर्मों का ज्ञान, 'वेद, स्मृति' शिष्टाचार से होता है। मन्त्र तथा ब्राह्मण दोनों को ही 'वेद' शब्द से कहा जाता है- 'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्'। मन्त्रों से अनुष्ठानकालीन पदार्थों का स्मरण होता है तथा विधायक वाक्य को 'ब्राह्मण' कहा जाता है। ब्राह्मणवाक्य अनेक प्रकार के होते हैं, जैसे-

  1. कर्मोत्पत्तिवाक्य
  2. गुणवाक्य
  3. फलवाक्य
  4. फलार्थ गुणवाक्य
  5. सगुण कर्मोत्पत्तिवाक्य

विहित-निषिद्ध कर्मों की नश्वरता को देखकर कालान्तर में मिलने वाले फल के साथ उनके सम्बन्ध को जोड़ने के लिए कर्म और फल के मध्य 'अपूर्व' की कल्पना की गई है। उस अपूर्व के द्वारा ही यागादिकर्मों में स्वर्गफलसाधनता उत्पन्न होती है, यागादिकों में साक्षात स्वर्गफल साधनता नहीं है। इसी 'अपूर्व' को 'फलापूर्व' शब्द से कहा गया है। उस 'फलापूर्व' की उत्पत्ति, 'सर्वांगविशिष्ट प्रधानकर्म' से ही होती है। द्रव्य और देवता दोनों का सम्बन्ध 'याग' के अतिरिक्त अन्य किसी भी क्रिया में सम्भव नहीं है। अतएव 'देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागो याग:' कहकर 'याग' का परिचय दिया जाता है।

  • सम्पूर्ण अंगों के सहित विधि को 'प्रकृति' और समग्र अंगरहित विधि को 'विकृति' कहा गया है। इन दोनों से भिन्न प्रकार की विधि को 'दर्वीहोम' कहा गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्लोकवार्तिक, श्लोक 11

बाहरी कड़ियाँ

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