सुदामा चरित भाग-4

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सुदामा चरित भाग-4
सुदामा चरित
सुदामा चरित
कवि नरोत्तमदास
जन्म सन 1493 (संवत- 1550)
जन्म स्थान वाड़ी, सीतापुर, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ सुदामा चरित, ध्रुव-चरित
भाषा अवधी, हिन्दी, ब्रजभाषा
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

सुदामा चरित

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भाग-4 कृष्ण महिमा गान

(सुदामा ) -
कामधेनु सुरतरू सहित, दीन्हीं सब बलवीर।
जानि पीर गुरू बन्धु जन, हरि हरि लीन्हीं पीर।।87।।


विविध भॉति सेवा करी,.सुधा पियायो बाम।
अति विनीत मृदु वचन कहि, सब पुरो मन काम।।88।।


लै आयसु, प्रिय स्नान करि, सुचि सुगन्ध सब लाइ।
पूजी गौरि सोहाग हित, प्रीति सहित सुख पाइ।।89।।


षट्रस विविध प्रकार के, भोजन रचे बनाय।
कंचन थार मंगाइ कै, रचि रचि धरे बनाय।।90।।


कंचन चौकी डारि कै, दासी परम सुजानि।
रतन जटित भाजन कनक , भरि गंगोदक आनि।।91।।


घट कंचन को रतनयुत, सुचि सुगन्धि जल पूरि।
रच्छाधान समेत कै, जल प्रकास भरपूरि।।92।।


रतन जटित पीढा कनक, आन्यो जेंवन काम।
मरकत-मनि चौकी धरी, कछुक दूरि छबि धाम।।93।।


चौकी लई मॅगाय कै, पग धोवन के काज।
मनि-पादुका पवित्र अति, धरी विविध विधि साज।।94।।


चलि भोजन अब कीजिये, कह्यो दास मृदु भाखि।
कृस्न कृस्न सानन्द कहि, धन्य भरी हरि साखि।।95।।


बसन उतारे जाइ कै, धोवत चरन-सरोज।
चौकी पै छबि देत यौं, जनु तनु धरे मनोज।।96।।


पहिरि पादुका बिप्र बर, पीढा बैठे जाय।
रति ते अति छवि- आगरी, पति सो हँसि मुसकाय।।97।।


बिबिध भाँति भोजन धरे, व्यंजन चारि प्रकार।
जोरी पछिओरी सकल, प्रथम कहे नहिं पार।।98।।


हरिहिं समर्पो कन्त अब, कहो मन्द हँसि वाम।
करि घंटा को नाद त्यों, हरि सपर्पि लै नाम।।99।।


अगिनि जेंवाय विधान सों, वैस्यदेव करि नेम।
बली काढि जेंवन लगे, करत पवन तिय प्रेम।।100।।


बार बार पूछति प्रिया, लीजै जो रूचि होइ।
कृस्न- कृपा पूरन सबै, अबै परोसौं सोइ।।101।।


जेंइ चुके, अँचवन लगे, करन हेतु विश्राम।
रतन जटित पलका-कनक, बुनो सो रेशम दाम।।102।।


ललित बिछौना, बिरचि कै, पाँयत कसि कै डोरि।
राखे बसन सुसेवकनि, रूचिर अतर सों बोरि।।103।।


पानदान नेरे धर्यो भरि, बीरा छवि-धाम।
चरन धोय पौढन लगे, करन हेतु विश्राम।।104।।


कोउ चँवर कोउ बीजना, कोउ सेवत पद चारू।
अति विचित्र भूषन सजे, गज मोतिन के हारू।।105।।


करि सिंगार पिय पै गई, पान खाति मुसुकाति।
कहौ कथा सब आदि तें, किमि दीन्हों सौगाति।।106।।


कही कथा सब आदि ते, राह चले की पीर।
सेवत जिमि ठाढो कियो, नदी गोमती तीर।।107।।

गये द्वार जिहि भाँति सों, सो सब करी बखानि।
कहि न जाय मुख लाल सों, कृस्न मिले जिमि आनि।।108।।


करि गहि भीतर लै गए, जहाँ सकल रनिवास।
पग धोवन को आपुही, बैठे रमानिवास।।109।।


देखि चरन मेरे चल्यो, प्रभु नयनन तें बारि।
ताही सों धोये चरन, देखि चकित नर-नारि।।110।।


बहुरि कही श्री कृस्न जिमि, तन्दुल लीन्हें आप।
भेंटे हृदय लगाय कै, मेटे भ्रम सन्ताप।।111।।


बहुरि कही जेवनार सब, जिमि कीन्हीं बहु भाँति।
बरनि कहाँ लगि को कहै, सब व्यंजन की पाँति।।112।।


जादिन अधिक सनेह सों, सपन दिखायो मोहिं।
सेा देख्यो परतच्छ ही,सपन न निसफल होहिं।।113।।


बरनि कथा वहि विधि सबै, कह्ययो आपनो मोह।
वृथा कृपानिधि भगत-हितु-चिदानन्द सन्दोह।।114।।


साजे सब साज-,बाजि गज राजत हैं,
विविध रूचिर रथ पालकी बहल है।
रतनजटित सुभ सिंहासन बैठिबे को,
चौक कामधेनु कल्पतरूहू लहलहैं।
देखि देखि भूषण वसन-दासि दासन के,
सुख पाकसासन के लागत सहल है।
सम्पति सुदामा जू को कहाँ लौं दई है प्रभु,
कहाँ लौं गिनाऊँ जहाँ कंचन महल है।।115।।


अगनित गज वाजि रथ पालकी समाज,
ब्रजराज महाराज राजन-समाज के।
बानिक विविध बने मंदिर कनक सोहैं,
मानिक जरे से मन मोहें देवतान के।
हिरा लाल ललित झरोखन में झलकत,
किमि किमि झूमर झुलत मुकतान के।
जानी नहिं विपति सुदामा जू की कहाँ गई,
देखिये विधान जदुराय के सुदान के।।116।।


कहूँ सपनेहूँ सुबरन के महल होते,
पौरि मनि मण्डित कलस कब धरते।
रतन जटित सिंहासन पर बैठिबे को,
कब ये खबास खरे मौपे चौंर ढरते।
देखि राजसामा निज बामा सों सुदामा कह्यो,
कब ये भण्डार मेरे रतनन भरते।
जो पै पतिवरता न देती उपदेश तू तो,
एती कृपा द्वारिकेस मो पैं कब करते।।117।।


पहरि उठे अम्बर रूचिर सिंहासन पर आय।
बैठे प्रभुता निरखि कै, सुर-पति रह्यो लजाई।।118।।


कै वह टूटि.सि छानि हती कहाँए कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँए लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँए कोमल सेज पै नींद न आवत।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभुए के परताप तै दाख न भावत॥।119।।


धन्य धन्य जदुवंश - मनि, दीनन पै अनुकूल।
धन्य सुदामा सहित तिय, कहि बरसहिं सुर फूल।।120।।

समाप्त

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टीका टिप्पणी और संदर्भ