पुंसवन संस्कार
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- हिन्दू धर्म संस्कारों में पुंसवन संस्कार द्वितीय संस्कार है। जीव जब पिता के द्वारा मातृगर्भ में आता है, तभी से उसका शारीरिक विकास होना प्रारम्भ हो जाता है। बालक के शारीरिक विकास अनुकूलतापूर्वक हों, इसीलिए यह संस्कार किया जाता है। शास्त्र में कहा गया है कि गर्भाधान से तीसरे महीने में पुंसवन-संस्कार किया जाता है[1]। इस संस्कार से गर्भ में आया हुआ जीव पुरुष बनता है। कहा भी है कि जिस कर्म से वह गर्भस्थ जीव पुरुष बनता है, वही पुंसवन-संस्कार है[2]। वैद्यक शास्त्र के अनुसार चार महीने तक गर्भ का लिंग-भेद नहीं होता है। इसलिए लड़का या लड़की के चिह्न की उत्पत्ति से पूर्व ही इस संस्कार को किया जाता है। इस संस्कार में औषधिविशेष को गर्भवती स्त्री की नासिका के छिद्र से भीतर पहुँचाया जाता है। सुश्रुतसंहिता [3] के अनुसार जिस समय स्त्री ने गर्भधारण कर रखा हो, उन्हीं दिनों में लक्ष्मणा, वटशुंगा, सहदेवी और विश्वदेवा — इनमें से किसी एक औषधी को गोदुग्ध के साथ खूब महीन पीसकर उसकी तीन या चार बूँदें उस स्त्री की दाहिनी नासिका के छिद्र में डालें। इससे उसे पुत्र की प्राप्ति होगी।
- पुंसवन-संस्कार गर्भस्थापन के तीन माह के भीतर ही करने का विधान है। इस संस्कार से पुरुष शुक्र की बल प्रदान किया जाता है, जिससे प्रथम संतान पुरुष ही होती है। इस संस्कार से गर्भ में स्थित लिंग का परिवर्तन भी किया जा सकता है। गर्भाधान से लेकर तीन माह तक शिशु का लिंग निर्धारित नहीं होता है। तीन माह बाद शिशु का लिंग निर्धारण होने पर गर्भ में तीव्र स्पंदन होने लगता है। अतः तीन माह बाद लिंग परिवर्तन संभव नहीं।[4]
- गर्भ जब दो-तीन महीने का होता है अथवा स्त्री में गर्भ के चिह स्पष्ट हो जाते हैं, तब गर्भस्थशिशु के समुचित विकास के लिए पुंसवन-संस्कार किया जाता है। प्रायः तीसरे महीने से स्त्री के गर्भ में शिशु के भौतिक शरीर का निर्माण प्रारंभ हो जाता है, जिसके कारण शिशु के अंग और संस्कार दोनों अपना स्वरूप बनाने लगते हैं। गर्भस्थशिशु पर माता-पिता के मन और स्वभाव का गहरा प्रभाव पडता है। अतः माता को मानसिक रुप से गर्भस्थ शिशु की भली प्रकार देखभाल करने योग्य बनाने के लिए इस संस्कार का विशेष महत्तव है। धर्मग्रथों में पुंसवन-संस्कार करने के दो प्रमुख उद्देश्य मिलते हैं। पहला उद्देश्य पुत्रप्राप्ति और दूसरा स्वस्थ, सुंदर तथा गुणवान संतान पाने का है। पहले उद्देश्य के संदर्भ में स्मृतिसंग्रह में लिखा है-
गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वस्य प्रतिपादनम्[4]
अर्थात् इस गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो, इसलिए पुंसवन-संस्कार किया जाता है।
- पुंसवन-संस्कार की व्याख्या करते हुए धर्मग्रथों में धार्मिक आस्था पर विशेष बल दिया गया है। जिसका सिधा-सा अर्थ माता को आत्मिक रुप से सबल बनाना है। यथा-जो लोग वेद-मंत्रों की अलौकिक शाक्ति पर परम श्रद्धा रखकर पुंसवन-संस्कार करते हैं, तो इससे स्त्री के भावप्रधान मन में पुत्रभाव का संकल्प उत्पन्न होता है। जब तीन माह का गर्भ हो, तो लगातार नौ दिन तक सुबह या रात्रि में सोते समय स्त्री को आगे लिखा गया मंत्र अर्थसहित पढकर सुनाया जाए तथा मन में पुत्र ही होगा ऐसा बार-बार दृढ़ निश्चय एवं पूर्ण श्रद्धा के साथा संकल्प किया जाए, तो पुत्र ही उत्पन्न होता है।
पुमानग्निः पुमानिन्द्रः पुमान् देवो बृहस्पतिः।
पुमांसं पुत्रं विन्दस्व तं पुमान्नु जायताम्।।[4]
अर्थात् अग्निदेवता पुरुष हैं, देवराज इंद्र भी पुरुष हैं तथा देवताओ के गुरु बृहस्पति भी पुरुष है, तुझे भी पुरुषत्वयुक्त पुत्र ही उत्पन्न हो।
- एक अन्य क्रिया भी करने का विधान यजुर्वेद में बताया गया है। उसके अनुसार शुभ मंगलमय मुहूर्त में मांगालिक पाठ करके, गणेश आदि देवताओं का पूजन करके वटवृक्ष के नवीन अंकुरों तथा पल्लवों और कुश की जड़ को जल के साथ पीसकर उस रसरुप औषधि को पति गार्भिणी के दाहिने नाक से पिलाये और पुत्र की भावना से-
ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।[4]
आदि मंत्रों का पाठ करे। इन मंत्रों से सुसंस्कृत तथा अभिमंत्रित भाव-प्रधान नारी के मन में पुत्रभाव प्रवाहित हो जाता है, जिसके प्रभाव से गर्भ के मांसपिंड में पुरुष के चिहन उत्पन्न होते हैं। उपर्युक्त उद्धरण भ्रूण के लिंग-परिर्वतन की पुष्टि करते हैं।
- पुंसवन-संस्कार का उद्देश्य बलवान, शक्तिशाली एवं स्वस्थ संतान को जन्म देना है। इस संस्कार से गर्भस्थ शिशु की रक्षा होती है तथा उसे उत्तम संस्कारों से पूर्ण बनाया जाता है। ईश्वर की कृपा को स्वीकार करने तथा उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट के लिए प्रार्थना एवं यज्ञ का कार्य संपन्न किया जाता है। साथ ही यह कामना की जाती है कि वह समय पूर्ण होने पर परिपक्वरुप में उत्पन्न हो।[4]
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